012: भंगस्वनोपाख्यानः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

अनुशासन पर्व

दानधर्म पर्व

अध्याय 12

सार

स्त्री-पुरुषर संभोगदल्लि यार सुखवु अधिकवागिरुत्तदॆ? ऎंब युधिष्ठिरन प्रश्नॆगॆ भीष्मनु भंगाश्वन कथॆयन्नु हेळि, इदरल्लि स्त्रीय सुखवे हॆच्चिनदॆंदु तिळिसुवुदु (1-49).

13012001 युधिष्ठिर उवाच।
13012001a स्त्रीपुंसयोः संप्रयोगे स्पर्शः कस्याधिको भवेत्।
13012001c एतन्मे संशयं राजन्यथावद्वक्तुमर्हसि।।

यधिष्ठिरनु हेळिदनु: “राजन्! स्त्री-पुरुषर संभोगदल्लि यार सुखवु अधिकवागिरुत्तदॆ? नन्न ई संशयद कुरितु यथावत्तागि हेळबेकु.”

13012002 भीष्म उवाच।
13012002a अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्।
13012002c भंगाश्वनेन शक्रस्य यथा वैरमभूत्पुरा।।

भीष्मनु हेळिदनु: “हिंदॆ भंगाश्वनॊंदिगॆ शक्रन वैरवु हेगुंटायितॆन्नुव पुरातन इतिहासवन्नु ई विषयदल्लि उदाहरिसुत्तारॆ.

13012003a पुरा भंगाश्वनो नाम राजर्षिरतिधार्मिकः।
13012003c अपुत्रः स नरव्याघ्र पुत्रार्थं यज्ञमाहरत्।।

हिंदॆ भंगाश्वनॆंब हॆसरिन अति धार्मिक राजनिद्दनु. नरव्याघ्र! अपुत्रनागिद्द अवनु पुत्रनिगागि यज्ञवन्नु कैगॊंडनु.

13012004a अग्निष्टुं नाम राजर्षिरिंद्रद्विष्टं महाबलः।
13012004c प्रायश्चित्तेषु मर्त्यानां पुत्रकामस्य चेष्यते।।

आ महाबल राजर्षियु मनुष्यर प्रायश्चित्तक्कू पुत्रनन्नु बयसुववरिगू हेळिरुव, आदरॆ इंद्रनिगॆ विरुद्धवाद, अग्निष्टु ऎंब हॆसरिन यागवन्नु माडिदनु.

13012005a इंद्रो ज्ञात्वा तु तं यज्ञं महाभागः सुरेश्वरः।
13012005c अंतरं तस्य राजर्षेरन्विच्चन्नियतात्मनः।।

आ यज्ञद कुरितु तिळिद महाभाग सुरेश्वर इंद्रनु आ नियतात्म राजर्षियल्लि न्यूनतॆगळन्नु हुडुकतॊडगिदनु.

13012006a कस्य चित्त्वथ कालस्य मृगयामटतो नृप।
13012006c इदमंतरमित्येव शक्रो नृपममोहयत्।।

कॆलवु समयद नंतर नृपनु बेटॆगागि तिरुगाडुत्तिद्दाग इदे समयवॆंदु तिळिद शक्रनु नृपनन्नु विमोहगॊळिसिदनु.

13012007a एकाश्वेन च राजर्षिर्भ्रांत इंद्रेण मोहितः।
13012007c न दिशोऽविंदत नृपः क्षुत्पिपासार्दितस्तदा।।

इंद्रनिंद मोहितनागि भ्रांतिगॊळगाद राजर्षियु ऒब्बने कुदुरॆय मेलॆ कुळितु याव दिक्किनल्लि होगुत्तिद्दानॆंदु तिळियदे अलॆदाडतॊडगिदनु. आग अवनु हसिवु-बायारिकॆगळिंद बळलिदनु.

13012008a इतश्चेतश्च वै धावन्श्रमतृष्णार्दितो नृपः।
13012008c सरोऽपश्यत्सुरुचिरं पूर्णं परमवारिणा।

इल्लिंदल्लिगॆ ओडाडुत्ता श्रम-बायरिकॆगळिंद बळलिद नृपनु शुद्ध नीरिनिंद तुंबिद्द सुंदर सरोवरवॊंदन्नु कंडनु.

