043: अनुगीतायां गुरुशिष्यसंवादः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

अश्वमेधिक पर्व

अश्वमेधिक पर्व

अध्याय 43

सार

कृष्णनु अर्जुननिगॆ मोक्ष विषयक गुरु-शिष्यर संवादवन्नु मुंदुवरिसि हेळिदुदु (1-40).

14043001 ब्रह्मोवाच
14043001a मनुष्याणां तु राजन्यः क्षत्रियो मध्यमो गुणः।
14043001c कुंजरो वाहनानां च सिंहश्चारण्यवासिनाम्।।
14043002a अविः पशूनां सर्वेषामाखुश्च बिलवासिनाम्।
14043002c गवां गोवृषभश्चैव स्त्रीणां पुरुष एव च।।

ब्रह्मनु हेळिदनु: “मनुष्यरल्लि क्षत्रिय राजनु गुणगळल्लि श्रेष्ठ. हागॆये वाहनगळल्लि आनॆ, अरण्यवासिगळल्लि सिंह, सर्व पशुगळल्लि टगरु, बिलवासिगळल्लि सर्प, गोवुगळल्लि ऎत्तु मत्तु स्त्रीपुरुषरल्लि पुरुषनु श्रेष्ठनु.

14043003a न्यग्रोधो जंबुवृक्षश्च पिप्पलः शाल्मलिस्तथा।
14043003c शिंशपा मेषशृंगश्च तथा कीचकवेणवः।
14043003e एते द्रुमाणां राजानो लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः।।

आल, नेरळॆ, अरळि, बूरुग, अगुरु, कुरुटिग, ऒळगॆ टॊळ्ळागिरुव बिदिरु - ई वृक्षगळु लोकदल्लिरुव वृक्षगळलॆल्ला श्रेष्ठवादवुगळु ऎन्नुवुदरल्लि संशयवे इल्ल.

14043004a हिमवान्पारियात्रश्च सह्यो विंध्यस्त्रिकूटवान्।
14043004c श्वेतो नीलश्च भासश्च काष्ठवांश्चैव पर्वतः।।
14043005a शुभस्कंधो महेंद्रश्च माल्यवान्पर्वतस्तथा।
14043005c एते पर्वतराजानो गणानां मरुतस्तथा।।

हिमवंत, पारियात्र, सह्य, त्रिकूट, विंध्य, श्वेत, नील, भास, काष्ठवान्, शुभस्कंध, महेंद्र मत्तु माल्यवान् – ई पर्वतगळु ऎल्ल पर्वतगळिंत श्रेष्ठ. गणगळल्लि मरुद्गणवु श्रेष्ठवादुदु.

14043006a सूर्यो ग्रहाणामधिपो नक्षत्राणां च चंद्रमाः।
14043006c यमः पितॄणामधिपः सरितामथ सागरः।।

सूर्यनु ग्रहगळ अधिप मत्तु चंद्रमनु नक्षत्रगळ ऒडॆय. यमनु पितृगळ अधिप मत्तु सागरनु सरित्तुगळ ऒडॆय.

14043007a अंभसां वरुणो राजा सत्त्वानां मित्र उच्यते। 1
14043007c अर्कोऽधिपतिरुष्णानां ज्योतिषामिंदुरुच्यते।।

वरुणनु नीरुगळ राज मत्तु मित्रनु सत्त्वगळ मित्र ऎंदु हेळुत्तारॆ. उष्णपदार्थगळिगॆ सूर्यनु अधिपति. ज्योतिगळिगॆ इंदुवु राज.

14043008a अग्निर्भूतपतिर्नित्यं ब्राह्मणानां बृहस्पतिः।
14043008c ओषधीनां पतिः सोमो विष्णुर्बलवतां वरः।।

अग्नियु ऎल्ल भूतगळ ऒडॆय मत्तु बृहस्पतियु ब्राह्मणर अधिपति. औषधिगळ पति सोम मत्तु विष्णुवु बलवंतरल्लि श्रेष्ठनु.

14043009a त्वष्टाधिराजो रूपाणां पशूनामीश्वरः शिवः।
14043009c दक्षिणानां तथा यज्ञो वेदानामृषयस्तथा।।

रूपगळिगॆ त्वष्टने अधिराज. पशुगळ अधिराजनु ईश्वर शिव. हागॆये दक्षिणॆगळिगॆ यज्ञ मत्तु वेदगळिगॆ ऋषिगळु अधिपतिगळु.

