338: द्वैपायनोत्पत्तिः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शांति पर्व

मोक्षधर्म पर्व

अध्याय 338

सार

वैजयंत पर्वतद मेलॆ पुरुषन कुरितु ब्रह्म-रुद्रर संवाद (1-25).

12338001 जनमेजय उवाच।
12338001a बहवः पुरुषा ब्रह्मन्नुताहो एक एव तु।
12338001c को ह्यत्र पुरुषः श्रेष्ठः को वा योनिरिहोच्यते।।

जनमेजयनु हेळिदनु: “ब्रह्मन्! पुरुषरु अनेकरिरुवरे? अथवा ऒब्बने इरुवने? अनेकरिरुवुदादरॆ ऎल्लरिगिंतलू श्रेष्ठनाद मत्तु ऎल्लवक्कू उत्पत्तिस्थाननाद पुरुषनु यारु?”

12338002 वैशंपायन उवाच।
12338002a बहवः पुरुषा लोके सांख्ययोगविचारिणाम्।
12338002c नैतदिच्चंति पुरुषमेकं कुरुकुलोद्वह।।

वैशंपायननु हेळिदनु: “कुरुकुलोद्वह! सांख्य-योगगळ विचारदल्लि लोकदल्लि अनेक पुरुषरिद्दारॆ. अवरु पुरुषनु ऒब्बने ऎन्नुवुदन्नु मन्निसुवुदिल्ल.

12338003a बहूनां पुरुषाणां च यथैका योनिरुच्यते।
12338003c तथा तं पुरुषं विश्वं व्याख्यास्यामि गुणाधिकम्।।
12338004a नमस्कृत्वा तु गुरवे व्यासायामिततेजसे।
12338004c तपोयुक्ताय दांताय वंद्याय परमर्षये।।

अमिततेजस्वि, तपोयुक्त, दांत, वंद्य, परम ऋषि गुरु व्यासनिगॆ नमस्करिसि अनेक पुरुषरिगू यारन्नु ऒब्बने मूलवॆंदु हेळुत्तारो अंतह अधिकगुणगळिरुव विश्वात्म पुरुषनन्नु वर्णिसुत्तेनॆ.

12338005a इदं पुरुषसूक्तं हि सर्ववेदेषु पार्थिव।
12338005c ऋतं सत्यं च विख्यातमृषिसिंहेन चिंतितम्।।

पार्थिव! इदे नारायण ऋषिसिंहनु चिंतिसिद पुरुषसूक्तवु सर्ववेदगळल्लि ऋत मत्तु सत्यवॆंदु विख्यातवागिदॆ.

12338006a उत्सर्गेणापवादेन ऋषिभिः कपिलादिभिः।
12338006c अध्यात्मचिंतामाश्रित्य शास्त्राण्युक्तानि भारत।।

भारत! कपिलने मॊदलाद ऋषिगळु सामान्य मत्तु विशेष शास्त्रगळ हिन्नलॆयल्लि आध्यात्मतत्त्ववन्नु चिंतनॆमाडि अदक्कॆ संबंधिसिदंतॆ अनेक शास्त्रगळन्नु हेळिद्दारॆ.

12338007a समासतस्तु यद्व्यासः पुरुषैकत्वमुक्तवान्।
12338007c तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि प्रसादादमितौजसः।।

आदरॆ नानु निनगॆ पुरुषन एकत्ववु हेगॆ ऎंदु अमितौजस गुरुविन प्रसाददिंद संक्षिप्तवागि हेळुत्तेनॆ.

12338008a अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्।
12338008c ब्रह्मणा सह संवादं त्र्यंबकस्य विशां पते।।

विशांपते! इदक्कॆ संबंधिसिदंतॆ पुरातन इतिहासवाद ब्रह्मनॊंदिगॆ त्र्यंबकन संवादवन्नु उदाहरिसुत्तारॆ.

12338009a क्षीरोदस्य समुद्रस्य मध्ये हाटकसप्रभः।
12338009c वैजयंत इति ख्यातः पर्वतप्रवरो नृप।।

नृप! क्षीरसमुद्रद मध्यॆ सुवर्णप्रभॆयिंद हॊळॆयुत्तिरुव वैजयंतवॆंब ख्यात पर्वतविदॆ.