13012008e सोऽवगाह्य सरस्तात पाययामास वाजिनम्।।
13012009a अथ पीतोदकं सोऽश्वं वृक्षे बद्ध्वा नृपोत्तमः।
13012009c अवगाह्य ततः स्नातो राजा स्त्रीत्वमवाप ह।।

मगू! आ नृपोत्तमनु कुदुरॆय मैतॊळॆदु नीरु कुडिसि कुदुरॆयन्नु ऒंदु मरक्कॆ कट्टि, तानू आ कॊळदल्लि मुळुगि स्नानमाडिदनु. कूडले आ राजनु स्त्रीयादनु.

13012010a आत्मानं स्त्रीकृतं दृष्ट्वा व्रीडितो नृपसत्तमः।
13012010c चिंतानुगतसर्वात्मा व्याकुलेंद्रियचेतनः।।

तानु स्त्रीयादुदन्नु नोडि नाचिकॊंड आ सर्वात्मा नृपसत्तमनु चिंतानुगतनादनु. अवन इंद्रिय-चेतनगळु व्याकुलगॊंडवु.

13012011a आरोहिष्ये कथं त्वश्वं कथं यास्यामि वै पुरम्।
13012011c अग्निष्टुं नाम इष्टं मे पुत्राणां शतमौरसम्।।

“कुदुरॆयन्नु हेगॆ एरबल्लॆ? पुरक्कॆ हेगॆ होगबल्लॆ? अग्निष्टुवॆंब यागदिंद ननगॆ नूरु औरस पुत्ररागिद्दारॆ.

13012012a जातं महाबलानां वै तान्प्रवक्ष्यामि किं त्वहम्।
13012012c दारेषु चास्मदीयेषु पौरजानपदेषु च।।

होगि आ महाबलरिगॆ नानु एनॆंदु हेळलि? पत्नि, नन्नवरु मत्तु पौर-जानपददवरिगॆ एनु हेळलि?

13012013a मृदुत्वं च तनुत्वं च विक्लवत्वं तथैव च।
13012013c स्त्रीगुणा ऋषिभिः प्रोक्ता धर्मतत्त्वार्थदर्शिभिः।
13012013e व्यायामः कर्कशत्वं च वीर्यं च पुरुषे गुणाः।।

धर्मतत्वार्थदर्शि ऋषिगळु मृदुत्व, कृशत्व मत्तु चंचलतॆगळु स्त्रीयर गुणगळॆंदू व्यायाम, कर्कशत्व मत्तु वीर्यगळु पुरुषन गुणगळॆंदू हेळिद्दारॆ.

13012014a पौरुषं विप्रनष्टं मे स्त्रीत्वं केनापि मेऽभवत्।
13012014c स्त्रीभावात्कथमश्वं तु पुनरारोढुमुत्सहे।।

यावुदो कारणदिंद पुरुषत्ववु नष्टवागि ननगॆ स्त्रीत्ववु प्राप्तवागिदॆ. स्त्रीयागिरुव नानु हेगॆ ई कुदुरॆयन्नु पुनः एरबल्लॆनु?”

13012015a महता त्वथ खेदेन आरुह्याश्वं नराधिपः।
13012015c पुनरायात्पुरं तात स्त्रीभूतो नृपसत्तम।।

मगू! नृपसत्तम! स्त्रीयागिद्द आ नराधिपनु महाखेददिंद पुनः कुदुरॆयन्नेरि तन्न पुरक्कॆ आगमिसिदनु.

13012016a पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च पौरजानपदाश्च ते।
13012016c किं न्विदं त्विति विज्ञाय विस्मयं परमं गताः।।

अवन पुत्ररु, पत्नियरु, सेवकरु मत्तु पौर-जानपद जनरु “इदेनायितु?” ऎंदु तिळियदे परम विस्मितरादरु.

13012017a अथोवाच स राजर्षिः स्त्रीभूतो वदतां वरः।
13012017c मृगयामस्मि निर्यातो बलैः परिवृतो दृढम्।
13012017e उद्भ्रांतः प्राविशं घोरामटवीं दैवमोहितः।।

स्त्रीयागिद्द आ मातनाडुववरल्लि श्रेष्ठ राजर्षियु हेळिदनु: “दृढ सेनॆयिंद सुत्तुवरॆयल्पट्ट नानु बेटॆगॆंदु हॊरटॆ. दैवमोहितनागि नानु घोर अरण्यवन्नु प्रवेशिसि भ्रांतनादॆनु.

