प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
शांति पर्व
मोक्षधर्म पर्व
अध्याय 277
सार
अरिष्टनेमियु सगरनिगॆ वैराग्य मत्तु मोक्षवन्नु उपदेशिसिदुदु (1-47).
12277001 युधिष्ठिर उवाच।
12277001a कथं नु मुक्तः1 पृथिवीं चरेदस्मद्विधो नृपः।
12277001c नित्यं कैश्च गुणैर्युक्तः संगपाशाद्विमुच्यते।।
युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “नन्नंथह नृपनु हेगॆ मुक्तनागि पृथ्वियल्लि संचरिसबल्लनु? नित्य याव गुणगळिंद युक्तनागि संगपाशगळिंद मुक्तनागबल्लनु?”
12277002 भीष्म उवाच।
12277002a अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
12277002c अरिष्टनेमिना प्रोक्तं सगरायानुपृच्चते।।
भीष्मनु हेळिदनु: “ई विषयदल्लि सगरनु केळलु अरिष्टनेमियु हेळिद ई पुरातन इतिहासवन्नु निनगॆ हेळुत्तेनॆ.
12277003 सगर उवाच
12277003a किं श्रेयः परमं ब्रह्मन् कृत्वेह सुखमश्नुते।
12277003c कथं न शोचेन्न क्षुभ्येदेतदिच्चामि वेदितुम्।।
सगरनु हेळिदनु: “ब्रह्मन्! ई लोकदल्लि मनुष्यनु याव श्रेयस्कर कर्मवन्नु माडि परम सुखवन्नु हॊंदुत्तानॆ? मनुष्यनु शोकिसदिरलु मत्तु व्याकुलगॊळ्ळदिरलु हेगॆ साध्यवागुत्तदॆ? इदन्नु तिळियबयसुत्तेनॆ.””
12277004 भीष्म उवाच।
12277004a एवमुक्तस्तदा तार्क्ष्यः सर्वशास्त्रविशारदः।
12277004c विबुध्य संपदं चाग्र्यां सद्वाक्यमिदमब्रवीत्।।
भीष्मनु हेळिदनु: “हीगॆ केळलु सर्वशास्त्रविशारद तार्क्ष्य2नु अवनल्लिरुव अग्र दैवीसंपत्तन्नु तिळिदु ई सद्वाक्यगळन्नु हेळिदनु”
12277005a सुखं मोक्षसुखं लोके न च लोको3ऽवगच्चति।
12277005c प्रसक्तः पुत्रपशुषु धनधान्यसमाकुलः।।
“लोकदल्लि मोक्षसुखवे यथार्थ सुखवु. धन-धान्य मत्तु पुत्र-पशुगळ पालनॆयल्लि आसक्तनागिरुव मनुष्यनु इदन्नु तिळिदुकॊळ्ळलारनु.
12277006a सक्तबुद्धिरशांतात्मा न स शक्यश्चिकित्सितुम्।
12277006c स्नेहपाशसितो मूढो न स मोक्षाय कल्पते।।
विषयासक्त बुद्धि मत्तु अशांतात्म मनुष्यनिगॆ चिकित्सॆमाडलु शक्यविल्ल. स्नेहपाशगळिंद बंधितनाद मूढनु मोक्षक्कॆ हेळिदवनल्ल.
12277007a स्नेहजानिह ते पाशान्वक्ष्यामि शृणु तान्मम।
12277007c सकर्णकेन शिरसा शक्याश्चेत्तुं विजानता।।
स्नेहदिंद हुट्टुव पाशगळ कुरितु हेळुत्तेनॆ. अवुगळन्नु नन्निंद केळु. किविगॊट्टु केळुववनु इदन्नु बुद्धियिंद तिळिदुकॊळ्ळलु शक्यनागुत्तानॆ.
12277008a संभाव्य पुत्रान्कालेन यौवनस्थान्निवेश्य च।
12277008c समर्थान् जीवने ज्ञात्वा मुक्तश्चर यथासुखम्।।
कालानुगुणवागि पुत्ररन्नु पडॆदु, यौवनस्थरागि तम्म जीवनवन्नु नडॆसलु समर्थरागिद्दारॆ ऎंदु नोडि यथासुखवागि मुक्तनागि संचरिसु.
12277009a भार्यां पुत्रवतीं वृद्धां लालितां पुत्रवत्सलाम्।
12277009c ज्ञात्वा प्रजहि काले त्वं परार्थमनुदृश्य च।।
पुत्रवतियाद, वृद्धॆयाद, पुत्रवत्सलॆ भार्यॆयन्नु मक्कळु नोडिकॊळ्ळुत्तिद्दारॆ ऎंदु तिळिदु नीनु मोक्षवन्ने परमार्थवॆंदु भाविसि योग्य समयदल्लि अवळन्नू परित्यजिसु.
