प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
अनुशासन पर्व
दानधर्म पर्व
अध्याय 134
सार
पार्वतियु स्त्रीधर्मगळन्नु वर्णिसिदुदु (1-57).
113134001 महेश्वर उवाच।
13134001a परावरज्ञे धर्मज्ञे तपोवननिवासिनि।
13134001c साध्वि सुभ्रु सुकेशांते हिमवत्पर्वतात्मजे।।
13134002a दक्षे शमदमोपेते निर्ममे धर्मचारिणि।
13134002c पृच्चामि त्वां वरारोहे पृष्टा वद ममेप्सितम्।।
महेश्वरनु हेळिदनु: “परावरज्ञे! धर्मज्ञे! तपोवननिवासिनि! साध्वि! सुभ्रु! सुंदर केशवुळ्ळवळे! हिमवत्पर्वतात्मजे! दक्षे! इंद्रियनिग्रह-मनोनिग्रहवुळ्ळवळे! निर्ममे! धर्मचारिणि! वरारोहे! नानू निन्नन्नु केळुत्तेनॆ. ननगॆ हेळु.
13134003a सावित्री ब्रह्मणः साध्वी कौशिकस्य शची सती।
13134003c मार्तंडजस्य2 धूमोर्णा ऋद्धिर्वैश्रवणस्य च।।
13134004a वरुणस्य ततो गौरी सूर्यस्य च सुवर्चला।
13134004c रोहिणी शशिनः साध्वी स्वाहा चैव विभावसोः।।
13134005a अदितिः कश्यपस्याथ सर्वास्ताः पतिदेवताः।
ब्रह्मन पत्नि सावित्री, कौशिक इंद्रन सति शची, मार्तंडजन पत्नि धूमोर्णा, वैश्रवण कुबेरन पत्नि ऋद्धि, वरुणन पत्नि गौरी, सूर्यन पत्नि सुवर्चला, शशिय पत्नि रोहिणी, विभावसु अग्निय पत्नि स्वाहा, कश्यपन पत्नि अदिति – इवरॆल्लरू पतिये देवरॆंदु तिळिदिरुववरु.
13134005c पृष्टाश्चोपासिताश्चैव तास्त्वया देवि नित्यशः।।
13134006a तेन त्वां परिपृच्चामि धर्मज्ञे धर्मवादिनि।
13134006c स्त्रीधर्मं श्रोतुमिच्चामि त्वयोदाहृतमादितः।।
देवि! इवरन्नु नीनु नित्यवू पूजिसुत्तीयॆ. धर्मद विषयवागि इवरन्नु नीनु केळिरुवॆ कूड. धर्मज्ञे! धर्मवादिनि! ई कारणदिंद निन्नन्नु नानु प्रश्निसुत्तिद्देनॆ. स्त्रीधर्मवन्नु संपूर्णवागि केळबयसुत्तेनॆ.
13134007a सहधर्मचरी मे त्वं समशीला समव्रता।
13134007c समानसारवीर्या च तपस्तीव्रं कृतं च ते।
13134007e त्वया ह्युक्तो विशेषेण प्रमाणत्वमुपैष्यति।।
नीनु नन्न सहधर्मचारिणियागिरुवॆ. नीनु नन्न समशीलळू समव्रतळू आगिरुवॆ. सार-वीर्यगळल्लि नीनु नन्न समळागिरुवॆ मत्तु नीनु तीव्र तपस्सन्नु आचरिसिद्दीयॆ कूड.
13134008a स्त्रियश्चैव विशेषेण स्त्रीजनस्य गतिः सदा।
13134008c गौर्गां3 गच्चति सुश्रोणि लोकेष्वेषा स्थितिः सदा।।
स्त्रीयरे विशेषवागि स्त्रीजनरिगॆ सदा परमगतियागिद्दारॆ. सुश्रोणि! गोवुगळु गोवुगळन्ने अनुसरिसुव इदे सदा लोकस्थितियागिदॆ.
13134009a मम चार्धं शरीरस्य मम चार्धाद्विनिःसृता4।
13134009c सुरकार्यकरी च त्वं लोकसंतानकारिणी।।
नन्न अर्ध शरीरवन्नु धरिसिरुवॆ. नन्न शरीरार्धदिंद हॊरहॊम्मिरुवॆ. सुरर कार्यवन्नु माडुत्तिरुवॆ मत्तु नीने लोकसंतानकारिणियागिरुवॆ.