13012018a अटव्यां च सुघोरायां तृष्णार्तो नष्टचेतनः।
13012018c सरः सुरुचिरप्रख्यमपश्यं पक्षिभिर्वृतम्।।

आ घोर अरण्यदल्लि बायारिकॆयिंद पीडितनागि चेतनवन्ने कळॆदुकॊंडिद्द नानु पक्षिगळिंद तुंबिद्द सुंदर सरोवरवॊंदन्नु कंडॆनु.

13012019a तत्रावगाढः स्त्रीभूतो व्यक्तं दैवान्न संशयः।
13012019c अतृप्त इव पुत्राणां दाराणां च धनस्य च।।

अदरल्लि मुळुगिदॊडनॆये नानु स्त्रीयादॆनु. इदु दैववॆंदे व्यक्तवागुत्तदॆ. इदरल्लि संशयविल्ल.” आग अवन पुत्ररु, पत्नियरु मत्तु जनरु अवन वरदियिंद अतृप्तरादवरंतॆ तोरिदरु.

13012020a उवाच पुत्रांश्च ततः स्त्रीभूतः पार्थिवोत्तमः।
13012020c संप्रीत्या भुज्यतां राज्यं वनं यास्यामि पुत्रकाः।
13012020e अभिषिच्य स पुत्राणां शतं राजा वनं गतः।।

आग स्त्रीयागिद्द पार्थिवोत्तमनु “पुत्ररे! संतोषदिंद राज्यवन्नु भोगिसि. नानु वनक्कॆ तॆरळुत्तेनॆ!” ऎंदु पुत्ररिगॆ हेळिदनु. तन्न नूरु पुत्ररन्नु राज्यदल्लि अभिषेकिसि राजनु वनवन्नु सेरिदनु.

13012021a तामाश्रमे स्त्रियं तात तापसोऽभ्यवपद्यत।
13012021c तापसेनास्य पुत्राणामाश्रमेऽप्यभवच्चतम्।।

मगू! आ स्त्रीयु तपस्वियोर्वन आश्रमक्कॆ होगि अल्लिये इरतॊडगिदळु. तापसियिंद अवळु आ आश्रमदल्लियू नूरु पुत्ररन्नु पडॆदळु.

13012022a अथ सा तान्सुतान्गृह्य पूर्वपुत्रानभाषत।
13012022c पुरुषत्वे सुता यूयं स्त्रीत्वे चेमे शतं सुताः।।

अवळु आ मक्कळन्नु करॆदुकॊंडु होगि मॊदले तनगॆ हुट्टिद्द पुत्ररिगॆ हेळिदळु: “नानु पुरुषनागिद्दाग ननगॆ हुट्टिद मक्कळु नीवु. ई नूरु मक्कळु नानु स्त्रीयागिरुवाग हुट्टिरुववरु.

13012023a एकत्र भुज्यतां राज्यं भ्रातृभावेन पुत्रकाः।
13012023c सहिता भ्रातरस्तेऽथ राज्यं बुभुजिरे तदा।।

मक्कळे! ऒंदागि भ्रातृभावदिंद राज्यवन्नु भोगिसि!” अनंतर आ सहोदररॆल्लरू ऒंदागि राज्यवन्नु भोगिसिदरु.

13012024a तान्दृष्ट्वा भ्रातृभावेन भुंजानान्राज्यमुत्तमम्।
13012024c चिंतयामास देवेंद्रो मन्युनाभिपरिप्लुतः।
13012024e उपकारोऽस्य राजर्षेः कृतो नापकृतं मया।।

भ्रातृभावदिंद उत्तमवाद राज्यवन्नु भोगिसुत्तिद्द अवरन्नु नोडि कोपदिंद आवेशगॊंड देवेंद्रनु “नानु ई राजर्षिगॆ उपकारवन्नॆसगिद्देनॆये विनः नानु माडिदुदरिंद इवनिगॆ अपकारवेनू आगलिल्लवल्ल!” ऎंदु चिंतिसिदनु.