12338010a तत्राध्यात्मगतिं देव एकाकी प्रविचिंतयन्।
12338010c वैराजसदने नित्यं वैजयंतं निषेवते।।

आध्यात्म गतिय कुरिते चिंतिसुत्तिद्द देव ब्रह्मनु एकाकियागि नित्यवू ब्रह्मलोकदिंद वैजयंत पर्वतक्कॆ बंदु सेविसुत्तिद्दनु.

12338011a अथ तत्रासतस्तस्य चतुर्वक्त्रस्य धीमतः।
12338011c ललाटप्रभवः पुत्रः शिव आगाद्यदृच्चया।
12338011e आकाशेनैव योगीशः पुरा त्रिनयनः प्रभुः।।

हिंदॆ ऒम्मॆ धीमत चतुर्वक्त्रनु अल्लिद्दाग आकाशदल्लि होगुत्तिद्द ललाटदिंद हुट्टिद पुत्र योगीश त्रिनयन प्रभुवु अल्लिगॆ होगलु बयसिदनु.

12338012a ततः खान्निपपाताशु धरणीधरमूर्धनि।
12338012c अग्रतश्चाभवत् प्रीतो ववंदे चापि पादयोः।।

आग आकाशदिंद पर्वतद शिखरद मेलॆ इळिदु रुद्रनु ऎदुरिगिद्दवन पादगळिगॆ प्रीतियिंद वंदिसिदनु.

12338013a तं पादयोर्निपतितं दृष्ट्वा सव्येन पाणिना।
12338013c उत्थापयामास तदा प्रभुरेकः प्रजापतिः।।

पादगळिगॆ बिद्द अवनन्नु नोडि एकैक प्रभु प्रजापतियु तन्न ऎडगैयिंद अवनन्नु मेलॆत्तिदनु.

12338014a उवाच चैनं भगवांश्चिरस्यागतमात्मजम्।
12338014c स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मेऽंतिकम्।।

बहळ समयद नंतर बंदिद्द तन्न पुत्रनिगॆ भगवाननु हेळिदनु: “महाबाहो! निनगॆ स्वागत! नीनु नन्न बळि बंदिरुवुदु ऒळ्ळॆयदे आयितु.

12338015a कच्चित्ते कुशलं पुत्र स्वाध्यायतपसोः सदा।
12338015c नित्यमुग्रतपास्त्वं हि ततः पृच्चामि ते पुनः।।

पुत्र! नीनु कुशलियागिद्दीया? स्वाध्याय तपस्सुगळु चॆन्नागि नडॆयुत्तिवॆये? नीनु नित्यवू उग्र तपस्सिनल्लिये तॊडगिरुत्तीयॆ. आदुदरिंद पुनः केळुत्तिद्देनॆ.”

12338016 रुद्र उवाच।
12338016a त्वत्प्रसादेन भगवन् स्वाध्यायतपसोर्मम।
12338016c कुशलं चाव्ययं चैव सर्वस्य जगतस्तथा।।

रुद्रनु हेळिदनु: “भगवन्! निन्न कृपॆयिंद नन्न स्वाध्याय मत्तु तपस्सुगळु कुशलवागि नडॆयुत्तिवॆ. सर्व जगत्तू अव्ययवागिदॆ.

12338017a चिरदृष्टो हि भगवान् वैराजसदने मया।
12338017c ततोऽहं पर्वतं प्राप्तस्त्विमं त्वत्पादसेवितम्।।

भगवन्! ब्रह्मसदनदल्लि निन्नन्नु नोडि बहळ समयवायितु. आदुदरिंद निन्न पादसेवितवाद ई पर्वतक्कॆ बंदिद्देनॆ.

12338018a कौतूहलं चापि हि मे एकांतगमनेन ते।
12338018c नैतत्कारणमल्पं हि भविष्यति पितामह।।

पितामह! इल्लि नीनु एकांतदल्लिरुवुदन्नु नोडि ननगॆ कुतूहलवू उंटागिदॆ. इदक्कॆ कारणवु अल्पवागिरलिक्किल्ल.

