043: विपुलोपाख्यानः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

अनुशासन पर्व

दानधर्म पर्व

अध्याय 43

सार

देवशर्मनु विपुलनु निर्दोषियॆंदु हेळिदुदु (1-15). भीष्मनु स्त्रीस्वभावकथनवन्नु पूरैसिदुदु (16-26).

13043001 भीष्म उवाच।
13043001a तमागतमभिप्रेक्ष्य शिष्यं वाक्यमथाब्रवीत्।
13043001c देवशर्मा महातेजा यत्तच्चृणु नराधिप।।

भीष्मनु हेळिदनु: “नराधिप! शिष्यनु बंदुदन्नु नोडि महातेजस्वी देवशर्मनु ई मातन्नाडिदनु. अदन्नु केळु.”

13043002 देवशर्मोवाच।
13043002a किं ते विपुल दृष्टं वै तस्मिन्नद्य महावने।
13043002c ते त्वा जानंति निपुण आत्मा च रुचिरेव च।।

देवशर्मनु हेळिदनु: “विपुल! इंदु आ महावनदल्लि एनन्नु नोडिदॆ? आ निपुणरु निन्नन्नू मत्तु रुचिय अंतरात्मगळन्नु तिळिदिरुत्तारॆ.”

13043003 विपुल उवाच।
13043003a ब्रह्मर्षे मिथुनं किं तत्के च ते पुरुषा विभो।
13043003c ये मां जानंति तत्त्वेन तांश्च मे वक्तुमर्हसि।।

विपुलनु हेळिदनु: “विभो! ब्रह्मर्षे! तत्त्वतः नन्नन्नु तिळिदुकॊंडिद्द आ दंपतिगळु यारु मत्तु आ पुरुषरु यारु? अदन्नु ननगॆ हेळबेकु.”

13043004 देवशर्मोवाच।
13043004a यद्वै तन्मिथुनं ब्रह्मन्नहोरात्रं हि विद्धि तत्।
13043004c चक्रवत्परिवर्तेत तत्ते जानाति दुष्कृतम्।।

देवशर्मनु हेळिदनु: “चक्रदंतॆ तिरुगुत्तिद्द आ दंपतिगळु हगलु-रात्रिगळॆंदु तिळि. अवरिगॆ निन्न दुष्कृतवु तिळिदिदॆ.

13043005a ये च ते पुरुषा विप्र अक्षैर्दीव्यंति हृष्टवत्।
13043005c ऋतूंस्तानभिजानीहि ते ते जानंति दुष्कृतम्।।

विप्र! संतोषदिंद दाळगळन्नु हिडिदु जूजाडुत्तिद्द आ पुरुषरु ऋतुगळॆंदु तिळि. अवरिगू निन्न दुष्कृतवु तिळिदिदॆ.

13043006a न मां कश्चिद्विजानीत इति कृत्वा न विश्वसेत्।
13043006c नरो रहसि पापात्मा पापकं कर्म वै द्विज।।

द्विज! पापात्म नरनु रहस्यदल्लि पापकर्मवन्नु माडि नन्नन्नु यारू तिळियलाररु ऎंब विश्वासवन्नु तळॆयबारदु.

13043007a कुर्वाणं हि नरं कर्म पापं रहसि सर्वदा।
13043007c पश्यंति ऋतवश्चापि तथा दिननिशेऽप्युत।।

रहस्यदल्लि नरनु माडुव पाप कर्मगळन्नु सर्वदा ऋतुगळु मत्तु दिन-रात्रिगळु नोडुत्तले इरुत्तवॆ.

13043008a ते त्वां हर्षस्मितं दृष्ट्वा गुरोः कर्मानिवेदकम्।
13043008c स्मारयंतस्तथा प्राहुस्ते यथा श्रुतवान्भवान्।।

गुरुविगॆ निन्न कर्मवन्नु हेळदे हर्षपडुत्तिद्द निन्नन्नु नोडि अवरु निनगॆ नॆनपिसलोसुग हागॆ मातनाडुत्तिरुवुदन्नु नीनु केळिदॆ.

13043009a अहोरात्रं विजानाति ऋतवश्चापि नित्यशः।
13043009c पुरुषे पापकं कर्म शुभं वा शुभकर्मणः।।

हगलु-रात्रिगळु मत्तु ऋतुगळू कूड नित्यवू पुरुषन पापकर्मगळन्नु अथवा शुभकर्मगळ शुभवन्नु तिळिदिरुत्तवॆ.

