प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
शांति पर्व
मोक्षधर्म पर्व
अध्याय 320
सार
शुकनिगॆ परम पद प्राप्ति (1-19); पुत्रशोक पीडितनाद व्यासनिगॆ महादेवनिंद समाधान (20-41).
12320001 भीष्म उवाच।
12320001a इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्मर्षिः सुमहातपाः।
12320001c प्रातिष्ठत शुकः सिद्धिं हित्वा लोकांश्चतुर्विधान्।।
12320002a तमो ह्यष्टविधं हित्वा जहौ पंचविधं रजः।
12320002c ततः सत्त्वं जहौ धीमांस्तदद्भुतमिवाभवत्।।
भीष्मनु हेळिदनु: “ई मातन्नु हेळि सुमहातपस्वी ब्रह्मर्षियु मुंदुवरिदनु. धीमंत शुकनु नाल्कु विधद लोकगळन्नू, ऎंटु विधद तमोगुणवन्नू, ऐदु विधद रजोगुणवन्नू त्यजिसि नंतरद सत्त्वगुणवन्नू त्यजिसिदनु. अदॊंदु अद्भुतवागित्तु.
12320003a ततस्तस्मिन् पदे नित्ये निर्गुणे लिंगवर्जिते।
12320003c ब्रह्मणि प्रत्यतिष्ठत् स विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।।
अवनु आ नित्य, निर्गुण, लिंगवर्जित ब्रह्मनल्लि हॊगॆयिल्लद अग्नियंतॆ प्रज्वलिसुत्ता निंतुकॊंडनु.
12320004a उल्कापाता दिशां दाहा भूमिकंपस्तथैव च।
12320004c प्रादुर्भूताः क्षणे तस्मिंस्तदद्भुतमिवाभवत्।।
आ अद्भुतवु नडॆयलु क्षणदल्लिये उल्कापातगळु दिक्कुगळन्नु बॆळगिदवु. भूमियु कंपिसितु.
12320005a द्रुमाः शाखाश्च मुमुचुः शिखराणि च पर्वताः।
12320005c निर्घातशब्दैश्च गिरिर्हिमवान् दीर्यतीव ह।।
मरगळिंद शाखॆगळु तुंडादवु. पर्वतगळु शिखरगळन्नु कळॆदुकॊंडवु. हिमवंतन गिरियु सीळुत्तिदॆयो ऎंबंतॆ निर्घात शब्दगळादवु.
12320006a न बभासे सहस्रांशुर्न जज्वाल च पावकः।
12320006c ह्रदाश्च सरितश्चैव चुक्षुभुः सागरास्तथा।।
सहस्रांशुवु बॆळगलिल्ल. पावकनु प्रज्वलिसलिल्ल. सरोवरगळू, नदिगळू, मत्तु सागरगळू उक्कि बंदवु.
12320007a ववर्ष वासवस्तोयं रसवच्च सुगंधि च।
12320007c ववौ समीरणश्चापि दिव्यगंधवहः शुचिः।।
वासवनु सुगंधयुक्तवाद मत्तु रसवत्ताद मळॆयन्नु सुरिसिदनु. वायुवू कूड शुचियाद दिव्यगंधवन्नु हॊत्तु बीसिदनु.
12320008a स शृंगेऽप्रतिमे दिव्ये हिमवन्मेरुसंभवे।
12320008c संश्लिष्टे श्वेतपीते द्वे रुक्मरूप्यमये शुभे।।
12320009a शतयोजनविस्तारे तिर्यगूर्ध्वं च भारत।
12320009c उदीचीं दिशमाश्रित्य रुचिरे संददर्श ह।।
भारत! उत्तरद दिशॆयल्लि होगुत्तिद्द अवनु दिव्य हिमवत् मत्तु मेरुपर्वतगळ अप्रतिम बॆळ्ळिय बिळि मत्तु बंगारद हॊंबण्णद शुभ शृंगगळु ऒंदक्कॊंदु तागिकॊंडिरुव सुंदर दृश्यवन्नु नोडिदनु.
12320010a सोऽविशंकेन मनसा तथैवाभ्यपतच्चुकः।
12320010c ततः पर्वतशृंगे द्वे सहसैव द्विधाकृते।
12320010e अदृश्येतां महाराज तदद्भुतमिवाभवत्।।
महाराज! शुकनु याव शंकॆयू इल्लदे आ शिखरगळन्नु एरिदनु. आग कूडले आ पर्वत शिखरगळु ऎरडु भागगळागि सीळि होदवु. अदॊंदु अद्भुतवागि तोरितु.
