प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
अश्वमेधिक पर्व
अश्वमेधिक पर्व
अध्याय 4
सार
व्यासनु युधिष्ठिरनिगॆ राजा मरुत्तन कथॆयन्नु हेळिदुदु (1-27).
14004001 युधिष्ठिर उवाच।
14004001a शुश्रूषे तस्य धर्मज्ञ राजर्षेः परिकीर्तनम्।
14004001c द्वैपायन मरुत्तस्य कथां प्रब्रूहि मेऽनघ।।
युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “अनघ! द्वैपायन! धर्मज्ञ! आ राजर्षि मरुत्तन कथॆ मत्तु अवन कुरिताद कीर्तनॆयन्नु हेळु!”
14004002 व्यास उवाच।
14004002a आसीत्कृतयुगे पूर्वं मनुर्धंडधरः प्रभुः।
14004002c तस्य पुत्रो महेष्वासः प्रजातिरिति विश्रुतः।।
व्यासनु हेळिदनु: “हिंदॆ कृतयुगदल्लि दंडधारि मनुवु राजनागिद्दनु. अवनिगॆ प्रजाति ऎन्नुव विख्यात महेष्वास मगनिद्दनु.
14004003a प्रजातेरभवत्पुत्रः क्षुप इत्यभिविश्रुतः।
14004003c क्षुपस्य पुत्रस्त्विक्ष्वाकुर्महीपालोऽभवत्प्रभुः।।
प्रजातिगॆ क्षुप ऎन्नुव विख्यात मगनिद्दनु. क्षुपनिगॆ महीपाल प्रभु इक्ष्वाकु ऎन्नुव मगनिद्दनु.
14004004a तस्य पुत्रशतं राजन्नासीत्परमधार्मिकम्।
14004004c तांस्तु सर्वान्महीपालानिक्ष्वाकुरकरोत्प्रभुः।।
राजन्! अवनिगॆ परमधार्मिकराद नूरु मक्कळिद्दरु. प्रभु इक्ष्वाकुवु अवरॆल्लरन्नू महीपालरन्नागिसिदनु.
14004005a तेषां ज्येष्ठस्तु विंशोऽभूत्प्रतिमानं धनुष्मताम्।
14004005c विंशस्य पुत्रः कल्याणो विविंशो नाम भारत।।
धनुष्मंतरिगॆ आदर्शप्रायनागिद्द विंशनु अवरल्लि ज्येष्ठनागिद्दनु. भारत! विंशन कल्याण पुत्रन हॆसरु विविंश ऎंदागित्तु.
14004006a विविंशस्य सुता राजन्बभूवुर्दश पंच च।
14004006c सर्वे धनुषि विक्रांता ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।।
राजन्! विविंशनिगॆ ऐवत्तु मक्कळादरु. अवरॆल्लरू धनुर्युद्धदल्लि विक्रांतरू ब्रह्मण्यरू सत्यवादिगळू आगिद्दरु.
14004007a दानधर्मरताः संतः सततं प्रियवादिनः।
14004007c तेषां ज्येष्ठः खनीनेत्रः स तान्सर्वानपीडयत्।।
अवरु दानधर्म निरतरू, संतरू, सततवू प्रियवादुदन्ने मातनाडुववरू आगिद्दरु. अवरल्लि हिरियवनाद खनीनेत्रनु अवरॆल्लरन्नू पीडिसुत्तिद्दनु.
14004008a खनीनेत्रस्तु विक्रांतो जित्वा राज्यमकंटकम्।
14004008c नाशक्नोद्रक्षितुं राज्यं नान्वरज्यंत तं प्रजाः।।
विक्रांतनाद खनीनेत्रनादरो यावुदे कंटकगळिल्लदे राज्यवन्नु गॆद्दनु. आदरॆ अवन प्रजॆगळु अवनन्नु इष्टपडदे इद्दुदरिंद अवनिगॆ राज्यवन्नु रक्षिसलु आगलिल्ल.
14004009a तमपास्य च तद्राष्ट्रं तस्य पुत्रं सुवर्चसम्।
14004009c अभ्यषिंचत राजेंद्र मुदितं चाभवत्तदा।।
राजेंद्र! प्रजॆगळु अवनन्नु राष्ट्रदिंद ओडिसि, अवन मग सुवर्चसनन्नु राजनन्नागि अभिषेकिसि मुदितरादरु.