12338019a किं नु तत्सदनं श्रेष्ठं क्षुत्पिपासाविवर्जितम्।
12338019c सुरासुरैरध्युषितमृषिभिश्चामितप्रभैः।।
12338020a गंधर्वैरप्सरोभिश्च सततं संनिषेवितम्।
12338020c उत्सृज्येमं गिरिवरमेकाकी प्राप्तवानसि।।

हसिवु-बायारिकॆगळिंद विवर्जितवागिरुव, सुरासुररिंद मत्तु अमितप्रभॆय ऋषिगळिंद सेवितवागिरुव, सततवू गंधर्व-अप्सरॆयरिंद सेविसल्पडुव आ श्रेष्ठ सदनवन्नु बिट्टु ई गिरिवरक्कॆ एकॆ एकांगियागि बंदिरुवॆ?”

12338021 ब्रह्मोवाच।
12338021a वैजयंतो गिरिवरः सततं सेव्यते मया।
12338021c अत्रैकाग्रेण मनसा पुरुषश्चिंत्यते विराट्।।

ब्रह्मनु हेळिदनु: “नानु ई गिरिवर वैजयंतक्कॆ सततवू बरुत्तिरुत्तेनॆ. इल्लि एकाग्र मनस्सिनिंद विराट् पुरुषनन्नु ध्यानिसुत्तेनॆ.”

12338022 रुद्र उवाच।
12338022a बहवः पुरुषा ब्रह्मंस्त्वया सृष्टाः स्वयंभुवा।
12338022c सृज्यंते चापरे ब्रह्मन्स चैकः पुरुषो विराट्।।
12338023a को ह्यसौ चिंत्यते ब्रह्मंस्त्वया वै पुरुषोत्तमः।
12338023c एतन्मे संशयं ब्रूहि महत्कौतूहलं हि मे।।

रुद्रनु हेळिदनु: “ब्रह्मन्! स्वयंभुवाद नीनु अनेक पुरुषरन्नु सृष्टिसिद्दीयॆ. ब्रह्मन्! इन्नू इतर पुरुषरन्नू सृष्टिसुत्तिरुत्तीयॆ. अवरल्लि विराट् पुरुषनू ऒब्बनागिरबेकु. ब्रह्मन्! नीनु ध्यानिसुत्तिरुव ई पुरुषोत्तमनु यारु? इदर कुरितु नन्नल्लि संशयवू कुतूहलवू उंटागिदॆ. हेळु.”

12338024 ब्रह्मोवाच।
12338024a बहवः पुरुषाः पुत्र ये त्वया समुदाहृताः।
12338024c एवमेतदतिक्रांतं द्रष्टव्यं नैवमित्यपि।

ब्रह्मनु हेळिदनु: “पुत्र! नीनु हेळिदंतॆ नानु अनेक पुरुषरन्नु सृष्टिसिद्देनॆ. आदरॆ अवरन्नु हीगॆ ध्यानद मूलक नोडबेकादुदेनू इल्ल.

12338024e आधारं तु प्रवक्ष्यामि एकस्य पुरुषस्य ते।।
12338025a बहूनां पुरुषाणां स यथैका योनिरुच्यते।

नानु निनगॆ ऎल्लक्कू आधारभूतनागिरुव, अनेक पुरुषरिगू उत्पत्तिस्थाननागिरुव एकमात्र पुरुषन कुरितु हेळुत्तिद्देनॆ.

12338025c तथा तं पुरुषं विश्वं परमं सुमहत्तमम्।
12338025e निर्गुणं निर्गुणा भूत्वा प्रविशंति सनातनम्।।

ऎल्लवू निर्गुणवागि आ विश्व परम महत्तत्त्व निर्गुण सनातन पुरुषनन्नु सेरुत्तवॆ.”

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते शांति पर्वणि मोक्षधर्म पर्वणि द्वैपायनोत्पत्तौ अष्टत्रिंशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि शांति पर्वदल्लि मोक्षधर्म पर्वदल्लि द्वैपायनोत्पत्ति ऎन्नुव मुन्नूरामूवत्तॆंटने अध्यायवु.