13134010a तव सर्वः सुविदितः स्त्रीधर्मः शाश्वतः शुभे।
13134010c तस्मादशेषतो ब्रूहि स्त्रीधर्मं विस्तरेण मे।।
शुभे! शाश्वत स्त्रीधर्मवॆल्लवू निनगॆ चॆन्नागि तिळिदिवॆ. आदुदरिंद स्त्रीधर्मवन्नु विस्तारवागि एनन्नू बिडदे ननगॆ हेळु.”
13134011 उमोवाच।
13134011a भगवन्सर्वभूतेश भूतभव्यभवोद्भव।
13134011c त्वत्प्रभावादियं देव वाक्चैव प्रतिभाति मे।।
उमॆयु हेळिदळु: “भगवन्! सर्वभूतेश! भूतभव्यभवोद्भव! देव! निन्न प्रभावदिंदले ननगॆ मातुगळु हॊळॆयुत्तवॆ.
13134012a इमास्तु नद्यो देवेश सर्वतीर्थोदकैर्युताः।
13134012c उपस्पर्शनहेतोस्त्वा समीपस्था उपासते।।
आदरॆ देवेश! ई नदिगळु निन्न स्नान-आचमनगळिगागि मत्तु निन्न पादगळन्नु स्पर्शिसुव सलुवागि निन्न समीप आगमिसिवॆ.
13134013a एताभिः सह संमंत्र्य प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।
13134013c प्रभवन्योऽनहंवादी स वै पुरुष उच्यते।।
इवुगळॊंदिगॆ समालोचिसि नानु निनगॆ स्त्रीधर्मवन्नु प्रारंभदिंद हेळुत्तेनॆ. ऎष्टे समर्थनागिद्दरू अहंकारविल्लदवनन्ने पुरुष ऎन्नुत्तारॆ.
13134014a स्त्री च भूतेश सततं स्त्रियमेवानुधावति।
13134014c मया संमानिताश्चैव भविष्यंति सरिद्वराः।।
भूतेश! स्त्रीयु सततवू स्त्रीयन्ने अनुसरणॆ माडुत्ताळॆ. ई सरिद्वरॆयरू कूड नन्निंद सम्मानितरागिद्दारॆ.
13134015a एषा सरस्वती पुण्या नदीनामुत्तमा नदी।
13134015c प्रथमा सर्वसरितां नदी सागरगामिनी।।
नदिगळल्लिये उत्तम नदियाद इदु पुण्यॆ सरस्वती नदि. सागरगामिनी ई नदियु सर्वसरित्तुगळल्लि प्रथमळु.
13134016a विपाशा च वितस्ता च चंद्रभागा इरावती।
13134016c शतद्रुर्देविका सिंधुः कौशिकी गोमती तथा।।
13134017a तथा देवनदी चेयं सर्वतीर्थाभिसंवृता।
13134017c गगनाद्गां गता देवी गंगा सर्वसरिद्वरा।।
विपाशा, वितस्ता, चंद्रभागा, इरावती, शतद्रु, देविका, सिंधु, कौशिकी, मत्तु गोमती ई पुण्य नदिगळू इल्लिवॆ. हागॆये सर्वतीर्थगळू सेविसुव, ऎल्ल नदिगळल्लिये श्रेष्ठळाद, आकाशदिंद भूमिगॆ इळिदु बंदिरुव, देवनदि गंगॆयू इल्लि उपस्थितळागिद्दाळॆ.”
13134018a इत्युक्त्वा देवदेवस्य पत्नी धर्मभृतां वरा।
13134018c स्मितपूर्वमिवाभाष्य सर्वास्ताः सरितस्तदा।।
13134019a अपृच्चद्देवमहिषी स्त्रीधर्मं धर्मवत्सला।
13134019c स्त्रीधर्मकुशलास्ता वै गंगाद्याः सरितां वराः।।
हीगॆ हेळि देवदेवन पत्नि, धर्मभृतरल्लि श्रेष्ठॆ, देवमहिषि, धर्मवत्सलॆयु स्त्रीधर्मदल्लि कुशलरागिद्द गंगॆये मॊदलाद श्रेष्ठ नदिगळन्नु मंदहासपूर्वकवागि स्त्रीधर्मद विषयदल्लि प्रश्निसिदळु:
13134020a अयं भगवता दत्तः प्रश्नः स्त्रीधर्मसंश्रितः।
13134020c तं तु संमंत्र्य युष्माभिर्वक्तुमिच्चामि शंकरे।।
“भगवाननु स्त्रीधर्मद कुरिताद ई प्रश्नॆयन्नु नीडिरुवनु. निम्मॊंदिगॆ समालोचिसि शंकरनिगॆ उत्तरिस बयसुत्तेनॆ.