12320011a ततः पर्वतशृंगाभ्यां सहसैव विनिःसृतः।
12320011c न च प्रतिजघानास्य स गतिं पर्वतोत्तमः।।
आग कूडले अवनु आ ऎरडु पर्वतशृंगगळ मध्यदिंद हॊरबंदनु. मुंदॆ होगुत्तिद्द शुकन मार्गवन्नु आ पर्वतोत्तमनु मत्तॆ तडॆयलिल्ल.
12320012a ततो महानभूच्चब्दो दिवि सर्वदिवौकसाम्।
12320012c गंधर्वाणामृषीणां च ये च शैलनिवासिनः।।
आग दिवियल्लि सर्वदिवौकसरू गंधर्व-ऋषिगळू मत्तु आ शैलनिवासिगळू महा हर्षोद्गार माडिदरु.
12320013a दृष्ट्वा शुकमतिक्रांतं पर्वतं च द्विधाकृतम्।
12320013c साधु साध्विति तत्रासीन्नादः सर्वत्र भारत।।
भारत! ऎरडागि सीळिहोद पर्वतवन्नु दाटि मुंदॆ होगुत्तिद्द आ शुकनन्नु नोडि “साधु! साधु!” ऎंदु ऎल्लकडॆ नादगळादवु.
12320014a स पूज्यमानो देवैश्च गंधर्वैरृषिभिस्तथा।
12320014c यक्षराक्षससंघैश्च विद्याधरगणैस्तथा।।
देवतॆगळु, गंधर्वरु, ऋषिगळु, यक्ष-राक्षस संघगळु मत्तु विद्याधरगणगळु अवनन्नु पूजिसिदरु.
12320015a दिव्यैः पुष्पैः समाकीर्णमंतरिक्षं समंततः।
12320015c आसीत्किल महाराज शुकाभिपतने तदा।।
महाराज! शुकनु मेलॆ होगुत्तिद्दाग अंतरिक्षद ऎल्लकडॆ दिव्य पुष्पगळु हरडिहोगिद्दवु.
12320016a ततो मंदाकिनीं रम्यामुपरिष्टादभिव्रजन्।
12320016c शुको ददर्श धर्मात्मा पुष्पितद्रुमकाननाम्।।
मेलु मेलक्कॆ होगुत्तिद्दाग धर्मात्म शुकनु पुष्पित वृक्ष-काननगळिंद कूडिद्द रम्यवाद मंदाकिनी नदियन्नु नोडिदनु.
12320017a तस्यां क्रीडंत्यभिरताः स्नांति चैवाप्सरोगणाः।
12320017c शून्याकारं निराकाराः शुकं दृष्ट्वा विवाससः।।
अदरल्लि जलक्रीडॆयन्नाडुत्तिद्द अप्सरगणगळु नग्नरागिद्दरू शून्याकार निराकार शुकनन्नु नोडि यावरीतिय विकारवन्नू हॊंदलिल्ल.
12320018a तं प्रक्रमंतमाज्ञाय पिता स्नेहसमन्वितः।
12320018c उत्तमां गतिमास्थाय पृष्ठतोऽनुससार ह।।
हीगॆ शुकनु उत्तम मार्गदल्लि हॊरटुहोदुदन्नु तिळिद अवन पित व्यासनु स्नेहसमन्वितनागि अवनन्नु हिंबालिसि होदनु.
12320019a शुकस्तु मारुतादूर्ध्वं गतिं कृत्वांतरिक्षगाम्।
12320019c दर्शयित्वा प्रभावं स्वं सर्वभूतोऽभवत्तदा।।
अष्टरल्लि शुकनादरो वायुमंडलदिंदलू मेलिन अंतरिक्षगर मार्गवन्नु आश्रयिसि तन्न प्रभाववन्नु प्रदर्शिसि सर्वभूतनादनु.
12320020a महायोगगतिं त्वग्र्यां व्यासोत्थाय महातपाः।
12320020c निमेषांतरमात्रेण शुकाभिपतनं ययौ।।
महातपस्वी व्यासनु महायोगगतियन्नु आश्रयिसि निमिषमात्रदल्लि शुकाभिपतनद स्थळवन्नु तलुपिदनु.
