प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
अनुशासन पर्व
दानधर्म पर्व
अध्याय 53
सार
च्यवननु राजदंपतिगळिगॆ अरमनॆयल्लि काणिसिकॊंडु पुनः इप्पत्तॊंदु दिनगळु मलगि, तैलाभ्यंजनवु बेकॆंदु हेळि अदन्नु सिद्धपडिसुवाग पुनः अंतर्धाननादुदु (1-12). च्यवननु पुनः काणिसिकॊंडु भोजनवु बेकॆंदु केळि, नंतर रथवन्नु हूडॆंदु कुशिकनिगॆ हेळिदुदु (13-30). रथवन्नु ऎळॆदुकॊंडु होगिरॆंदु राजदंपतिगळिगॆ हेळि च्यवननु अवरन्नु पुनः परीक्षिसिदुदु (31-49). च्यवननु राजदंपतिगळिगॆ वरगळन्नित्तु मरुदिन बरलु हेळिदुदु (50-69).
13053001 युधिष्ठिर उवाच।
13053001a तस्मिन्नंतर्हिते विप्रे राजा किमकरोत्तदा।
13053001c भार्या चास्य महाभागा तन्मे ब्रूहि पितामह।।
युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “पितामह! विप्रनु अंतर्धाननागलु महाभागॆ पत्नियॊडनॆ राजनु एनु माडिदनु? अदन्नु ननगॆ हेळु.”
13053002 भीष्म उवाच।
13053002a अदृष्ट्वा स महीपालस्तमृषिं सह भार्यया।
13053002c परिश्रांतो निववृते व्रीडितो नष्टचेतनः।।
भीष्मनु हेळिदनु: “महीपालनु भार्यॆयॊडनॆ आ ऋषियन्नु काणदे परिश्रांतनागि, चेतनवन्नु कळॆदुकॊंडु नाचि हिंदिरुगिदनु.
13053003a स प्रविश्य पुरीं दीनो नाभ्यभाषत किं चन।
13053003c तदेव चिंतयामास च्यवनस्य विचेष्टितम्।।
दीननागिद्द अवनु पुरियन्नु प्रवेशिसि एनन्नू मातनाडलिल्ल. च्यवनन व्यवहारवन्ने चिंतिसतॊडगिदनु.
13053004a अथ शून्येन मनसा प्रविवेश गृहं नृपः।
13053004c ददर्श शयने तस्मिन्शयानं भृगुनंदनम्।।
शून्य मनस्कनाद नृपनु अरमनॆयन्नु प्रवेशिसि अल्लि शयनदल्लि मलगिद्द भृगुनंदननन्नु नोडिदनु.
13053005a विस्मितौ तौ तु दृष्ट्वा तं तदाश्चर्यं विचिंत्य च।
13053005c दर्शनात्तस्य च मुनेर्विश्रांतौ संबभूवतुः।।
अवरिब्बरू आ आश्चर्यवन्नु नोडि विस्मितरागि योचिसतॊडगिदरु. आ मुनिय दर्शनमात्रदिंदले अवर आयासवु हॊरटुहोयितु.
13053006a यथास्थानं तु तौ स्थित्वा भूयस्तं संववाहतुः।
13053006c अथापरेण पार्श्वेन सुष्वाप स महामुनिः।।
अवरिब्बरू यथास्थानदल्लि निंतु अवन कालुगळन्नु ऒत्ततॊडगिदरु. आग आ महामुनियु इन्नॊंदु मग्गुलल्लि मलगिदनु.
13053007a तेनैव च स कालेन प्रत्यबुध्यत वीर्यवान्।
13053007c न च तौ चक्रतुः किं चिद्विकारं भयशंकितौ।।
अष्टे समयदल्लि पुनः वीर्यवान् च्यवननु ऎच्चॆत्तनु. भयशंकितराद अवरिब्बरू यावुदे विकारगळन्नू माडलिल्ल.