13134021a न चैकसाध्यं पश्यामि विज्ञानं भुवि कस्य चित्।
13134021c दिवि वा सागरगमास्तेन वो मानयाम्यहम्।।
सागरगामि नदिगळे! स्वर्गदल्लियागली भूमियल्लियागली विज्ञानवॆल्लवू ऒब्बनिगे तिळिदिरुवुदु असाध्य ऎंदु नानु कंडिद्देनॆ. आदुदरिंद निम्म मतगळन्नु नानु मन्निसुत्तेनॆ.””
13134022 भीष्म उवाच।
13134022a एवं सर्वाः सरिच्च्रेष्ठाः पृष्टाः पुण्यतमाः शिवाः।
13134022c ततो देवनदी गंगा नियुक्ता प्रतिपूज्य ताम्।।
भीष्मनु हेळिदनु: “हीगॆ अवळु आ ऎल्ल पुण्यतमॆ मंगळकर नदिश्रेष्ठरन्नु केळलु पार्वतिगॆ उत्तरकॊडलु अवरु देवनदी गंगॆयन्नु गौरविसि नियोजिसिदरु.
13134023a बह्वीभिर्बुद्धिभिः स्फीता स्त्रीधर्मज्ञा शुचिस्मिता।
13134023c शैलराजसुतां देवीं पुण्या पापापहां शिवाम्।।
13134024a बुद्ध्या विनयसंपन्ना सर्वज्ञानविशारदा।
13134024c सस्मितं बहुबुद्ध्याढ्या गंगा वचनमब्रवीत्।।
आग नानाविषयगळ परिज्ञानविद्द, स्त्रीधर्मवन्नु तिळिद, शुचिस्मितॆ, बुद्धि-विनय संपन्नॆ सर्वज्ञानविशारदॆ बहुबुद्ध्याढ्यॆ गंगॆयु नसुनगुत्ता शैलराजसुतॆ पुण्यॆ पापनाशिनी शिवॆ देविगॆ हेळिदळु:
13134025a धन्याः स्मोऽनुगृहीताः स्मो देवि धर्मपरायणा।
13134025c या त्वं सर्वजगन्मान्या नदीर्मानयसेऽनघे।।
“अनघे! देवि! धर्मपरायणे! नानु धन्यळागिद्देनॆ. अनुगृहीतळागिद्देनॆ. सर्वजगत्तिगू मान्यळागिरुव नीनु नदियाद नन्नन्नु गौरविसुत्तिरुवॆयल्लवे?
13134026a प्रभवन् पृच्चते यो हि संमानयति वा पुनः।
13134026c नूनं जनमदुष्टात्मा पंडिताख्यां स गच्चति।।
समर्थनागिद्दरू, यावुदे दुष्टभावविल्लदे इन्नॊब्बरन्नु सम्मानिसि केळुववरु पंडितरॆंब ख्यातियन्नु पडॆयुत्तारॆ.
13134027a ज्ञानविज्ञानसंपन्नानूहापोहविशारदान्।
13134027c प्रवक्तॄन् पृच्चते योऽन्यान्स वै ना पदमर्च्चति।।
संशयविद्द विषयद कुरितु ज्ञान-विज्ञानसंपन्नरन्नु मत्तु ऊहापोहविशारदरन्नु केळुववनु आपत्तिनल्लि बीळुवुदिल्ल.
13134028a अन्यथा बहुबुद्ध्याढ्यो वाक्यं वदति संसदि।
13134028c अन्यथैव ह्यहंमानी दुर्बलं वदते वचः।।
बहुबुद्ध्याढ्यनु संसदियल्लि बेरॆ रीतियल्लि मातनाडुत्तानॆ. मत्तु अहंकारि दुर्बलनु बेरॆये रीतियल्लि मातनाडुत्तानॆ.
13134029a दिव्यज्ञाने दिवि श्रेष्ठे दिव्यपुण्ये सदोत्थिते।
13134029c त्वमेवार्हसि नो देवि स्त्रीधर्ममनुशासितुम्।।
दिव्यज्ञानि! दिवियल्लि श्रेष्ठळे! दिव्यपुण्ये! सदा उत्साहशीलॆ! देवि! स्त्रीधर्मद कुरितागि नम्मॆल्लरिगॆ उपदेशिसलु नीने अर्हळागिरुवॆ.””
