023: कुंतीवाक्यः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

आश्रमवासिक पर्व

आश्रमवास पर्व

अध्याय 23

सार

कुंतिय मातु (1-21).

15023001 कुंत्युवाच।
15023001a एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि पांडव।
15023001c कृतमुद्धर्षणं पूर्वं मया वः सीदतां नृप।।

कुंतियु हेळिदळु: “पांडव! नृप! महाबाहो! नीनु हेळिदुदु सरियागिये इदॆ! हिंदॆ नीवु ऎदॆगुंदिद्दाग नानु निम्मन्नु युद्धक्कॆ प्रोत्साहिसिद्दॆनु.

15023002a द्यूतापहृतराज्यानां पतितानां सुखादपि।
15023002c ज्ञातिभिः परिभूतानां कृतमुद्धर्षणं मया।।

द्यूतदिंद राज्य-सुखगळन्नु अपहरिसल्पट्टु नीवु ज्ञातिबांधवरिंदलू तिरस्कृतरागिद्दाग नानु निम्मन्नु युद्धक्कॆ प्रोत्साहिसिद्दॆनु.

15023003a कथं पांडोर्न नश्येत संततिः पुरुषर्षभाः।
15023003c यशश्च वो न नश्येत इति चोद्धर्षणं कृतम्।।

पुरुषर्षभरे! पांडुविन संततियु नाशवागदे इरुवुदु मत्तु निम्म यशस्सु कुंददे इरुवुदु हेगॆ ऎंदु योचिसि नावु निम्मन्नु प्रोत्साहिसिदॆनु.

15023004a यूयमिंद्रसमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः।
15023004c मा परेषां मुखप्रेक्षाः स्थेत्येवं तत्कृतं मया।।

नीवॆल्लरू इंद्रन समनादवरु. पराक्रमदल्लि देवतॆगळ समानरु. नीवु जीविकॆगागि इन्नॊब्बर मुखनोडबारदु ऎंदु नानु हागॆ माडिदॆनु.

15023005a कथं धर्मभृतां श्रेष्ठो राजा त्वं वासवोपमः।
15023005c पुनर्वने न दुःखी स्या इति चोद्धर्षणं कृतम्।।

राजा! धर्मभृतरल्लि श्रेष्ठ मत्तु इंद्रन समनागिरुव नीनु हेगॆ पुनः वनदल्लि दुःखियागिरुवॆ ऎंदु नानु निम्मन्नु प्रोत्साहिसिदॆनु.

15023006a नागायुतसमप्राणः ख्यातविक्रमपौरुषः।
15023006c नायं भीमोऽत्ययं गच्चेदिति चोद्धर्षणं कृतम्।।

साविर आनॆगळ बलवुळ्ळ, विक्रम-पौरुषगळल्लि ख्यातनाद ई भीमनु नाशनागबारदॆंदु नानु निम्मन्नु प्रोत्साहिसिदॆनु.

15023007a भीमसेनादवरजस्तथायं वासवोपमः।
15023007c विजयो नावसीदेत इति चोद्धर्षणं कृतम्।।

हागॆये भीमसेनन अनुजनाद, वासवनंतिरुव ई विजय अर्जुननू ऎदॆगुंदबारदॆंदु नानु प्रोत्साहिसिदॆनु.

15023008a नकुलः सहदेवश्च तथेमौ गुरुवर्तिनौ।
15023008c क्षुधा कथं न सीदेतामिति चोद्धर्षणं कृतम्।।

गुरुसेवॆयन्ने माडिकॊंडुबंदिरुव ई नकुल-सहदेवरू कूड हसिवॆयिंद ऎदॆगुंदबारदॆंदु नानु निम्मन्नु प्रोत्साहिसिदॆनु.

15023009a इयं च बृहती श्यामा श्रीमत्यायतलोचना।
15023009c वृथा सभातले क्लिष्टा मा भूदिति च तत्कृतम्।।

ऎत्तर देहवुळ्ळ ई श्यामलवर्णॆ, आयतलोचनॆ श्रीमति द्रौपदियु पुनः सभातलदल्लि वृथा कष्टवन्ननुभविसबारदॆंदु नानु हागॆ माडिदॆनु.

15023010a प्रेक्षंत्या मे तदा हीमां वेपंतीं कदलीमिव।
15023010c स्त्रीधर्मिणीमनिंद्यांगीं तथा द्यूतपराजिताम्।।
15023011a दुःशासनो यदा मौढ्याद्दासीवत्पर्यकर्षत।
15023011c तदैव विदितं मह्यं पराभूतमिदं कुलम्।।

नीवॆल्लरू नोडुत्तिद्दंतॆये बाळॆय मरदंतॆ तरतरनॆ नडुगुत्तिद्द रजस्वलॆयागिद्द शुभलक्षणयुक्तळागिद्द, द्यूतदल्लि पणवागिडल्पट्टु पराजितळागिद्द द्रौपदियन्नु यावाग दुःशासननु मौढ्यदिंद दासियंतॆ तुंबिद सभॆगॆ ऎळॆदु तंदनो – आगले ननगॆ ई वंशवु विनाशवागुवुदॆंदु तिळिदित्तु.