12320021a स ददर्श द्विधा कृत्वा पर्वताग्रं शुकं गतम्।
12320021c शशंसुरृषयस्तस्मै कर्म पुत्रस्य तत्तदा।।
पर्वताग्रवन्नु ऎरडागि सीळि शुकनु होगिद्द आ स्थळवन्नु अवनु नोडिदनु. आग ऋषिगळु अवन पुत्रन आ कर्मवन्नु प्रशंसिसुत्तिद्दरु.
12320022a ततः शुकेति दीर्घेण शैक्षेणाक्रंदितस्तदा।
12320022c स्वयं पित्रा स्वरेणोच्चैस्त्रीऽल्लोकाननुनाद्य वै।।
12320023a शुकः सर्वगतो भूत्वा सर्वात्मा सर्वतोमुखः।
12320023c प्रत्यभाषत धर्मात्मा भोःशब्देनानुनादयन्।।
आग अवनु “शुका!” ऎंदु दीर्घस्वरदल्लि कूगिकॊंडनु. तन्न पितुवु उच्छ स्वरदल्लि मूरुलोकगळू केळुवंतॆ हागॆ कूगिकॊळ्ळलु सर्वभूतात्मनागिद्द धर्मात्म शुकनु सर्वात्मनागि सर्वतोमुखनागि “भोः!” ऎंब शब्ददिंद अनुनादिसि उत्तरिसिदनु.
12320024a तत एकाक्षरं नादं भो इत्येव समीरयन्।
12320024c प्रत्याहरज्जगत्सर्वमुच्चैः स्थावरजंगमम्।।
आग भो ऎंब एकाक्षर नाददिंद जगत्तिन ऎल्ल स्थावर-जंगमगळू ऒंदागि गट्टियागि कूगि प्रतिध्वनिसिदवु.
12320025a ततः प्रभृति चाद्यापि शब्दानुच्चारितान् पृथक्।
12320025c गिरिगह्वरपृष्ठेषु व्याजहार शुकं प्रति।।
अंदिनिंद ईगलू कूड गिरिगह्वर पृष्ठगळल्लि शुकन कुरिताद व्यासन कूगन्नू, अदक्कुत्तरवागि शुकन भो शब्धवन्नू मत्तु अल्लुंटाद प्रतिध्वनिगळन्नू प्रत्येक प्रत्येकवागि हेळुत्तारॆ.
12320026a अंतर्हितः प्रभावं तु दर्शयित्वा शुकस्तदा।
12320026c गुणान् संत्यज्य शब्दादीन् पदमध्यगमत् परम्।।
हीगॆ शुकनु तन्न प्रभाववन्नु तोरिसुत्ता शब्दादि गुणगळन्नु परित्यजिसि परमपदद मध्यंगतनादनु.
12320027a महिमानं तु तं दृष्ट्वा पुत्रस्यामिततेजसः।
12320027c निषसाद गिरिप्रस्थे पुत्रमेवानुचिंतयन्।।
अमिततेजस्वी पुत्रन महिमॆयन्नु कंड व्यासनु मगन कुरिते चिंतिसुत्ता गिरिप्रस्थदल्लि कुळितुकॊंडनु.
12320028a ततो मंदाकिनीतीरे क्रीडंतोऽप्सरसां गणाः।
12320028c आसाद्य तमृषिं सर्वाः संभ्रांता गतचेतसः।।
आग मंदाकिनी तीरदल्लि क्रीडिसुत्तिद्द अप्सरगणगळु आ ऋषियन्नु नोडि ऎल्लरू संभ्रांतरागि बुद्धिगॆट्टरु.
12320029a जले निलिल्यिरे काश्चित्काश्चिद्गुल्मान् प्रपेदिरे।
12320029c वसनान्याददुः काश्चिद्दृष्ट्वा तं मुनिसत्तमम्।।
कॆलवरु नीरिनल्लिये अडगिकॊंडरु. कॆलवरु पॊदॆगळल्लि अवितुकॊंडरु. इन्नु कॆलवरु आ मुनिसत्तमनन्नु नोडि वस्त्रगळन्नु हुडुकतॊडगिदरु.
12320030a तां मुक्ततां तु विज्ञाय मुनिः पुत्रस्य वै तदा।
12320030c सक्ततामात्मनश्चैव प्रीतोऽभूद्व्रीडितश्च ह।।
तन्न पुत्रनु मुक्तत्ववन्नु पडॆदुकॊंडनु ऎंदु तिळिद आ मुनियु प्रीतनादनु मत्तु अंतॆये तन्नल्लिरुव आसक्तियन्नु मनगंडु नाचिदनु.