13134030 भीष्म उवाच।
13134030a ततः साराधिता देवी गंगया बहुभिर्गुणैः।
13134030c प्राह सर्वमशेषेण स्त्रीधर्मं सुरसुंदरी।।
भीष्मनु हेळिदनु: “हीगॆ गंगॆयु बहुगुणगळिंद देवियन्नु आराधिसलु सुरसुंदरी उमॆयु स्त्रीधर्मवन्नु समग्रवागि हेळिदळु:
13134031a स्त्रीधर्मो मां प्रति यथा प्रतिभाति यथाविधि।
13134031c तमहं कीर्तयिष्यामि तथैव प्रथितो भवेत्।।
“नन्न बुद्धिगॆ हॊळॆयुवंतॆ यथाविधियागि नानु निनगॆ स्त्रीधर्मवन्नु हेळुत्तेनॆ. हीगॆये इदु लोकप्रथितवागलि.
13134032a स्त्रीधर्मः पूर्व एवायं विवाहे बंधुभिः कृतः।
13134032c सहधर्मचरी भर्तुर्भवत्यग्निसमीपतः।।
मॊदलु विवाहसमयदल्लिये बंधुगळु स्त्रीधर्मवन्नु उपदेशिसुत्तारॆ. अग्निसमीपदल्लिये अवळु पतिय सहधर्मचारिणियागुत्ताळॆ.
13134033a सुस्वभावा सुवचना सुवृत्ता सुखदर्शना।
13134033c अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी।।
ऒळ्ळॆय स्वभावविरुव, ऒळ्ळॆय मातनाडुव, ऒळ्ळॆय नडतॆगळिरुव, नोडिदरॆ सुखवन्नीडुव, अन्यर कुरितु मनस्सन्नु हरिसद, पतिय सम्मुखदल्लि नगुमुखदिंदिरुववळु स्त्रीधर्मचारिणियु.
13134034a सा भवेद्धर्मपरमा सा भवेद्धर्मभागिनी।
13134034c देववत्सततं साध्वी या भर्तारं प्रपश्यति।।
सततवू पतियन्नु देवतॆयंतॆ काणुववळे परम धर्मिष्ठळु. अवळे धर्मफलक्कॆ भागियागुत्ताळॆ.
13134035a शुश्रूषां परिचारं च देववद्या करोति च।
13134035c नान्यभावा ह्यविमनाः सुव्रता सुखदर्शना।।
13134036a पुत्रवक्त्रमिवाभीक्ष्णं भर्तुर्वदनमीक्षते।
13134036c या साध्वी नियताचारा सा भवेद्धर्मचारिणी।।
देवनॆंदु तिळिदु पतिय शुश्रूषॆ परिचारगळन्नु माडुव, अन्यरल्लि प्रेमभाववन्निट्टिरद, मगन मुखवन्नु नोडुवंतॆ पतिय मुखवन्नू नोडुव, विमनस्कळागिरद, सुव्रतॆ, सुखदर्शनॆ, साध्वी, नियमगळन्नु आचरिसुववळु धर्मचारिणियु.
13134037a श्रुत्वा दंपतिधर्मं वै सहधर्मकृतं शुभम्।
13134037c अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी।।
दंपतिधर्मवन्नु केळि सहधर्मिगळागिये शुभकर्मगळन्नु माडुत्ता अनन्यचित्तळागि पतिगॆ सुमुखियागिरुववळु धर्मचारिणियु.
13134038a परुषाण्यपि चोक्ता या दृष्टा वा क्रूरचक्षुषा5।
13134038c सुप्रसन्नमुखी भर्तुर्या नारी सा पतिव्रता।।
पतियु कठोरवागि मातनाडिदरू अथवा क्रूर दृष्टियिंद नोडिदरू पतिय ऎदिरु सुप्रसन्नमुखियागिये इरुव नारियु पतिव्रतॆयु.
13134039a न चंद्रसूर्यौ न तरुं पुंनाम्नो या निरीक्षते।
13134039c भर्तृवर्जं वरारोहा सा भवेद्धर्मचारिणी।।
पतियन्नु बिट्टु सूर्यनन्नागली, चंद्रनन्नागली, अथवा वृक्षवन्नागली पुरुषनॆंब भावनॆयिंद नोडदिरुव वरारोहॆयु धर्मचारिणियु.