13053008a प्रतिबुद्धस्तु स मुनिस्तौ प्रोवाच विशां पते।
13053008c तैलाभ्यंगो दीयतां मे स्नास्येऽहमिति भारत।।
विशांपते! भारत! ऎच्चॆत्त मुनियु अवरिगॆ “ननगॆ तैलाभ्यंजनवन्नु नीडि” ऎंदनु
13053009a तथेति तौ प्रतिश्रुत्य क्षुधितौ श्रमकर्शितौ।
13053009c शतपाकेन तैलेन महार्हेणोपतस्थतुः।।
हसिवु-आयासगळिंद कृशरागिद्द अवरिब्बरू हागॆये आगलॆंदु हेळि, नूरु बारि कायिसिद्द बहुमूल्य तैलवन्नु तंदु सिद्धरागि निंतरु.
13053010a ततः सुखासीनमृषिं वाग्यतौ संववाहतुः।
13053010c न च पर्याप्तमित्याह भार्गवः सुमहातपाः।।
आग अवरिब्बरू सुखासीननागिद्द ऋषिगॆ ऎण्णॆयन्नु हच्चतॊडगिदरु. महातपस्वि भार्गवनु “साकु!” ऎंदु हेळले इल्ल.
13053011a यदा तौ निर्विकारौ तु लक्षयामास भार्गवः।
13053011c तत उत्थाय सहसा स्नानशालां विवेश ह।।
अवरिब्बरू निर्विकाररागिद्दुदन्नु भार्गवनु गमनिसिदनु. अनंतर ऒम्मॆले ऎद्दु स्नानशालॆयन्नु प्रवेशिसिदनु.
13053011e क्ल्वमेव तु तत्रासीत्स्नानीयं पार्थिवोचितम्।
13053012a असत्कृत्य तु तत्सर्वं तत्रैवांतरधीयत।।
अल्लिद्द पार्थिवरिगॆ उचितवाद ऎल्ल स्नान सामग्रिगळिरुवुदन्नू तिरस्करिसि अवनु अल्लिये अंतर्धाननादनु.
13053012c स मुनिः पुनरेवाथ नृपतेः पश्यतस्तदा।
13053012e नासूयां चक्रतुस्तौ च दंपती भरतर्षभ।।
भरतर्षभ! आ मुनियु पुनः नृपतिगॆ काणिसिकॊंडनु. दंपतिगळु असूयॆपडदे निंतिद्दरु.
13053013a अथ स्नातः स भगवान्सिंहासनगतः प्रभुः।
13053013c दर्शयामास कुशिकं सभार्यं भृगुनंदनः।।
आग स्नानमाडि भगवान् प्रभु भृगुनंदननु कुशिकनिगॆ सिंहासनद मेलॆ कंडनु.
13053014a संहृष्टवदनो राजा सभार्यः कुशिको मुनिम्।
13053014c सिद्धमन्नमिति प्रह्वो निर्विकारो न्यवेदयत्।।
संहृष्टवदननाद राजा कुशिकनु भार्यॆयॊंदिगॆ निर्विकारनागि “अन्नवु सिद्धवागिदॆ!” ऎंदु मुनिगॆ निवेदिसिदनु.
13053015a आनीयतामिति मुनिस्तं चोवाच नराधिपम्।
13053015c राजा च समुपाजह्रे तदन्नं सह भार्यया।।
“तॆगॆदुकॊंडु बा!” ऎंदु मुनियु नराधिपनिगॆ हेळिदनु. राजनादरो भार्यॆयॊडनॆ आ अन्नवन्नु तॆगॆदुकॊंडु बंदनु.