13012025a ततो ब्राह्मणरूपेण देवराजः शतक्रतुः।
13012025c भेदयामास तान्गत्वा नगरं वै नृपात्मजान्।।

आग शत्रक्रतु देवराजनु ब्राह्मणरूपदल्लि आ नगरक्कॆ होगि नृपात्मजरल्लि भेदवन्नुंटुमाडतॊडगिदनु.

13012026a भ्रातॄणां नास्ति सौभ्रात्रं येऽप्येकस्य पितुः सुताः।
13012026c राज्यहेतोर्विवदिताः कश्यपस्य सुरासुराः।।

“ऒंदे तंदॆय मक्कळादरू भ्रातृगळल्लि सौभ्रातृत्ववु इरुवुदिल्ल. कश्यपन मक्कळाद सुरासुररु राज्यद कारणक्कागि कलहमाडुत्तले इद्दारॆ!

13012027a यूयं भंगाश्वनापत्यास्तापसस्येतरे सुताः।
13012027c कश्यपस्य सुराश्चैव असुराश्च सुतास्तथा।
13012027e युष्माकं पैतृकं राज्यं भुज्यते तापसात्मजैः।।

नीवादरो भंगाश्वनन मक्कळु. इतररु तापसिय मक्कळु. सुररू मत्तु असुररू कश्यपनदे मक्कळु. निम्म तंदॆय राज्यवन्नु नीवु तापसिय मक्कळॊंदिगॆ भोगिसुत्तिद्दीरि!”

13012028a इंद्रेण भेदितास्ते तु युद्धेऽन्योन्यमपातयन्।
13012028c तच्च्रुत्वा तापसी चापि संतप्ता प्ररुरोद ह।।

इंद्रनिंद हीगॆ भेदितराद अवरु युद्धदल्लि अन्योन्यरन्नु कॆळगुरुळिसिदरु. अतन्नु केळिद तापसियु संतप्तळागि रोदिसिदळु.

13012029a ब्राह्मणच्चद्मनाभ्येत्य तामिंद्रोऽथान्वपृच्चत।
13012029c केन दुःखेन संतप्ता रोदिषि त्वं वरानने।।

आग ब्राह्मणन वेशदल्लिद्द इंद्रनु अवळ बळिसारि “वरानने! याव दुःखदिंद संतप्तळागि नीनु रोदिसुत्तिरुवॆ?” ऎंदु केळिदनु.

13012030a ब्राह्मणं तु ततो दृष्ट्वा सा स्त्री करुणमब्रवीत्।
13012030c पुत्राणां द्वे शते ब्रह्मन्कालेन विनिपातिते।।

करुणॆयिंदिद्द आ ब्राह्मणनन्नु नोडि स्त्रीयु हेळिदळु: “ब्रह्मन्! कालवु नन्न ई इन्नूरु मक्कळन्नु नाशमाडिबिट्टितु!

13012031a अहं राजाभवं विप्र तत्र पुत्रशतं मया।
13012031c समुत्पन्नं सुरूपाणां विक्रांतानां द्विजोत्तम।।

द्विजोत्तम! नानु राजनागिद्दॆ. आग ननगॆ नूरु सुंदर विक्रांत मक्कळु जनिसिदरु.

13012032a कदा चिन्मृगयां यात उद्भ्रांतो गहने वने।
13012032c अवगाढश्च सरसि स्त्रीभूतो ब्राह्मणोत्तम।
13012032e पुत्रान्राज्ये प्रतिष्ठाप्य वनमस्मि ततो गतः।।

ब्राह्मणोत्तम! ऒम्मॆ बेटॆगॆंदु होदाग नानु गहन वनदल्लि तिरुगाडुत्तिद्दाग सरोवरवॊंदरल्लि मुळुगलु स्त्रीयादॆनु. अनंतर पुत्ररन्नु राज्यदल्लि प्रतिष्ठापिसि वनक्कॆ तॆरळिदॆनु.

13012033a स्त्रियाश्च मे पुत्रशतं तापसेन महात्मना।
13012033c आश्रमे जनितं ब्रह्मन्नीतास्ते नगरं मया।।

ब्रह्मन्! स्त्रीयागिद्द ननगॆ महात्म तापसनिंद नूरु पुत्ररु जनिसिदरु. आश्रमदल्लि जनिसिद अवरन्नु नगरक्कॆ करॆदुकॊंडु होदॆ.

