352: उंचवृत्युपाख्यानः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शांति पर्व

मोक्षधर्म पर्व

अध्याय 352

सार

ब्राह्मणनु नागराजनॊंदिगॆ मातनाडि उंछवृत्तिय व्रतवन्नु कैगॊळ्ळलु निश्चयिसि तन्न मनॆगॆ तॆरळलु नागराजन अप्पणॆयन्नु केळिदुदु (1-10).

12352001 ब्राह्मण उवाच।
12352001a आश्चर्यं नात्र संदेहः सुप्रीतोऽस्मि भुजंगम।
12352001c अन्वर्थोपगतैर्वाक्यैः पंथानं चास्मि दर्शितः।।

ब्राह्मणनु हेळिदनु: “भुजंगम! इदु आश्चर्यवॆन्नुवुदरल्लि संदेहवेनू इल्ल. सुप्रीतनागिद्देनॆ. अन्वर्थ मातुगळिंद नीनु ननगॆ मार्गवन्नु तोरिसिकॊट्टिरुवॆ!

12352002a स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि साधो भुजगसत्तम।
12352002c स्मरणीयोऽस्मि भवता संप्रेषणनियोजनैः।।

साधो! भुजगसत्तम! निनगॆ मंगळवागलि! नानु हॊरडुत्तेनॆ. नन्नन्नु ऎल्लियादरू कळुहिसबेकागि बंदरॆ अथवा यावुदादरू कॆलसवन्नु ननगॆ नियोजिसबेकागि बंदरॆ नीनु नन्नन्नु स्मरिसिकॊळ्ळबेकु.”

12352003 नाग उवाच।
12352003a अनुक्त्वा मद्गतं कार्यं क्वेदानीं प्रस्थितो भवान्।
12352003c उच्यतां द्विज यत्कार्यं यदर्थं त्वमिहागतः।।

नागनु हेळिदनु: “द्विज! नन्नल्लिरुव कार्यवन्नु हेळदॆये नीनु ऎल्लिगॆ होगुत्तिरुवॆ? याव कार्यक्कागि मत्तु याव उद्देशदिंद नीनु इल्लिगॆ बंदिरुवॆ ऎन्नुवुदन्नु हेळबेकु.

12352004a उक्तानुक्ते कृते कार्ये मामामंत्र्य द्विजर्षभ।
12352004c मया प्रत्यभ्यनुज्ञातस्ततो यास्यसि ब्राह्मण।।

द्विजर्षभ! ब्राह्मण! नीनु हेळु अथवा हेळदॆये इरु. आदरॆ कार्यवु मुगिदनंतर नन्नन्नु केळि नन्न अनुमतियन्नु पडॆदे नीनु इल्लिंद हॊरडबेकु.

12352005a न हि मां केवलं दृष्ट्वा त्यक्त्वा प्रणयवानिह।
12352005c गंतुमर्हसि विप्रर्षे वृक्षमूलगतो यथा।।

विप्रर्षे! नन्न मेलॆ प्रीतियन्नु हॊंदिरुव नीनु मरद बुडदल्लिये कुळितु हॊरटुहोगुव दारिहोकनंतॆ नन्नन्नु सुम्मन्ने संदर्शिसि हॊरटुहोगुवुदु सरियल्ल.

12352006a त्वयि चाहं द्विजश्रेष्ठ भवान्मयि न संशयः।
12352006c लोकोऽयं भवतः सर्वः का चिंता मयि तेऽनघ।।

द्विजश्रेष्ठ! अनघ! नीनु नन्नल्लि मत्तु नीनु नन्नल्लि इद्दीयॆ ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल. ई लोकवॆल्लवू निन्नदे आगिरुवाग नन्न मनॆयल्लिये इरलु निनगॆ याव चिंतॆयिदॆ?”

12352007 ब्राह्मण उवाच।
12352007a एवमेतन्महाप्राज्ञ विज्ञातार्थ भुजंगम।
12352007c नातिरिक्तास्त्वया देवाः सर्वथैव यथातथम्।।

ब्राह्मणनु हेळिदनु: “महाप्राज्ञ! भुजंगम! नीनु हेळिदंतॆये आगलि. देवतॆगळू निन्नन्नु मीरलाररु. ई मातु सर्वथा यथार्हवादुदु.

12352008a य एवाहं स एव त्वमेवमेतद् भुजंगम1
12352008c अहं भवांश्च भूतानि सर्वे सर्वत्रगाः सदा।।

भुजंगम! नानु यारो अवनु नीनू आगिरुवॆ. नानु, नीनु मत्तु सर्व भूतगळू सदा सर्वत्र संचरिसुत्तिरुत्तेवॆ.

12352009a आसीत्तु मे भोगपते संशयः पुण्यसंचये।
12352009c सोऽहमुंचव्रतं साधो चरिष्याम्यर्थदर्शनम्।।

भोगपते! पुण्यसंचयद कुरितु ननगॆ संशयविद्दितु. साधो! नन्न गुरियन्नु काणलु नानु उंचव्रतवन्नु आचरिसुत्तेनॆ.

12352010a एष मे निश्चयः साधो कृतः कारणवत्तरः।
12352010c आमंत्रयामि भद्रं ते कृतार्थोऽस्मि भुजंगम।।

साधो! भुजंगम! इदु नन्न निश्चयवु. नानु उद्देशिसिद कार्यवु मुगियितु. निनगॆ मंगळवागलि. कृतार्थनागिद्देनॆ. हॊरडलु अनुमतियन्नु नीडु.””

समाप्ति इति श्रीमहाभारते शांति पर्वणि मोक्षधर्म पर्वणि उंचवृत्युपाख्याने द्विपंचाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। इदु श्रीमहाभारतदल्लि शांति पर्वदल्लि मोक्षधर्म पर्वदल्लि उंचवृत्युपाख्यान ऎन्नुव मुन्नूराऐवत्तॆरडने अध्यायवु.

  1. स एव त्वं स एवाहं योऽहं स तु भवानपि। (भारतदर्शन). ↩︎