13053016a मांसप्रकारान्विविधान्शाकानि विविधानि च।
13053016c वेसवारविकारांश्च पानकानि लघूनि च।।
13053017a रसालापूपकांश्चित्रान्मोदकानथ षाडवान्।
13053017c रसान्नानाप्रकारांश्च वन्यं च मुनिभोजनम्।।
13053018a फलानि च विचित्राणि तथा भोज्यानि भूरिशः।
13053018c बदरेंगुदकाश्मर्यभल्लातकवटानि च।।
13053019a गृहस्थानां च यद्भोज्यं यच्चापि वनवासिनाम्।
13053019c सर्वमाहारयामास राजा शापभयान्मुनेः।।
मुनिय शापद भयदिंद राजनु विविध मांसप्रकारगळू, विविध तरकारिगळिंद माडिद अनेक व्यंजनगळू, लघुवाद पानकगळू, रुचिकर अपूपगळू, चित्र-विचित्रवाद मोदकगळू, मिठायिगळू, नाना प्राकारद रसगळू, अरण्यदल्लि सिक्कुव मुनिभोजनक्कॆ तक्कुदाद विचित्र फलगळू, राजर भोजनक्कॆ योग्यवादवुगळू, गारॆहण्णु, कुंकुमकेसरि, ऎलचि, भल्लातक फलगळू, गृहस्थरिगॆ मत्तु मत्तु वानप्रस्थरिगॆ योग्यवाद भोजन ऎल्लवन्नू तरिसिदनु.
13053020a अथ सर्वमुपन्यस्तमग्रतश्च्यवनस्य तत्।
13053020c ततः सर्वं समानीय तच्च शय्यासनं मुनिः।।
13053021a वस्त्रैः शुभैरवच्चाद्य भोजनोपस्करैः सह।
13053021c सर्वमादीपयामास च्यवनो भृगुनंदनः।।
अवॆल्लवन्नू च्यवनन मुंदॆ तंदु इडलायितु. आग भृगुनंदन च्यवन मुनियु हासिगॆ, सिंहासन, शुभ वस्त्रगळु, हॊदिकॆगळु, भोजन सामग्रिगळॊडनॆ ऎल्लवन्नू सुट्टु भस्ममाडिदनु.
13053022a न च तौ चक्रतुः कोपं दंपती सुमहाव्रतौ।
13053022c तयोः संप्रेक्षतोरेव पुनरंतर्हितोऽभवत्।।
महाव्रतिगळाद आ दंपतिगळिब्बरू स्वल्पवू कोपगॊळ्ळलिल्ल. आग अवरु नोडुत्तिद्दंतॆये मुनियु पुनः अंतर्धाननादनु.
13053023a तत्रैव च स राजर्षिस्तस्थौ तां रजनीं तदा।
13053023c सभार्यो वाग्यतः श्रीमान्न च तं कोप आविशत्।।
रात्रियिडी राजर्षियु भार्यॆयॊडनॆ अल्लिये निंतिद्दनु. आ श्रीमाननन्नु कोपवॆंबुदे प्रवेशिसलिल्ल.
13053024a नित्यं संस्कृतमन्नं तु विविधं राजवेश्मनि।
13053024c शयनानि च मुख्यानि परिषेकाश्च पुष्कलाः।।
13053025a वस्त्रं च विविधाकारमभवत्समुपार्जितम्।
13053025c न शशाक ततो द्रष्टुमंतरं च्यवनस्तदा।।
च्यवननु काणिसिकॊळ्ळुववरॆगॆ नित्यवू राजनरमनॆयल्लि भोजनवन्नु तयारिसलागुत्तित्तु; शयनगळु सिद्धवागिरुत्तिद्दवु; अभिषेकक्कागि बेकागुव पदार्थ-सलकरणॆगळु सिद्धवागुत्तिद्दवु; विविधाकारद वस्त्रगळन्नु कूड तंदु अवनिगॆ अर्पिसुत्तिद्दरु.