13012034a तेषां च वैरमुत्पन्नं कालयोगेन वै द्विज।
13012034c एतश्चोचामि विप्रेंद्र दैवेनाभिपरिप्लुता।।

द्विज! विप्रेंद्र! कालयोगदिंद अवरल्लि वैरत्ववुंटायितु. दैवदिंदुंटाद ई दुःखदल्लि मुळुगिहोगिद्देनॆ!”

13012035a इंद्रस्तां दुःखितां दृष्ट्वा अब्रवीत्परुषं वचः।
13012035c पुरा सुदुःसहं भद्रे मम दुःखं त्वया कृतम्।।

दुःखितळागिद्द अवळन्नु नोडि इंद्रनु कठोरवाद ई मातन्नाडिदनु: “भद्रे! हिंदॆ नीनु ननगॆ सहिसलसाध्य दुःखवन्नुंटु माडिद्दॆ!

13012036a इंद्रद्विष्टेन यजता मामनादृत्य दुर्मते।
13012036c इंद्रोऽहमस्मि दुर्बुद्धे वैरं ते यातितं मया।।

दुर्मते! इंद्रनिगॆ विरुद्धवाद यज्ञवन्नु याजिसि नन्नन्नु अनादरिसिदॆ. दुर्बुद्धे! नानु इंद्र! निन्न मेलिन नन्न वैरवन्नु तीरिसिकॊंडॆ!”

13012037a इंद्रं तु दृष्ट्वा राजर्षिः पादयोः शिरसा गतः।
13012037c प्रसीद त्रिदशश्रेष्ठ पुत्रकामेन स क्रतुः।
13012037e इष्टस्त्रिदशशार्दूल तत्र मे क्षंतुमर्हसि।।

इंद्रनन्नु नोडि राजर्षियु अवन पादगळिगॆ शिरवन्निट्टु “त्रिदशश्रेष्ठ! प्रसीदनागु! पुत्रकामनागि आ क्रतुवन्नु माडिदॆनु. त्रिदशशार्दूल! आ यागमाडिदुदक्कॆ नन्नन्नु क्षमिसबेकु!”

13012038a प्रणिपातेन तस्येंद्रः परितुष्टो वरं ददौ।
13012038c पुत्रा वै कतमे राजन्जीवंतु तव शंस मे।
13012038e स्त्रीभूतस्य हि ये जाताः पुरुषस्याथ येऽभवन्।।

कालिगॆ बिद्द अवन मेलॆ परितुष्टनाद इंद्रनु अवनिगॆ वरवन्नित्तनु: “राजन्! निन्न याव मक्कळु जीवितगॊळ्ळबेकॆन्नुवुदन्नु हेळु. स्त्रीयागिद्दाग निनगाद मक्कळो अथवा पुरुषनागिद्दाग आद मक्कळो?”

13012039a तापसी तु ततः शक्रमुवाच प्रयतांजलिः।
13012039c स्त्रीभूतस्य हि ये जातास्ते मे जीवंतु वासव।।

आग कैमुगिदु तलॆबागि तापसियु शक्रनिगॆ हेळिदळु: “वासव! स्त्रीयागिद्दाग हुट्टिद नन्न मक्कळु जीवितगॊळ्ळलि!”

13012040a इंद्रस्तु विस्मितो हृष्टः स्त्रियं पप्रच्च तां पुनः।
13012040c पुरुषोत्पादिता ये ते कथं द्वेष्याः सुतास्तव।।

हृष्ट इंद्रनादरो विस्मितनागि आ स्त्रीयन्नु पुनः केळिदनु: “पुरुषनागि हुट्टिद आ निन्न मक्कळ मेलॆ निनगॆ हेगॆ द्वेषवुंटायितु?

13012041a स्त्रीभूतस्य हि ये जाताः स्नेहस्तेभ्योऽधिकः कथम्।
13012041c कारणं श्रोतुमिच्चामि तन्मे वक्तुमिहार्हसि।।

स्त्रीयागिद्दाग निनगॆ हुट्टिद मक्कळ मेलॆ अधिक स्नेहवु हेगायितु? इदर कारणवन्नु केळलु बयसुत्तेनॆ. अदन्नु हेळबेकु.”