13043010a तत्त्वया मम यत्कर्म व्यभिचाराद्भयात्मकम्।
13043010c नाख्यातमिति जानंतस्ते त्वामाहुस्तथा द्विज।।

द्विज! नीनु ननगागि माडिद कर्मवु व्यभिचारदिंदागि भयात्मकवागित्तु. अदन्नु निनगॆ हेळलिक्कागलिल्लवॆंदु तिळिदु आहोरात्रिगळु मत्तु ऋतुगळु अदन्नु निनगॆ हेळिदवु.

13043011a ते चैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा।
13043011c कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम यच्च त्वया कृतम्।।

पापकर्मिगळु तावु माडिद कर्मगळन्नु हेगॆ बेरॆयवरॊडनॆ हेळिकॊळ्ळुवुदिल्लवो हागॆ नीनू कूड नीनु माडिदुदन्नु नन्नल्लि हेळलिल्ल. आदुदरिंद निनगॆ पापकर्मिगळिगॆ दॊरॆयुव लोकगळु दॊरॆयुत्तवॆ.

13043012a तथा शक्या च दुर्वृत्ता रक्षितुं प्रमदा द्विज।
13043012c न च त्वं कृतवान्किं चिदागः प्रीतोऽस्मि तेन ते।।

द्विज! आ कर्ममात्रदिंदले नीनु दुर्वृत्त प्रमदॆयन्नु रक्षिसलु शक्यनागिद्दॆ. आदरू नीनु अवळॊडनॆ याव दुष्कर्मवन्नू ऎसगलिल्ल. आदुदरिंद नानु निन्न मेलॆ प्रीतनागिद्देनॆ.

13043013a यदि त्वहं त्वा दुर्वृत्तमद्राक्षं द्विजसत्तम।
13043013c शपेयं त्वामहं क्रोधान्न मेऽत्रास्ति विचारणा।।

द्विजसत्तम! ऒंदु वेळॆ नीनु कॆट्टद्दागि नडॆदुकॊंडिद्दॆयॆंदु दिव्यदृष्टियिंद तिळिदिद्दरॆ नानु निन्नन्नु क्रोधदिंद शपिसुत्तिद्दॆ. अदरल्लि स्वल्पवू विचारमाडुत्तिरलिल्ल.

13043014a सज्जंति पुरुषे नार्यः पुंसां सोऽर्थश्च पुष्कलः।
13043014c अन्यथा रक्षतः शापोऽभविष्यत्ते गतिश्च सा।।

नारियरु पुरुषरल्लि आसक्तियन्निट्टिरुत्तारॆ. हागॆ पुरुषरू कूड नारियरल्लि पुष्कल आसक्तियन्निट्टिरुत्तारॆ. नीनु अवळन्नु अन्यथा रक्षिसिद्दे आगिद्दरॆ निनगॆ शापवू दुर्गतियू तप्पुत्तिरलिल्ल.

13043015a रक्षिता सा त्वया पुत्र मम चापि निवेदिता।
13043015c अहं ते प्रीतिमांस्तात स्वस्ति स्वर्गं गमिष्यसि।।

पुत्र! अवळन्नु नीनु रक्षिसि ननगॊप्पिसिदॆ. अय्या! नानु निन्न मेलॆ प्रीतनागिद्देनॆ. निनगॆ मंगळवागलि. स्वर्गक्कॆ होगुत्तीयॆ.””

13043016 भीष्म उवाच।
13043016a इत्युक्त्वा विपुलं प्रीतो देवशर्मा महानृषिः।
13043016c मुमोद स्वर्गमास्थाय सहभार्यः सशिष्यकः।।

भीष्मनु हेळिदनु: “हीगॆ विपुलनिगॆ हेळि प्रीतनाद महानृषि देवशर्मनु स्वर्गवन्नु सेरि भार्यॆ मत्तु शिष्यनॊंदिगॆ मोदिसिदनु.

13043017a इदमाख्यातवांश्चापि ममाख्यानं महामुनिः।
13043017c मार्कंडेयः पुरा राजन्गंगाकूले कथांतरे।।

राजन्! हिंदॆ गंगाकूलदल्लि मातुकथॆगळ मध्यॆ ई आख्यानवन्नु महामुनि मार्कंडेयनु ननगॆ हेळिद्दनु.