13053026a पुनरेव च विप्रर्षिः प्रोवाच कुशिकं नृपम्।
13053026c सभार्यो मां रथेनाशु वह यत्र ब्रवीम्यहम्।।
पुनः आ विप्रर्षियु नृप कुशिकनिगॆ “नन्नन्नु रथदल्लि भार्यॆयॊंदिगॆ नानु हेळुवल्लिगॆ ऎळॆदुकॊंडु होगु!” ऎंदनु.
13053027a तथेति च प्राह नृपो निर्विशंकस्तपोधनम्।
13053027c क्रीडारथोऽस्तु भगवन्नुत सांग्रामिको रथः।।
निर्विशंकनागि हागॆये आगलॆंदु हेळि नृपनु तपोधननिगॆ “भगवन्! क्रीडारथवो युद्धरथवो हेळु” ऎंदनु.
13053028a इत्युक्तः स मुनिस्तेन राज्ञा हृष्टेन तद्वचः।
13053028c च्यवनः प्रत्युवाचेदं हृष्टः परपुरंजयम्।।
राजन ई संतोषद मातन्नु केळि च्यवन मुनियु परपुरंजयनिगॆ उत्तरिसिदनु:
13053029a सज्जीकुरु रथं क्षिप्रं यस्ते सांग्रामिको मतः।
13053029c सायुधः सपताकश्च सशक्तिः कणयष्टिमान्।।
13053030a किंकिणीशतनिर्घोषो युक्तस्तोमरकल्पनैः।
13053030c गदाखड्गनिबद्धश्च परमेषुशतान्वितः।।
“युद्धरथवॆंदु नीनु यावुदन्नु तिळिदिरुवॆयो अदन्ने पताकॆगळु, आयुधगळु, शक्ति, स्वर्णदंड, शब्दमाडुव नूरु किंकिणिगंटॆगळु, मत्तु तोमरगळिरुव सुवर्ण रथवन्नु बेगनॆ सज्जुगॊळिसु.”
13053031a ततः स तं तथेत्युक्त्वा कल्पयित्वा महारथम्।
13053031c भार्यां वामे धुरि तदा चात्मानं दक्षिणे तथा।।
अवनिगॆ हागॆये आगलॆंदु हेळि अवनु महारथवन्नु सिद्धगॊळिसलु रथद मूकिय ऎडभागवन्नु पत्नि मत्तु तानु बलभागवन्नु हिडिदुकॊंडरु.
13053032a त्रिदंष्ट्रं वज्रसूच्यग्रं प्रतोदं तत्र चादधत्।
13053032c सर्वमेतत्ततो दत्त्वा नृपो वाक्यमथाब्रवीत्।।
मूरु हल्लुगळिरुव वज्रद मॊनॆगळिद्द चावटियन्नू अवनिगॆ कॊट्टु नृपनु ई मातन्नाडिदनु:
13053033a भगवन्क्व रथो यातु ब्रवीतु भृगुनंदनः।
13053033c यत्र वक्ष्यसि विप्रर्षे तत्र यास्यति ते रथः।।
“भगवन्! भृगुनंदन! रथवु ऎल्लिगॆ होगबेकॆंदु हेळु. विप्रर्षे! नीनु ऎल्लिगॆंदु हेळुत्तीयो अल्लिगॆ ई रथवु होगुत्तदॆ.”
13053034a एवमुक्तस्तु भगवान्प्रत्युवाचाथ तं नृपम्।
13053034c इतःप्रभृति यातव्यं पदकं पदकं शनैः।।
इदन्नु केळि भगवाननु आ नृपनिगॆ हेळिदनु: “इल्लिंद मॆल्लने हॆज्जॆगळन्निडुत्ता इदन्नु कॊंडॊय्यबेकु.
13053035a श्रमो मम यथा न स्यात्तथा मे चंदचारिणौ।
13053035c सुखं चैवास्मि वोढव्यो जनः सर्वश्च पश्यतु।।
ननगॆ श्रमवागद रीतियल्लि नानु बयसिदंतॆ होगबेकु. सुखासीननागिरुव नन्नन्नु सर्व जनरू नोडलि!