14004010a स पितुर्विक्रियां दृष्ट्वा राज्यान्निरसनं तथा।
14004010c नियतो वर्तयामास प्रजाहितचिकीर्षया।।
तंदॆय दुष्कृतगळन्नू मत्तु अवनन्नु राज्यदिंद हॊरगोडिसिदुदन्नु नोडि सुवर्चसनु प्रजॆगळ हितवन्ने बयसि नियतनागि वर्तिसतॊडगिदनु.
14004011a ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शुचिः शमदमान्वितः।
14004011c प्रजास्तं चान्वरज्यंत धर्मनित्यं मनस्विनम्।।
ब्रह्मण्यनू, सत्यवादियू, शुचियू, शम-दमगळिंद कूडिदवनू, धर्मनित्यनू, मनस्वियू आद सुवर्चसनन्नु प्रजॆगळु प्रीतिसुत्तिद्दरु.
14004012a तस्य धर्मप्रवृत्तस्य व्यशीर्यत्कोशवाहनम्।
14004012c तं क्षीणकोशं सामंताः समंतात्पर्यपीडयन्।।
धर्मप्रवृत्तनागिद्द अवन कोश-वाहनगळु क्षीणवादवु. अवन कोशवु कडिमॆयादुदन्नु नोडि सामंतरु ऎल्लकडॆगळिंद पीडिसतॊडगिदरु.
14004013a स पीड्यमानो बहुभिः क्षीणकोशस्त्ववाहनः।
14004013c आर्तिमार्चत्परां राजा सह भृत्यैः पुरेण च।।
कोश-वाहनगळन्नु कळॆदुकॊंडु अनेक शत्रुगळिंद पीडिसल्पट्ट अवनु सेवक-पुरजनरॊंदिगॆ अति आर्तनादनु.
14004014a न चैनं परिहर्तुं तेऽशक्नुवन्परिसंक्षये।
14004014c सम्यग्वृत्तो हि राजा स धर्मनित्यो युधिष्ठिर।।
युधिष्ठिर! आ राजनु धर्मनित्यनू सदाचारियू आदुदरिंद शत्रुगळिगॆ अवनन्नु सोलिसलु साध्यवागलिल्ल.
14004015a यदा तु परमामार्तिं गतोऽसौ सपुरो नृपः।
14004015c ततः प्रदध्मौ स करं प्रादुरासीत्ततो बलम्।।
हीगॆ पुरजनरॊंदिगॆ परम कष्टक्कॊळगागिरलु नृपनु कैयन्ने शंखवन्नागि माडिकॊंडु जोरागि ऊदिदनु. आग दॊड्डदाद सेनॆये प्रकटवायितु.
14004016a ततस्तानजयत्सर्वान्प्रातिसीमान्नराधिपान्।
14004016c एतस्मात्कारणाद्राजन्विश्रुतः स करंधमः।।
अनंतर अवनु सीमॆय गडियल्लिद्द ऎल्ल नराधिपरन्नू सोलिसिदनु. राजन्! ई कारणदिंदले अवनु करंधम – कैयिंद शब्धमाडिदवनु – ऎंदु प्रख्यातनादनु.
14004017a तस्य कारंधमः पुत्रस्त्रेतायुगमुखेऽभवत्।
14004017c इंद्रादनवरः श्रीमान् देवैरपि सुदुर्जयः।।
त्रेतायुगद प्रारंभदल्लि अवनिगॆ कारंधम (अविक्षित्) ऎन्नुव मगनु हुट्टिदनु. अमोघ कांतियिंद कूडिद्द अवनु इंद्रनिगेनू कडिमॆयागिरलिल्ल. देवतॆगळिगू अवनु सोलिसलसाध्यनागिद्दनु.
14004018a तस्य सर्वे महीपाला वर्तंते स्म वशे तदा।
14004018c स हि सम्राडभूत्तेषां वृत्तेन च बलेन च।।
आग सर्व महीपालरू अवन वशदल्लिद्दरु. नडतॆ मत्तु बलगळल्लि अवनु अवरॆल्लरिगू साम्राटनंतिद्दनु.