13043018a तस्माद्ब्रवीमि पार्थ त्वा स्त्रियः सर्वाः सदैव च।
13043018c उभयं दृश्यते तासु सततं साध्वसाधु च।।

पार्थ! आदुदरिंद नीनु ऎल्ल स्त्रीयरन्नू सदैव रक्षिसबेकॆंदु हेळुत्तेनॆ. अवरल्लि सततवू साधु मत्तु असाधु ऎरडू कंडुबरुत्तवॆ.

13043019a स्त्रियः साध्व्यो महाभागाः संमता लोकमातरः।
13043019c धारयंति महीं राजन्निमां सवनकाननाम्।।

राजन्! महाभाग साध्वि स्त्रीयरु लोकमातररॆंदु सन्मानिसल्पट्टु ई वनकाननगळॊंदिगॆ इडी भूमियन्ने धरिसुत्तारॆ.

13043020a असाध्व्यश्चापि दुर्वृत्ताः कुलघ्न्यः पापनिश्चयाः।
13043020c विज्ञेया लक्षणैर्दुष्टैः स्वगात्रसहजैर्नृप।।

नृप! पापनिश्चयरू दुर्वृत्तरू आद असाध्वियरु कुलवन्नु नाशमाडुत्तारॆ. अवर सहजवाद शरीर लक्षणगळिंद दुष्टतनवन्नु तिळिदुकॊळ्ळबेकु.

13043021a एवमेतासु रक्षा वै शक्या कर्तुं महात्मभिः।
13043021c अन्यथा राजशार्दूल न शक्या रक्षितुं स्त्रियः।।

अंतह स्त्रीयरन्नु महात्मरु मात्र रक्षिसलु शक्यरु. राजशार्दूल! अन्यथा अंतह स्त्रीयरन्नु रक्षिसुवुदु शक्यविल्ल.

13043022a एता हि मनुजव्याघ्र तीक्ष्णास्तीक्ष्णपराक्रमाः।
13043022c नासामस्ति प्रियो नाम मैथुने संगमे नृभिः।।

मनुजव्याघ्र! असाध्वियरु अति तीक्ष्ण पराक्रमवुळ्ळवरु. अवरिगॆ प्रियनॆंबुववनु यारू इरुवुदिल्ल. ऎल्लरू मैथुन संबंधदल्लि मात्र प्रियरागिरुत्तारॆ.

13043023a एताः कृत्याश्च कार्याश्च कृताश्च भरतर्षभ।
13043023c न चैकस्मिन्रमंत्येताः पुरुषे पांडुनंदन।।

भरतर्षभ! पांडुनंदन! इंथवरु माटद बॊंबॆयंतॆ. माटद कार्यवन्नु माडुत्तारॆ. ऒब्बने पुरुषनल्लि इवरु यावागलू रमिसुवुदिल्ल.

13043024a नासु स्नेहो नृभिः कार्यस्तथैवेर्ष्या जनेश्वर।
13043024c खेदमास्थाय भुंजीत धर्ममास्थाय चैव हि।।

जनेश्वर! अंथवरल्लि स्नेहवन्निट्टुकॊंडिरबारदु. असहनॆयन्नू तोरिसबारदु. निरासक्तनागि धर्मद प्रकारवे अवरन्नु भोगिसबेकु.

13043025a विहन्येतान्यथा कुर्वन्नरः कौरवनंदन।
13043025c सर्वथा राजशार्दूल युक्तिः सर्वत्र पूज्यते।।

कौरवनंदन! राजशर्दूल! इदक्किंतलू बेरॆ रीतियल्लि वर्तिसुव मनुष्यनु विनाशनागुत्तानॆ. आदुदरिंद निरासक्तियु सर्वत्र सर्वथा पूजिसल्पडुत्तदॆ.

13043026a तेनैकेन तु रक्षा वै विपुलेन कृता स्त्रियाः।
13043026c नान्यः शक्तो नृलोकेऽस्मिन्रक्षितुं नृप योषितः।।

नृप! विपुलनॊब्बने स्त्रीय रक्षणॆयन्नु माडिदनु. स्वेच्छा चारिणी स्त्रीयरन्नु रक्षिसलु ई लोकदल्लि बेरॆ यारिगू साध्यविल्ल.”

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते अनुशासन पर्वणि दानधर्म पर्वणि विपुलोपाख्याने त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि अनुशासन पर्वदल्लि दानधर्म पर्वदल्लि विपुलोपाख्यान ऎन्नुव नल्वत्मूरने अध्यायवु.