13053036a नोत्सार्यः पथिकः कश्चित्तेभ्यो दास्याम्यहं वसु।
13053036c ब्राह्मणेभ्यश्च ये कामानर्थयिष्यंति मां पथि।।
पथिकरु यारू कदलबारदु. अवरिगॆ मत्तु नन्न मार्गदल्लि बयसि बरुव ब्राह्मणरिगू अवरु केळिदुदन्नु कॊडुत्तेनॆ.
13053037a सर्वं दास्याम्यशेषेण धनं रत्नानि चैव हि।
13053037c क्रियतां निखिलेनैतन्मा विचारय पार्थिव।।
यावुदन्नू बिडदे धन-रत्नगळॆल्लवन्नू कॊडुत्तेनॆ. इवॆल्लवन्नू माडिसु. पार्थिव! इदर कुरितु विचारिसबेड!”
13053038a तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा भृत्यानथाब्रवीत्।
13053038c यद्यद्ब्रूयान्मुनिस्तत्तत्सर्वं देयमशंकितैः।।
अवन आ मातन्नु केळि राजनु सेवकरिगॆ हेळिदनु: “शंकॆयन्नु तोरदे ई मुनियु एनॆल्ल केळुत्तानो अवॆल्लवन्नू कॊडि!”
13053039a ततो रत्नान्यनेकानि स्त्रियो युग्यमजाविकम्।
13053039c कृताकृतं च कनकं गजेंद्राश्चाचलोपमाः।।
13053040a अन्वगच्चंत तमृषिं राजामात्याश्च सर्वशः।
13053040c हाहाभूतं च तत्सर्वमासीन्नगरमार्तिमत्।।
आग अनेक रत्नगळु, स्त्रीयरु, वाहनगळु, कुरिगळु, स्वर्णाभरणगळु, मत्तु पर्वतगळंतिद्द आनॆगळु, अमात्यरु ऎल्लरू आ ऋषियन्नु हिंबालिसिदरु. आ नगरदल्लॆल्ला आर्तस्वरद हाहाकारवुंटायितु.
13053041a तौ तीक्ष्णाग्रेण सहसा प्रतोदेन प्रचोदितौ।
13053041c पृष्ठे विद्धौ कटे चैव निर्विकारौ तमूहतुः।।
तीक्ष्ण अग्रभागदिंद ऒम्मॆले पृष्ठभाग-सॊंटगळ मेलॆ जोरागि हॊडॆयल्पट्टरू आ दंपतिगळु निर्विकाररागि रथवन्नु ऎळॆदुकॊंडु होगुत्तिद्दरु.
13053042a वेपमानौ विराहारौ पंचाशद्रात्रकर्शितौ।
13053042c कथं चिदूहतुर्वीरौ दंपती तं रथोत्तमम्।।
ऐवत्तु दिनगळु उपवासदिंद दुर्बलरागि नडुगुत्तिद्द आ वीर दंपतिगळु हेगो आ उत्तम रथवन्नु ऎळॆदुकॊंडु होगुत्तिद्दरु.
13053043a बहुशो भृशविद्धौ तौ क्षरमाणौ क्षतोद्भवम्।
13053043c ददृशाते महाराज पुष्पिताविव किंशुकौ।।
महाराज! अनेकबारि जोरागि हॊडॆयल्पट्टु अदरिंदुंटाद गायगळिंद रक्तवु सुरियुत्तिरलु अवरिब्बरू हूबिट्ट मुत्तुगद मरगळंतॆ तोरिदरु.
13053044a तौ दृष्ट्वा पौरवर्गस्तु भृशं शोकपरायणः।
13053044c अभिशापभयात्त्रस्तो न च किं चिदुवाच ह।।
अवरिब्बरन्नू नोडि अत्यंत शोकपरायणराद पौरवर्गवादरो अभिशापभयदिंद नडुगि एनन्नू हेळलिल्ल.