13134040a दरिद्रं व्याधितं दीनमध्वना परिकर्शितम्।
13134040c पतिं पुत्रमिवोपास्ते सा नारी धर्मभागिनी।।
पतियु दरिद्रनागिरलि, व्याधितनागिरलि, अथवा नडॆदु दणिदिरलि, अवनन्नु पुत्रनंतॆ उपचरिसुव नारियु धर्मभागिनियागुत्ताळॆ6.
13134041a या नारी प्रयता दक्षा या नारी पुत्रिणी भवेत्।
13134041c पतिप्रिया पतिप्राणा सा नारी धर्मभागिनी।।
परिशुद्ध अंतःकरणद नारि, दक्षनारि, पुत्ररन्नु पडॆद, पतिगॆ प्रियळाद मत्तु पतियन्ने प्राणवॆंदु तिळिद नारियु धर्मभागिनियागुत्ताळॆ.
13134042a शुश्रूषां परिचर्यां च करोत्यविमनाः सदा।
13134042c सुप्रतीता विनीता च सा नारी धर्मभागिनी।।
पतिय मेलिन विश्वासदॊंदिगॆ प्रसन्न मनस्सिनिंद, विनीतळागि सदा शुश्रूषॆ-परिचर्यगळन्नु माडुव नारियु धर्मभागिनियागुत्ताळॆ.
13134043a न कामेषु न भोगेषु नैश्वर्ये न सुखे तथा।
13134043c स्पृहा यस्या यथा पत्यौ सा नारी धर्मभागिनी।।
पतियल्लिरुवष्टु प्रीतियु कामगळल्लागली, भोगगळल्लागली, ऐश्वर्यदल्लागली, सुखदल्लागली इल्लदिरुव नारियु धर्मभागिनियागुत्ताळॆ.
13134044a कल्योत्थानरता नित्यं गुरु7शुश्रूषणे रता।
13134044c सुसंमृष्टक्षया चैव गोशकृत्कृतलेपना।।
13134045a अग्निकार्यपरा नित्यं सदा पुष्पबलिप्रदा।
13134045c देवतातिथिभृत्यानां निरुप्य पतिना सह।।
13134046a शेषान्नमुपभुंजाना यथान्यायं यथाविधि।
13134046c तुष्टपुष्टजना नित्यं नारी धर्मेण युज्यते।।
बॆळिग्गॆ बेग एळुव, नित्यवू गुरुशुश्रूषणॆयल्लि निरतळाद, मनॆयन्नु गुडिसि गोमयदिंद सारिसि चॊक्कवागि इट्टुकॊळ्ळुव, नित्यवू अग्निकार्यमाडुव, सदा पुष्पबलियन्नु नीडुव, देवतॆ-अतिथिगळु-भृत्यर भोजनवाद नंतर शेषान्नवन्नु पतियॊंदिगॆ यथान्यायवागि यथाविधियागि उण्णुव, मनॆय जनरु नित्यवू तुष्टपुष्टरागिरुवंतॆ नोडिकॊळ्ळुव नारियु धर्मदिंदिरुववळु.
13134047a श्वश्रूश्वशुरयोः पादौ तोषयंती गुणान्विता।
13134047c मातापितृपरा नित्यं या नारी सा तपोधना।।
अत्तॆ-मावर पादसेवॆयल्लि निरतळागिरुव मत्तु नित्यवू माता-पितृपरळागिरुव गुणान्वितॆ नारियु तपोधनळु.
13134048a ब्राह्मणान्दुर्बलानाथान्दीनांधकृपणांस्तथा।
13134048c बिभर्त्यन्नेन या नारी सा पतिव्रतभागिनी।।
ब्राह्मणरन्नू, दुर्बलरन्नू, अनाथरन्नू, दीनरन्नू, अंध-कृपणरन्नू अन्नवन्नित्तु पोषिसुव नारियु पतिव्रतपुण्यद भागियागुत्ताळॆ.
13134049a व्रतं चरति या नित्यं दुश्चरं लघुसत्त्वया।
13134049c पतिचित्ता पतिहिता सा पतिव्रतभागिनी।।
दुश्चर व्रतवन्नू नित्यवू सराळवागि माडुव, पतियल्लिये चित्तवन्निट्टिरुव, पतियहितदल्लिये इरुववळु पतिव्रतपुण्यद भागियागुत्ताळॆ.
13134050a पुण्यमेतत्तपश्चैव स्वर्गश्चैष सनातनः।
13134050c या नारी भर्तृपरमा भवेद्भर्तृव्रता शिवा।।
पतियन्ने परम दैववॆंदु तिळिदु पतिव्रतळागिरुव कल्याणी नारिगॆ अदे तपस्सिन पुण्यवन्नु नीडुत्तदॆ मत्तु अदे सनातन स्वर्गवन्नू दॊरकिसुत्तदॆ.