14004019a अविक्षिन्नाम धर्मात्मा शौर्येणेंद्रसमोऽभवत्।
14004019c यज्ञशीलः कर्मरतिर्धृतिमान् संयतेंद्रियः।।
अविक्षित् ऎंब हॆसरिन आ धर्मात्मनु शौर्यदल्लि इंद्रनिगॆ समनागिद्दनु. धृतिमान् मत्तु इंद्रियगळन्नु संयमदल्लिरिसिकॊंडिद्द अवनु यज्ञशीलनू कर्मरतियू आगिद्दनु.
14004020a तेजसादित्यसदृशः क्षमया पृथिवीसमः।
14004020c बृहस्पतिसमो बुद्ध्या हिमवानिव सुस्थिरः।।
तेजस्सिनल्लि आदित्यनंतिद्दनु. क्षमॆयल्लि भूमिगॆ समनागिद्दनु. बुद्धियल्लि बृहस्पतिय समनागिद्द अवनु हिमवत्पर्वतदंतॆ सुस्थिरवागिद्दनु.
14004021a कर्मणा मनसा वाचा दमेन प्रशमेन च।
14004021c मनांस्याराधयामास प्रजानां स महीपतिः।।
कर्म, मनस्सु, मातु, दम, प्रशमन मत्तु मनस्सुगळिंद आ महीपतियु प्रजॆगळन्नु आराधिसुत्तिद्दनु.
14004022a य ईजे हयमेधानां शतेन विधिवत्प्रभुः।
14004022c याजयामास यं विद्वान्स्वयमेवांगिराः प्रभुः।।
आ प्रभुवु विधिवत्तागि नूरु अश्वमेधगळन्नु नडॆसिदनु. विद्वान् स्वयं प्रभु आंगिरसनु अवुगळन्नु नडॆसिकॊट्टनु.
14004023a तस्य पुत्रोऽतिचक्राम पितरं गुणवत्तया।
14004023c मरुत्तो नाम धर्मज्ञश्चक्रवर्ती महायशाः।।
अवन मग धर्मज्ञ चक्रवर्ति महायशस्वी मरुत्त ऎन्नुववनु गुणगळल्लि तंदॆयन्नू मीरिद्दनु.
14004024a नागायुतसमप्राणः साक्षाद्विष्णुरिवापरः।
14004024c स यक्ष्यमाणो धर्मात्मा शातकुंभमयान्युत।
14004024e कारयामास शुभ्राणि भाजनानि सहस्रशः।।
हत्तुसाविर आनॆगळ बलविद्द अवनु साक्षाद् विष्णुविनंतॆये तोरुत्तिद्दनु. आ धर्मात्मनु यज्ञमाडुवाग साविरारु सुवर्णमय शुभ्र यज्ञपात्रॆगळन्नु माडिसिदनु.
14004025a मेरुं पर्वतमासाद्य हिमवत्पार्श्व उत्तरे।
14004025c कांचनः सुमहान्पादस्तत्र कर्म चकार सः।।
हिमवत्पर्वतद उत्तरदल्लि मेरु पर्वतद बळिहोगि अल्लिद्द महा कांचन पर्वतदल्लि यज्ञगळन्नु माडिदनु.
14004026a ततः कुंडानि पात्रीश्च पिठराण्यासनानि च।
14004026c चक्रुः सुवर्णकर्तारो येषां संख्या न विद्यते।।
अल्लि बंगारद कॆलसगाररु यज्ञद सलुवागि सुवर्णकुंडगळन्नू, पात्रॆगळन्नू, पीठगळन्नू माडिदरु. अवुगळ संख्यॆयॆष्टॆंदु गॊत्तिल्ल.
14004027a तस्यैव च समीपे स यज्ञवाटो बभूव ह।
14004027c ईजे तत्र स धर्मात्मा विधिवत्पृथिवीपतिः।
14004027e मरुत्तः सहितैः सर्वैः प्रजापालैर्नराधिपः।।
अदर बळियल्लिये यज्ञवाटिकॆयित्तु. अल्लिये धर्मात्मा पृथिवीपति नराधिप मरुत्तनु सर्व प्रजापालरॊंदिगॆ विधिवत्तागि यज्ञमाडिदनु.”
समाप्ति
इति श्रीमहाभारते अश्वमेधिकपर्वणि संवर्तमरुत्तीये चतुर्थोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि अश्वमेधिकपर्वदल्लि संवर्तमरुत्तीय ऎन्नुव नाल्कने अध्यायवु.