14043010a दिशामुदीची विप्राणां सोमो राजा प्रतापवान्।
14043010c कुबेरः सर्वयक्षाणां देवतानां पुरंदरः।
14043010e एष भूतादिकः सर्गः प्रजानां च प्रजापतिः।।

दिक्कुगळल्लि उत्तरवु श्रेष्ठ, विप्ररिगॆ प्रतापवान् सोमनु राज. सर्व यक्षरल्लि कुबेरनु श्रेष्ठ मत्तु देवतॆगळल्लि पुरंदरनु श्रेष्ठ. प्रजॆगळिगॆ प्रजापतियु अधिपनु. इदु भूतगळ अधिपति सर्गवायितु.

14043011a सर्वेषामेव भूतानामहं ब्रह्ममयो महान्।
14043011c भूतं परतरं मत्तो विष्णोर्वापि न विद्यते।।

नाने ऎल्ल प्राणिगळिगू अधीश्वर मत्तु महान् ब्रह्ममयनु. नानु मत्तु विष्णुविगिंतलू श्रेष्ठरादवरु यारू इल्ल.

14043012a राजाधिराजः सर्वासां विष्णुर्ब्रह्ममयो महान्।
14043012c ईश्वरं तं विजानीमः स विभुः स प्रजापतिः।।

महान् ब्रह्ममयनाद विष्णुवे सर्वर राजाधिराज. अवने ईश्वर, अवने विभु मत्तु अवने प्रजापतियॆंदु तिळिदुकॊळ्ळबेकु.

14043013a नरकिन्नरयक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्।
14043013c देवदानवनागानां सर्वेषामीश्वरो हि सः।।

नर, किन्नर, यक्ष, गंधर्व, उरग, राक्षस, देव, दानव, नाग ऎल्लर ईश्वरनू अवने.

14043014a भगदेवानुयातानां सर्वासां वामलोचना।
14043014c माहेश्वरी महादेवी प्रोच्यते पार्वतीति या।।
14043015a उमां देवीं विजानीत नारीणामुत्तमां शुभाम्।
14043015c रतीनां वसुमत्यस्तु स्त्रीणामप्सरसस्तथा।।

भगदेव सूर्यनु अनुसरिसुव सर्वस्त्रीयरल्लियू सुंदर कण्णुगळन्नु हॊंदिरुव माहेश्वरि महादेवी पार्वतिये श्रेष्ठळादवळु. नारिगळल्लि उमादेवियु उत्तमळू शुभळू ऎंदु तिळियिरि. रमिसलु योग्य स्त्रीयरल्लि सर्वाभरणभूषित अप्सरॆयरे श्रेष्ठरु.

14043016a धर्मकामाश्च राजानो ब्राह्मणा धर्मलक्षणाः। 2
14043016c तस्माद्राजा द्विजातीनां प्रयतेतेह रक्षणे।।

राजरु धर्मकामिगळु मत्तु ब्राह्मणरु धर्मलक्षणरु. आदुदरिंद राजनादवनु द्विजातियवर रक्षणॆगागि प्रयत्निसुत्तिरबेकु.

14043017a राज्ञां हि विषये येषामवसीदंति साधवः।
14043017c हीनास्ते स्वगुणैः सर्वैः प्रेत्यावान्मार्गगामिनः।।

याव राजन राज्यदल्लि साधुगळु विनाशहॊंदुवरो अवनु सर्व स्वगुणगळिंद हीननागि मरणानंतर दुर्गतियन्नु हॊंदुत्तानॆ.

14043018a राज्ञां तु विषये येषां साधवः परिरक्षिताः।
14043018c तेऽस्मिऽल्लोके प्रमोदंते प्रेत्य चानंत्यमेव च।
14043018e प्राप्नुवंति महात्मान इति वित्त द्विजर्षभाः।।

द्विजर्षभरे! याव राजर राज्यदल्लि साधुगळु परिरक्षितरागिरुवरो अवरु ई लोकदल्लि संतोषदिंदिरुत्तारॆ मत्तु मरणानंतरवू अनंतकालदवरॆगॆ सद्गतियन्नु हॊंदुत्तारॆ.