13134051a पतिर्हि देवो नारीणां पतिर्बंधुः8 पतिर्गतिः।
13134051c पत्या समा गतिर्नास्ति दैवतं वा यथा पतिः।।
नारियरिगॆ पतिये देवनु. पतिये बंधुवु. पतिये गति. पतिय समनाद गतियिल्ल मत्तु पतियंथह देवतॆयिल्ल.
13134052a पतिप्रसादः स्वर्गो वा तुल्यो नार्या न वा भवेत्।
13134052c अहं स्वर्गं न हीच्चेयं त्वय्यप्रीते महेश्वर।।
पतिय अनुग्रह मत्तु स्वर्ग इवॆरडु नारिगॆ समनागिरबहुदु अथवा इल्लदे इरबहुदु. महेश्वर! नीनु अप्रीतनादरॆ नानु मात्र स्वर्गवन्नू बयसुवुदिल्ल.
13134053a यद्यकार्यमधर्मं वा यदि वा प्राणनाशनम्।
13134053c पतिर्ब्रूयाद्दरिद्रो वा व्याधितो वा कथं चन।।
13134054a आपन्नो रिपुसंस्थो वा ब्रह्मशापार्दितोऽपि वा।
13134054c आपद्धर्माननुप्रेक्ष्य तत्कार्यमविशंकया।।
पतियु दरिद्रनागिरलि, व्याधितनागिरलि, आपत्तिनल्लिरलि, शत्रुगळ मध्यॆ इरलि, ब्रह्मशापदिंद पीडितनागिरलि – नारियु अवनु हेळुवुदन्नु – अदु अकार्यवागिरलि, अधर्मवागिरलि, अथवा प्राणनाशकवागिरलि – आपद्धर्मवॆंदु तिळिदु माडबेकु.
13134055a एष देव मया प्रोक्तः स्त्रीधर्मो वचनात्तव।
13134055c या त्वेवंभाविनी नारी सा भवेद्धर्मभागिनी।।
देव! निन्न मातिनंतॆ नानु स्त्रीधर्मवन्नु हेळिद्देनॆ. हीगिरुव नारियु धर्मभागिनियागुत्ताळॆ.””
13134056 भीष्म उवाच।
13134056a इत्युक्तः स तु देवेशः प्रतिपूज्य गिरेः सुताम्।
13134056c लोकान्विसर्जयामास सर्वैरनुचरैः सह।।
भीष्मनु हेळिदनु: “अवळु हीगॆ हेळलु देवेशनु गिरिसुतॆयन्नु प्रतिपूजिसि सर्व अनुचररॊंदिगॆ अल्लिद्द ऎल्लरन्नू बीळ्कॊट्टनु.
13134057a ततो ययुर्भूतगणाः सरितश्च यथागतम्।
13134057c गंधर्वाप्सरसश्चैव प्रणम्य शिरसा भवम्।।
अनंतर भवनन्नु शिरसा नमस्करिसि भूतगणगळु, नदिगळु, गंधर्व-अप्सरॆयरु ऎल्लिंद बंदिद्दरो अल्लिगॆ हॊरटु होदरु.””
समाप्ति
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि उमामहेश्वरसंवादे स्त्रीधर्मकथने चतुस्त्रिंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि अनुशासनपर्वदल्लि दानधर्मपर्वदल्लि उमामहेश्वरसंवादे स्त्रीधर्मकथन ऎन्नुव नूरामूवत्नाल्कने अध्यायवु.
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इदक्कॆ मॊदलु ई ऒंदु अधिक श्लोकविदॆ: नारद उवाच। एवमुक्त्वा महादेवः श्रोतुकामः स्वयं प्रभुः। अनुकूलां प्रियां भार्यां पार्श्वस्थां समभाषत।। (भारत दर्शन). ↩︎
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मार्कंडेयस्य (भारत दर्शन). ↩︎
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गौर्यां (भारत दर्शन). ↩︎
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तव चार्धेन निर्मितम्। (भारत दर्शन). ↩︎
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दृष्टा दुष्टेन चक्षुषा। (भारत दर्शन). ↩︎
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स्त्रीधर्मद फलवन्नु पडॆयुत्ताळॆ (भारत दर्शन). ↩︎
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गृह (भारत दर्शन). ↩︎
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पतिर्बंधः (भारत दर्शन). ↩︎