15023012a विषण्णाः कुरवश्चैव तदा मे श्वशुरादयः।
15023012c यदैषा नाथमिच्चंती व्यलपत्कुररी यथा।।

नन्न मावने मॊदलाद कुरुगळु अल्लि उपस्थितरिद्दरु. आदरॆ अवर्यारू अवळ रक्षणॆगॆ बरदिद्दाग अवळु हॆण्णु कडलहद्दिनंतॆ गोळाडुत्तिद्दळु.

15023013a केशपक्षे परामृष्टा पापेन हतबुद्धिना।
15023013c यदा दुःशासनेनैषा तदा मुह्याम्यहं नृप।।

नृप! बुद्धिगॆट्टिद्द पापिष्ठ दुःशासननु यावाग अवळ तलॆगूदलन्नु हिडिदु ऎळॆदु तंदनो आग नानु दुःखदिंद मूर्छितळागिद्दॆ!

15023014a युष्मत्तेजोविवृद्ध्यर्थं मया ह्युद्धर्षणं कृतम्।
15023014c तदानीं विदुरावाक्यैरिति तद्वित्त पुत्रकाः।।

निम्म तेजस्सन्नु वृद्धिगॊळिसलु नानु विदुलॆय वाक्यगळ मूलक निम्मन्नु युद्धक्कॆ प्रोत्साहिसिदॆनु. मक्कळे! इदन्नु अर्थमाडिकॊळ्ळि!

15023015a कथं न राजवंशोऽयं नश्येत्प्राप्य सुतान्मम।
15023015c पांडोरिति मया पुत्र तस्मादुद्धर्षणं कृतम्।।

निम्मंथह मक्कळन्नु पडॆदू पांडुविन ई राजवंशवु नाशवागबारदॆंदु नानु निम्मन्नु युद्धक्कॆ प्रोत्साहिसिदॆनु.

15023016a न तस्य पुत्रः पौत्रौ वा कुत एव स पार्थिव।
15023016c लभते सुकृताऽल्लोकान्यस्माद्वंशः प्रणश्यति।।

पार्थिव! यारिंद वंशवु नाशवागुवुदो अवन पुत्र-पौत्ररु यारू पुण्यलोकगळन्नु हॊंदुवुदिल्ल.

15023017a भुक्तं राज्यफलं पुत्रा भर्तुर्मे विपुलं पुरा।
15023017c महादानानि दत्तानि पीतः सोमो यथाविधि।।

मक्कळे! हिंदॆ नानु नन्न पतिय राज्यफलवन्नु विपुलवागि भोगिसिद्देनॆ. यथाविधियागि महादानगळन्नु नीडिद्देनॆ मत्तु सोमवन्नू कुडिदिद्देनॆ.

15023018a साहं नात्मफलार्थं वै वासुदेवमचूचुदम्।
15023018c विदुरायाः प्रलापैस्तैः प्लावनार्थं तु तत्कृतम्।।

नानु नन्न स्वार्थफलक्कागि वासुदेवन मूलक विदुलॆय आ प्रलापद मातुगळन्नु हेळि कळुहिसिरलिल्ल. निम्मन्नु आ कष्टदिंद पारुमाडुवुदक्कागिये हागॆ माडिदॆनु.

15023019a नाहं राज्यफलं पुत्र कामये पुत्रनिर्जितम्।
15023019c पतिलोकानहं पुण्यान्कामये तपसा विभो।।

मगने! नानु मक्कळु गॆद्द राज्यफलवन्नु बयसुवुदिल्ल. विभो! तपस्सिन मूलक नानु नन्न पतियु सेरिद पुण्यलोकगळन्नु बयसुत्तेनॆ.

15023020a श्वश्रूश्वशुरयोः कृत्वा शुश्रूषां वनवासिनोः।
15023020c तपसा शोषयिष्यामि युधिष्ठिर कलेवरम्।।

युधिष्ठिर! वनवासी अत्तॆ-मावंदिर शुश्रूषॆयन्नु माडुत्ता तपस्सिनिंद नन्न ई शरीरवन्नु शोषिसुत्तेनॆ.

15023021a निवर्तस्व कुरुश्रेष्ठ भीमसेनादिभिः सह।
15023021c धर्मे ते धीयतां बुद्धिर्मनस्ते महदस्तु च।।

कुरुश्रेष्ठ! भीमसेनादिगळॊंदिगॆ हिंदिरुगु! निन्न बुद्धियु यावागलू धर्मदल्लिये स्थिरवागिरलि मत्तु निन्न मनस्सू विशालवागिरलि!””

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि कुंतीवाक्ये त्रयाविंशोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि आश्रमवासिकपर्वदल्लि आश्रमवासपर्वदल्लि कुंतीवाक्य ऎन्नुव इप्पत्मूरने अध्यायवु.