13053045a द्वंद्वशश्चाब्रुवन्सर्वे पश्यध्वं तपसो बलम्।
13053045c क्रुद्धा अपि मुनिश्रेष्ठं वीक्षितुं नैव शक्नुमः।।
अवरॆल्लरल्लि ऒब्बिब्बरु हेळिकॊळ्ळुत्तिद्दरु: “इवन तपस्सिन बलवन्नु नोडिरि! कृद्धनाद मुनिश्रेष्ठनन्नु नोडलू कूड नावु शक्यरागिल्ल!
13053046a अहो भगवतो वीर्यं महर्षेर्भावितात्मनः।
13053046c राज्ञश्चापि सभार्यस्य धैर्यं पश्यत यादृशम्।।
अहो! भगवत भावितात्म महर्षिय वीर्यवे! अदक्कॆ तक्कंतह भार्यॆयॊंदिगिन राजन धैर्यवन्नादरू नोडि!”
13053047a श्रांतावपि हि कृच्च्रेण रथमेतं समूहतुः।
13053047c न चैतयोर्विकारं वै ददर्श भृगुनंदनः।।
आयासगॊंडिद्दरू कष्टदिंद अवरु रथवन्नु ऎळॆयुत्तिद्दरु. आदरू अवरल्लि यावुदे विकारवन्नू भृगुनंदननु काणलिल्ल.”
13053048 भीष्म उवाच।
13053048a ततः स निर्विकारौ तौ दृष्ट्वा भृगुकुलोद्वहः।
13053048c वसु विश्राणयामास यथा वैश्रवणस्तथा।।
भीष्मनु हेळिदनु: “अवरिब्बरू निर्विकाररागिरुवुदन्नु नोडि भृगुनंदननु वैश्रवणनंतॆ ऐश्वर्यवन्नु हंचतॊडगिदनु.
13053049a तत्रापि राजा प्रीतात्मा यथाज्ञप्तमथाकरोत्।
13053049c ततोऽस्य भगवान्प्रीतो बभूव मुनिसत्तमः।।
आगलू कूड प्रीतात्मनाद राजनु आज्ञॆयिद्दंतॆये माडिदनु. आग भगवान् मुनिसत्तमनु प्रीतनादनु.
13053050a अवतीर्य रथश्रेष्ठाद्दंपती तौ मुमोच ह।
13053050c विमोच्य चैतौ विधिवत्ततो वाक्यमुवाच ह।।
13053051a स्निग्धगंभीरया वाचा भार्गवः सुप्रसन्नया।
13053051c ददानि वां वरं श्रेष्ठं तद्ब्रूतामिति भारत।।
भारत! श्रेष्ठ रथदिंद कॆळगिळिदु अवनु आ दंपतिगळन्नु रथदिंद बिडिसिदनु. अवरन्नु बिडिसि भार्गवनु सुप्रसन्ननागि ब्रह्मनंतॆये स्निग्धगंभीर वाणियल्लि “श्रेष्ठवरवन्नु नीडुत्तेनॆ. केळिको!” ऎंदनु.
13053052a सुकुमारौ च तौ विद्वान्कराभ्यां मुनिसत्तमः।
13053052c पस्पर्शामृतकल्पाभ्यां स्नेहाद्भरतसत्तम।।
भरतसत्तम! मुनिसत्तमनु स्नेहदिंद तन्न अमृतकल्प कैगळिंद अवर सुकुमार शरीरगळन्नु सवरिदनु.
13053053a अथाब्रवीन्नृपो वाक्यं श्रमो नास्त्यावयोरिह।
13053053c विश्रांतौ स्वः प्रभावात्ते ध्यानेनैवेति भार्गव।।
आग नृपनु “भार्गव! नमगिब्बरिगू ईग श्रमवॆन्नुवुदे इल्लवागिदॆ. निन्न प्रभावदिंद नाविब्बरू विश्रांतरागिद्देवॆ” ऎंदनु.