14043019a अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि नियतं धर्मलक्षणम्।
14043019c अहिंसालक्षणो धर्मो हिंसा चाधर्मलक्षणा।।

इन्नु मुंदॆ नानु धर्मद नियत लक्षणगळन्नु हेळुत्तेनॆ. अहिंसॆयु धर्मद लक्षण. हिंसॆयु अधर्मद लक्षण.

14043020a प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्याः कर्मलक्षणाः।
14043020c शब्दलक्षणमाकाशं वायुस्तु स्पर्शलक्षणः।।

देवतॆगळ लक्षणवु प्रकाश. मनुष्यर लक्षणवु कर्म. आकाशद लक्षणवु शब्ध. वायुविन लक्षणवु स्पर्श.

14043021a ज्योतिषां लक्षणं रूपमापश्च रसलक्षणाः।
14043021c धरणी सर्वभूतानां पृथिवी गंधलक्षणा।।

बॆळगुत्तिरुववुगळ लक्षण रूप मत्तु रसवु नीरिन लक्षण. सर्वभूतगळन्नु हॊत्तिरुव पृथ्विय लक्षणवु गंध.

14043022a स्वरव्यंजनसंस्कारा भारती सत्यलक्षणा।
14043022c मनसो लक्षणं चिंता तथोक्ता बुद्धिरन्वयात्।। 3

स्वरव्यंजनगळिंद कूडिद संस्कारयुक्त माते सत्यद लक्षण. मनस्सिन लक्षण चिंतॆ मत्तु निश्चयवु बुद्धिय लक्षण.

14043023a मनसा चिंतयानोऽर्थान्बुद्ध्या चैव व्यवस्यति।
14043023c बुद्धिर्हि व्यवसायेन लक्ष्यते नात्र संशयः।।

मनस्सिनिंद आलोचिसुव विषयगळन्नु बुद्धियु इत्यर्थगॊळिसुत्तदॆ. बुद्धियु यावागलू निश्चयात्मकवादुदु मत्तु कार्यनिरतवादुदु ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल.

14043024a लक्षणं महतो ध्यानमव्यक्तं साधुलक्षणम्। 4
14043024c प्रवृत्तिलक्षणो योगो ज्ञानं संन्यासलक्षणम्।

ध्यान मत्तु अव्यक्ततॆ इवु साधुगळ महा लक्षणगळु. प्रवृत्तियु योगद मत्तु ज्ञानवु संन्यासद लक्षणगळु.

14043025a तस्माज्ञानं पुरस्कृत्य संन्यसेदिह बुद्धिमान्।
14043025c संन्यासी ज्ञानसंयुक्तः प्राप्नोति परमां गतिम्।
14043025e अतीतोऽद्वंद्वमभ्येति तमोमृत्युजरातिगम्।।

अदुदरिंद बुद्धिवंतनु ज्ञानवन्नु पुरस्करिसि संन्यासग्रहण माडबेकु. ज्ञानसंयुक्त संन्यासियु द्वंद्वगळिंद अतीतनागि अज्ञान-मुप्पु-सावुगळन्नु दाटि परमसद्गतियन्नु हॊंदुत्तानॆ.

14043026a धर्मलक्षणसंयुक्तमुक्तं वो विधिवन्मया।
14043026c गुणानां ग्रहणं सम्यग्वक्ष्याम्यहमतः परम्।।

इदूवरॆगॆ नानु लक्षणगळिंद कूडिद धर्मद कुरितु विधिवत्तागि हेळिदॆनु. इन्नु मुंदॆ याव याव गुणगळन्नु याव याव इंद्रियगळु ग्रहिसुत्तवॆ ऎन्नुवुदन्नु हेळुत्तेनॆ.

14043027a पार्थिवो यस्तु गंधो वै घ्राणेनेह स गृह्यते।
14043027c घ्राणस्थश्च तथा वायुर्गंधज्ञाने विधीयते।।

पृथ्वियल्लिरुव गंधवॆंब गुणवन्नु मूगु ग्रहिसुत्तदॆ. मूगिनल्लिरुव वायुवु गंधवन्नु तिळियलु सहायमाडुत्तानॆ.