12320031a तं देवगंधर्ववृतो महर्षिगणपूजितः।
12320031c पिनाकहस्तो भगवानभ्यागच्चत शंकरः।।
आग देवगंधर्वरिंद आवृतनागि महर्षिगण पूजितनागि पिनाकहस्त भगवान् शंकरनु अल्लिगॆ आगमिसिदनु.
12320032a तमुवाच महादेवः सांत्वपूर्वमिदं वचः।
12320032c पुत्रशोकाभिसंतप्तं कृष्णद्वैपायनं तदा।।
12320033a अग्नेर्भूमेरपां वायोरंतरिक्षस्य चैव ह।
12320033c वीर्येण सदृशः पुत्रस्त्वया मत्तः पुरा वृतः।।
महादेवनु अवनिगॆ सांत्वपूर्वकवाद ई मातन्नाडिदनु: “हिंदॆ नीनु अग्नि-भूमि-जल-वायु-अंतरिक्षगळ वीर्य समान शक्तियिरुव पुत्रनन्नु नन्नल्लि केळिकॊंडिद्दॆ.
12320034a स तथालक्षणो जातस्तपसा तव संभृतः।
12320034c मम चैव प्रभावेन ब्रह्मतेजोमयः शुचिः।।
निन्न तपस्सिनिंदागि मत्तु नन्न प्रभावदिंदागि निनगॆ अदे लक्षणगळिद्द ब्रह्मतेजोमय शुचि पुत्रनु हुट्टिदनु.
12320035a स गतिं परमां प्राप्तो दुष्प्रापामजितेंद्रियैः।
12320035c दैवतैरपि विप्रर्षे तं त्वं किमनुशोचसि।।
विप्रर्षे! अजितेंद्रियरिगॆ मत्तु देवतॆगळिगू पडॆयलु असाध्यवाद परम गतियन्नु अवनु पडॆदुकॊंडिद्दानॆ. अवन विषयवागि नीनु एकॆ शोकिसुत्तिरुवॆ?
12320036a यावत्स्थास्यंति गिरयो यावत् स्थास्यंति सागराः।
12320036c तावत्तवाक्षया कीर्तिः सपुत्रस्य भविष्यति।।
ऎल्लियवरॆगॆ गिरिगळिरुत्तवॆयो मत्तु ऎल्लियवरॆगॆ सागरगळु इरुत्तवॆयो अल्लियवरॆगॆ पुत्रनॊंदिगॆ निन्न कीर्तियु अक्षयवागिरुत्तदॆ.
12320037a चायां स्वपुत्रसदृशीं सर्वतोऽनपगां सदा।
12320037c द्रक्ष्यसे त्वं च लोकेऽस्मिन्मत्प्रसादान्महामुने।।
महामुने! नन्न प्रसाददिंद नीनु ई लोकदल्लि निन्न पुत्रन सदृशवाद छायॆयन्नु सर्वदा सर्वत्र काणुवॆ. अदु ऎंदू निन्न दृष्टिपथवन्नु बिट्टु होगुवुदिल्ल.”
12320038a सोऽनुनीतो भगवता स्वयं रुद्रेण भारत।
12320038c चायां पश्यन्समावृत्तः स मुनिः परया मुदा।।
भारत! स्वयं भगवंत रुद्रनिंद संतविसल्पट्ट मुनियु ऎल्लॆल्लियू मगन छायॆयन्ने काणुत्ता परम मुददिंद आश्रमक्कॆ हिंदिरुगिदनु.
12320039a इति जन्म गतिश्चैव शुकस्य भरतर्षभ।
12320039c विस्तरेण मयाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्चसि।।
भरतर्षभ! इगो नीनु केळिदंतॆ निनगॆ शुकन जन्म मत्तु गतिगळ कुरितु विस्तारवागि नानु हेळिद्देनॆ.
12320040a एतदाचष्ट मे राजन् देवर्षिर्नारदः पुरा।
12320040c व्यासश्चैव महायोगी संजल्पेषु पदे पदे।।
राजन्! हिंदॆ नारदनु ननगॆ इदन्नु हेळिद्दनु. महायोगि व्यासनू कूड पदे पदे इदर कुरितु हेळुत्तिद्दनु.
12320041a इतिहासमिमं पुण्यं मोक्षधर्मार्थसंहितम्।
12320041c धारयेद्यः शमपरः स गच्चेत् परमां गतिम्।।
मोक्षधर्मार्थसंहितवाद ई पुण्य इतिहासवन्नु शमपरनागि धारणॆमाडिदवनु परम गतियल्लि होगुत्तानॆ.”