13053054a अथ तौ भगवान्प्राह प्रहृष्टश्च्यवनस्तदा।
13053054c न वृथा व्याहृतं पूर्वं यन्मया तद्भविष्यति।।
आग प्रहृष्टनाद भगवान् च्यवननु अवरिगॆ हेळिदनु: “हिंदॆ नानु हेळिदुदु व्यर्थवागुवुदिल्ल. अदु हागॆये आगुत्तदॆ.
13053055a रमणीयः समुद्देशो गंगातीरमिदं शुभम्।
13053055c कं चित्कालं व्रतपरो निवत्स्यामीह पार्थिव।।
पार्थिव! ई गंगातीर प्रदेशवु रमणीयवू शुभवू आगिदॆ. कॆलवु समय इल्लि व्रतपरनागि वासिसुत्तेनॆ.
13053056a गम्यतां स्वपुरं पुत्र विश्रांतः पुनरेष्यसि।
13053056c इहस्थं मां सभार्यस्त्वं द्रष्टासि श्वो नराधिप।।
पुत्र! नराधिप! स्वपुरक्कॆ होगि विश्रांतियन्नु पडॆदुको. पुनः बरुवियंतॆ. भार्यॆयॊंदिगॆ नीनु नाळॆ नन्नन्नु इल्लि नोडुत्तीयॆ!
13053057a न च मन्युस्त्वया कार्यः श्रेयस्ते समुपस्थितम्।
13053057c यत्कांक्षितं हृदिस्थं ते तत्सर्वं संभविष्यति।।
कोपगॊळ्ळबेड! निनगॆ श्रेयस्सुंटागलिदॆ. निन्न हृदयदल्लिरुव आकांक्षॆगळु ऎल्लवू नॆरवेरुत्तवॆ.”
13053058a इत्येवमुक्तः कुशिकः प्रहृष्टेनांतरात्मना।
13053058c प्रोवाच मुनिशार्दूलमिदं वचनमर्थवत्।।
इदन्नु केळिद कुशिकनु अंतरात्मदल्लि प्रहृष्टनागि मुनिशार्दूलनिगॆ अर्थवत्ताद ई मातन्नाडिदनु:
13053059a न मे मन्युर्महाभाग पूतोऽस्मि भगवंस्त्वया।
13053059c संवृत्तौ यौवनस्थौ स्वो वपुष्मंतौ बलान्वितौ।।
“भगवन्! महाभाग! ननगॆ कोपविल्ल. निन्निंद नानु पवित्रनागिद्देनॆ. निन्निंदागि नाविब्बरू नवयौवनवन्नू, सुंदर शरीरवन्नू मत्तु बलवन्नू पडॆदिद्देवॆ.
13053060a प्रतोदेन व्रणा ये मे सभार्यस्य कृतास्त्वया।
13053060c तान्न पश्यामि गात्रेषु स्वस्थोऽस्मि सह भार्यया।।
निन्न चावटिय हॊडॆतदिंद नन्न मत्तु पत्निय शरीरगळ मेलॆ उंटाद गायगळन्नू काणुत्तिल्ल. भार्यॆयॊंदिगॆ नानु स्वस्थचित्तनागिद्देनॆ.
13053061a इमां च देवीं पश्यामि मुने दिव्याप्सरोपमाम्।
13053061c श्रिया परमया युक्तां यथादृष्टां मया पुरा।।
नानु हिंदॆ नोडिद्दंतॆ ईगलू नन्न ई देवियु अप्सरॆयरंतॆ परम श्रीयिंद कूडिरुवुदन्नु काणुत्तिद्देनॆ.