14043028a अपां धातुरसो नित्यं जिह्वया स तु गृह्यते।
14043028c जिह्वास्थश्च तथा सोमो रसज्ञाने विधीयते।।

आपद स्वाभाविक गुण रसवन्नु नालिगॆयु ग्रहिसुत्तदॆ. नालिगॆयल्लिरुव सोमनु रसज्ञानक्कॆ सहायमाडुत्तानॆ.

14043029a ज्योतिषश्च गुणो रूपं चक्षुषा तच्च गृह्यते।
14043029c चक्षुःस्थश्च तथादित्यो रूपज्ञाने विधीयते।।

ज्योतिय गुणवाद रूपवन्नु कण्णुगळु ग्रहिसुत्तवॆ. कण्णुगळल्लिरुव आदित्यनु रूपज्ञानदल्लि सहायमाडुत्तानॆ.

14043030a वायव्यस्तु तथा स्पर्शस्त्वचा प्रज्ञायते च सः।
14043030c त्वक्स्थश्चैव तथा वायुः स्पर्शज्ञाने विधीयते।।

हागॆये वायुविन गुण स्पर्शवन्नु चर्मवु तिळिदुकॊळ्ळुत्तदॆ. चर्मदल्लिरुव वायुवु स्पर्शज्ञानक्कॆ सहायमाडुत्तानॆ.

14043031a आकाशस्य गुणो घोषः श्रोत्रेण स तु गृह्यते।
14043031c श्रोत्रस्थाश्च दिशः सर्वाः शब्दज्ञाने प्रकीर्तिताः।।

आकाशद गुण घोषवन्नु किविगळु ग्रहिसुत्तवॆ. किविगळल्लिरुव ऎल्ल दिग्देवतॆगळू शब्धज्ञानक्कॆ सहायमाडुत्तवॆ.

14043032a मनसस्तु गुणश्चिंता प्रज्ञया स तु गृह्यते।
14043032c हृदिस्थचेतनाधातुर्मनोज्ञाने विधीयते।।

मनस्सिन गुणवाद चिंतॆयन्नु प्रज्ञॆयु ग्रहिसुत्तदॆ. हृदयदल्लिरुव चेतनवु मनोज्ञानक्कॆ सहायमाडुत्तदॆ.

14043033a बुद्धिरध्यवसायेन ध्यानेन च महांस्तथा। 5
14043033c निश्चित्य ग्रहणं नित्यमव्यक्तं नात्र संशयः।।

निश्चयदिंद बुद्धि मत्तु ध्यानदिंद महत्तु ग्रहिसल्पडुत्तवॆ. ई निश्चय ग्रहणवु नित्यवू अव्यक्तवागिरुत्तदॆ ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल.

14043034a अलिंगग्रहणो नित्यः क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः।
14043034c तस्मादलिंगः क्षेत्रज्ञः केवलं ज्ञानलक्षणः।।

नित्यवू निर्गुणात्मकनाद क्षेत्रज्ञनन्नु यावुदे रीतिय चिह्नॆ-लक्षणगळ मूलक तिळिदुकॊळ्ळलु साध्यविल्ल. आदुदरिंद केवल ज्ञानवे चिह्नारहितनाद क्षेत्रज्ञन लक्षणवु.

14043035a अव्यक्तं क्षेत्रमुद्दिष्टं गुणानां प्रभवाप्ययम्।
14043035c सदा पश्याम्यहं लीनं विजानामि शृणोमि च।।

गुणगळु हुट्टुव मत्तु लीनगॊळ्ळुव अव्यक्तवादुदन्ने क्षेत्रवॆंदु हेळुत्तारॆ. सदा नानु अदरल्लिये लीननागिद्दुकॊंडु अदन्नु नोडुत्तेनॆ, केळुत्तेनॆ मत्तु अरितुकॊळ्ळुत्तेनॆ.

14043036a पुरुषस्तद्विजानीते तस्मात्क्षेत्रज्ञ उच्यते।
14043036c गुणवृत्तं तथा कृत्स्नं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।।

पुरुषनु अदन्नु अरितुकॊंडिद्दानॆ. आदुदरिंद अवनिगॆ क्षेत्रज्ञनॆंदु हेळुत्तारॆ. हागॆये क्षेत्रज्ञनु गुणगळ ऎल्ल क्रियॆगळन्नू नोडुत्तिरुत्तानॆ.