13012042 स्त्र्युवाच।
13012042a स्त्रियास्त्वभ्यधिकः स्नेहो न तथा पुरुषस्य वै।
13012042c तस्मात्ते शक्र जीवंतु ये जाताः स्त्रीकृतस्य वै।।

स्त्रीयु हेळिदळु: “पुरुषनिगिंतलू स्त्रीगॆ तन्न मक्कळ मेलॆ अधिक स्नेहविरुत्तदॆ. आदुदरिंद शक्र! नानु स्त्रीयागिद्दाग हुट्टिद मक्कळु बदुकिकॊळ्ळलि!””

13012043 भीष्म उवाच।
13012043a एवमुक्ते ततस्त्विंद्रः प्रीतो वाक्यमुवाच ह।
13012043c सर्व एवेह जीवंतु पुत्रास्ते सत्यवादिनि।।

भीष्मनु हेळिदनु: “अवळु हीगॆ हेळलु प्रीतनाद इंद्रनु इंतॆंदनु: “सत्यवादिनि! निन्न ऎल्ल मक्कळू बदुकलि!

13012044a वरं च वृणु राजेंद्र यं त्वमिच्चसि सुव्रत।
13012044c पुरुषत्वमथ स्त्रीत्वं मत्तो यदभिकांक्षसि।।

राजेंद्र! सुव्रत! वरवन्नु केळिको! पुरुषत्व अथवा स्त्रीत्व यावुदन्नु बयसुत्तीयॆ?”

13012045 स्त्र्युवाच।
13012045a स्त्रीत्वमेव वृणे शक्र प्रसन्ने त्वयि वासव।।

स्त्रीयु हेळिदळु: “वासव! शक्र! नीनु प्रसन्ननादरॆ स्त्रीत्ववन्ने केळिकॊळ्ळुत्तेनॆ.”

13012046a एवमुक्तस्तु देवेंद्रस्तां स्त्रियं प्रत्युवाच ह।
13012046c पुरुषत्वं कथं त्यक्त्वा स्त्रीत्वं रोचयसे विभो।।

इदन्नु केळिद देवेंद्रनु आ स्त्रीगॆ पुनः हेळिदनु: “विभो! पुरुषत्ववन्नु त्यजिसि स्त्रीत्ववन्नु एकॆ इच्छिसुवॆ?”

13012047a एवमुक्तः प्रत्युवाच स्त्रीभूतो राजसत्तमः।
13012047c स्त्रियाः पुरुषसंयोगे प्रीतिरभ्यधिका सदा।
13012047e एतस्मात्कारणाच्चक्र स्त्रीत्वमेव वृणोम्यहम्।।

इदन्नु केळिद स्त्रीयागिद्द राजसत्तमनु उत्तरिसिदनु: “पुरुषसंयोगदिंद सदा स्त्रीगे अधिक संतोषवागुत्तदॆ. शक्र! ई कारणदिंदले नानु स्त्रीत्ववन्नु केळिकॊळ्ळुत्तिद्देनॆ.

13012048a रमे चैवाधिकं स्त्रीत्वे सत्यं वै देवसत्तम।
13012048c स्त्रीभावेन हि तुष्टोऽस्मि गम्यतां त्रिदशाधिप।।

देवसत्तम! त्रिदशाधिप! स्त्रीयागिये नानु अधिकवागि रमिसिद्देनॆ. सत्यवन्नु हेळुत्तिद्देनॆ. स्त्रीभावदिंदले तुष्टनागिद्देनॆ. नीनिन्नु होगबहुदु.”

13012049a एवमस्त्विति चोक्त्वा तामापृच्च्य त्रिदिवं गतः।
13012049c एवं स्त्रिया महाराज अधिका प्रीतिरुच्यते।।

अवळ आ मातन्नु केळि “हागॆये आगलि!” ऎंदु हेळि इंद्रनु त्रिदिवक्कॆ तॆरळिदनु. महाराज! हीगॆ स्त्रीगे अधिक सुखवुंटागुत्तदॆ ऎंदु हेळुत्तारॆ.”

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि भंगस्वनोपाख्याने द्वादशोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि अनुशासनपर्वदल्लि दानधर्मपर्वदल्लि भंगस्वनोपाख्यान ऎन्नुव हन्नॆरडने अध्यायवु.