13053062a तव प्रसादात्संवृत्तमिदं सर्वं महामुने।
13053062c नैतच्चित्रं तु भगवंस्त्वयि सत्यपराक्रम।।
महामुने! भगवन्! सत्यपराक्रम! ई सर्ववू निन्न प्रसाददिंदले प्राप्तवागिवॆ. निन्नल्लि ई शक्तियिरुवुदु आश्चर्यवेनल्ल.”
13053063a इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं च्यवनः कुशिकं तदा।
13053063c आगच्चेथाः सभार्यश्च त्वमिहेति नराधिप।।
इदन्नु केळि च्यवननु कुशिकनिगॆ “नराधिप! भार्यॆयॊंदिगॆ इल्लिगॆ बरबेकु” ऎंदु हेळिदनु.
13053064a इत्युक्तः समनुज्ञातो राजर्षिरभिवाद्य तम्।
13053064c प्रययौ वपुषा युक्तो नगरं देवराजवत्।।
इदन्नु केळि अनुज्ञातनागि राजर्षियु अवनिगॆ नमस्करिसि देवराजनंतॆ कांतियुक्तनागि नगरवन्नु प्रवेशिसिदनु.
13053065a तत एनमुपाजग्मुरमात्याः सपुरोहिताः।
13053065c बलस्था गणिकायुक्ताः सर्वाः प्रकृतयस्तथा।।
हागॆये पुरोहितरॊंदिगॆ अमात्यरु, सेनापतिगळु, वेश्यॆयरु मत्तु ऎल्ल प्रजॆगळू नगरक्कॆ तॆरळिदरु.
13053066a तैर्वृतः कुशिको राजा श्रिया परमया ज्वलन्।
13053066c प्रविवेश पुरं हृष्टः पूज्यमानोऽथ बंदिभिः।।
परम श्रीयिंद प्रज्वलिसुत्तिद्द राजनु हृष्टनागि बंदिगळिंद पूजिसल्पडुत्ता पुरवन्नु प्रवेशिसिदनु.
13053067a ततः प्रविश्य नगरं कृत्वा सर्वाह्णिकक्रियाः।
13053067c भुक्त्वा सभार्यो रजनीमुवास स महीपतिः।।
नगरवन्नु प्रवेशिसि सर्व आह्णिकक्रियॆगळन्नु पूरैसि भोजनगैदु महीपतियु पत्नियॊडनॆ रात्रियन्नु कळॆदनु.
13053068a ततस्तु तौ नवमभिवीक्ष्य यौवनं परस्परं विगतजराविवामरौ।
13053068c ननंदतुः शयनगतौ वपुर्धरौ श्रिया युतौ द्विजवरदत्तया तया।।
शयनमंदिरक्कॆ होद अवरु द्विजवरनु तमगॆ नीडिद श्रीयिंद कूडिद रूपद तम्म शरीरगळु अमररंतॆ वृद्धाप्यविल्लदे नवयौवनदिंद कूडिरुवुदन्नु परस्पर नोडिकॊंडु आनंदिसिदरु.
13053069a स चाप्यृषिर्भृगुकुलकीर्तिवर्धनस् तपोधनो वनमभिराममृद्धिमत्।
13053069c मनीषया बहुविधरत्नभूषितं ससर्ज यन्नास्ति शतक्रतोरपि।।
भृगुकुलकीर्तिवर्धन ऋषि तपोधन च्यवननादरो मनस्संकल्पदिंदले बहुविध रत्नगळिंद विभूषितवाद कण्णुगळिगॆ आनंदवन्नु नीडुत्तिद्द संपद्भरित वनवन्नु सृष्टिसिदनु. अंथह वनवु शतक्रतुविनल्लियू इरलिल्ल.”
समाप्ति
इति श्रीमहाभारते अनुशासन पर्वणि दानधर्म पर्वणि च्यवनकुशिकसंवादे त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि अनुशासन पर्वदल्लि दानधर्म पर्वदल्लि च्यवनकुशिकसंवाद ऎन्नुव ऐवत्मूरने अध्यायवु.