14043037a आदिमध्यावसानांतं सृज्यमानमचेतनम्।
14043037c न गुणा विदुरात्मानं सृज्यमानं पुनः पुनः।।

पुनः पुनः सृष्टिसल्पट्टु आदि-मध्य-अंत्यगळॆंब कट्टुगळिगॆ बंधितगॊंडिरुव आ अचेतन गुणगळिगॆ तम्म अरिवु इरुवुदिल्ल.

14043038a न सत्यं वेद वै कश्चित्क्षेत्रज्ञस्त्वेव विंदति।
14043038c गुणानां गुणभूतानां यत्परं परतो महत्।।

क्षेत्रज्ञनल्लदे बेरॆ यावुदक्कू गुणगळ मत्तु गुणगळु हुट्टिसुव मत्तु अवुगळिगिंतलू अतीतवागिरुव परम महा सत्यवु तिळियुवुदिल्ल.

14043039a तस्माद्गुणांश्च तत्त्वं च परित्यज्येह तत्त्ववित्।
14043039c क्षीणदोषो गुणान् हित्वा क्षेत्रज्ञं प्रविशत्यथ।। 6

आदुदरिंद तत्त्ववन्नु तिळिदुकॊंडिरुववनु गुणगळन्नू अवुगळ क्रियॆगळन्नू परित्यजिसि दोषगळन्नु कळॆदुकॊंडु क्षेत्रज्ञनन्नु प्रवेशिसुत्तानॆ.

14043040a निर्द्वंद्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च।
14043040c अचलश्चानिकेतश्च क्षेत्रज्ञः स परो विभुः।।

निर्द्वंद्वनू, निर्नमस्कारनू[^7], निःस्वधाकारनू[^8], अचलनू, मनॆयिल्लदवनू आद क्षेत्रज्ञने परम विभुवु.”

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते अश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतायां गुरुशिष्यसंवादे त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि अश्वमेधिकपर्वदल्लि अनुगीतायां गुरुशिष्यसंवाद ऎन्नुव नल्वत्मूरने अध्यायवु.

[^7] यारिगू नमस्करिसदवनु मत्तु यार नमस्कारगळू बेकिल्लदवनु.

[^8] स्वाहाकाररूपद यज्ञगळन्नु माडदे इरुववनु अथवा कर्मरहितनु.


  1. अंभसां वरुणो राज मरुतामिंद्र उच्यते। ऎंब पाठांतरविदॆ. ↩︎

  2. धर्मकामाश्च राजानो ब्राह्मणा धर्मसेतवः। ऎंब पाठांतरविदॆ. ↩︎

  3. स्वरव्यंजनसंस्कारा भारती शब्धलक्षणा। मनसो लक्षणं चिंता चिंतोक्ता बुद्धिलक्षणा।। ऎंब पाठांतरविदॆ. ↩︎

  4. लक्षणं मनसो ध्यानमव्यक्तं साधुलक्षणम्। अर्थात् मनस्सिन लक्षण ध्यान मत्तु बहिःप्रपंचक्कॆ तोरिसिकॊळ्ळदे इरुवुदे साधुपुरुषर लक्षण ऎंब पाठांतरविदॆ. ↩︎

  5. बुद्धिरध्यवसायेन ज्ञानेन च महांस्तथा। अर्थात् निश्चयदिंद बुद्धि मत्तु ज्ञानदिंद महत्तु ग्रहिसल्पडुत्तवॆ ऎंब पाठांतरविदॆ. ↩︎

  6. तस्माद्गुणांश्च सत्त्वं च परित्यज्येह धर्मवित्। क्षीणदोषो गुणातीतः क्षेत्रज्ञं प्रविशत्यथ।। अर्थात् आदुदरिंद पापगळन्नु कळॆदुकॊंड गुणातीत धर्मज्ञनु सत्त्ववन्नू मत्तु गुणगळन्नू परित्यजिसि शुद्धरूपनाद क्षेत्रज्ञनन्नु प्रवेशिसुत्तानॆ ऎंब पाठांतरविदॆ. ↩︎