12277010a सापत्यो निरपत्यो वा मुक्तश्चर यथासुखम्।
12277010c इंद्रियैरिंद्रियार्थांस्त्वमनुभूय यथाविधि।।
12277011a कृतकौतूहलस्तेषु मुक्तश्चर यथासुखम्।
12277011c उपपत्त्योपलब्धेषु लाभेषु च समो भव।।
मक्कळिरलि अथवा मक्कळिल्लदिरलि – यथासुखवागि मुक्तनागि संचरिसु. इंद्रिगळ मूलक इंद्रिय सुखगळन्नु यथाविधियागि अनुभविसि अवुगळल्लिरुव कुतूहलवन्नु तॊरॆदु यथासुखवागि मुक्तनागि संचरिसु. उपलब्धवागुव लाभ-अलाभगळल्लि समभाववन्निडु.
12277012a एष तावत्समासेन तव संकीर्तितो मया।
12277012c मोक्षार्थो विस्तरेणापि भूयो वक्ष्यामि तच्चृणु।।
इदूवरॆगॆ नानु मोक्षद कुरितागि संक्षिप्तवागि हेळिदॆनु. ईग इदर कुरितु विस्तारवागि हेळुत्तेनॆ. केळु.
12277013a मुक्ता वीतभया लोके चरंति सुखिनो नराः।
12277013c सक्तभावा विनश्यंति नरास्तत्र न संशयः।।
12277014a आहारसंचयाश्चैव तथा कीटपिपीलिकाः।
12277014c असक्ताः सुखिनो लोके सक्ताश्चैव विनाशिनः।।
मुक्त नररु भयवन्नु कळॆदुकॊंडु सुखिगळागि संचरिसुत्तारॆ. कीट-इरुवॆगळंतॆ आहारसंचयदल्लिये सक्तराद नररु नाशहॊंदुत्तारॆ ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल. आदुदरिंद लोकदल्लि असक्तरु सुखिगळु मत्तु सक्तरु विनाशहॊंदुववरु.
12277015a स्वजने न च ते चिंता कर्तव्या मोक्षबुद्धिना।
12277015c इमे मया विनाभूता भविष्यंति कथं त्विति।।
मोक्षबुद्धियुळ्ळवरु “नानिल्लदे इवरु हेगॆ जीविसुवरु?” ऎंदु स्वजनर विषयदल्लि चिंतिसबारदु.
12277016a स्वयमुत्पद्यते जंतुः स्वयमेव विवर्धते।
12277016c सुखदुःखे तथा मृत्युं स्वयमेवाधिगच्चति।।
जंतुवु स्वयं हुट्टिकॊळ्ळुत्तदॆ. स्वयं ताने बॆळॆयुत्तदॆ. सुख-दुःखगळन्नु मत्तु मृत्युवन्नू स्वयं ताने पडॆदुकॊळ्ळुत्तदॆ.
12277017a भोजनाच्चादने चैव मात्रा पित्रा च संग्रहम्।
12277017c स्वकृतेनाधिगच्चंति लोके नास्त्यकृतं पुरा।।
मनुष्यनु तन्न पूर्व जन्मद कर्मानुसारवागि ऊट-उपचारगळन्नू, उडुगॆ-तॊडुगॆगळन्नू, मत्तु तायि-तंदॆयरु संग्रहिसिद ऐश्वर्यवन्नू पडॆदुकॊळ्ळुत्तानॆ. ई लोकदल्लि तन्नदे कर्मदिंद ऎल्लवन्नू पडॆदुकॊळ्ळुत्तानॆये हॊरतु हिंदॆ माडदे इद्दुदर याव फलवन्नू पडॆदुकॊळ्ळुवुदिल्ल.
12277018a धात्रा विहितभक्ष्याणि सर्वभूतानि मेदिनीम्।
12277018c लोके विपरिधावंति रक्षितानि स्वकर्मभिः।।
ऎल्ल प्राणिगळू स्वकर्मफलगळ रक्षणॆयिंदले लोकदल्लि संचरिसुत्तवॆ. सर्वभूतगळू विधातृवु ई मेदिनियल्लि याव कालक्कॆ याव आहारवन्नु कल्पिसिरुवनो अदन्ने हॊंदुत्तवॆ.
12277019a स्वयं मृत्पिंडभूतस्य परतंत्रस्य सर्वदा।
12277019c को हेतुः स्वजनं पोष्टुं रक्षितुं वादृढात्मनः।।
स्वयं ताने मण्णिन मुद्दॆयंतॆ सर्वदा परतंत्रनागिरुवाग अंथद अदृढात्म यारु ताने स्वजनर पोषणॆ-रक्षणॆगळिगॆ कारणनागुत्तानॆ?
12277020a स्वजनं हि यदा मृत्युर्हंत्येव तव पश्यतः।
12277020c कृतेऽपि यत्ने महति तत्र बोद्धव्यमात्मना।।
नीनु ऎष्टे महाप्रयत्नगळन्नु माडिदरू निन्न कण्णमुंदॆये निन्न स्वजनरन्नु मृत्युवु कॊंडॊय्युत्तदॆ ऎन्नुवागलादरू निन्न सामर्थ्यवु ऎष्टॆन्नुवुदन्नु नीनु तिळिदुकॊळ्ळबेकु.
12277021a जीवंतमपि चैवैनं भरणे रक्षणे तथा।
12277021c असमाप्ते परित्यज्य पश्चादपि मरिष्यसि।।
नीनु भरण-पोषण माडबेकागिरुववरु जीवंतविरुवागले अदन्नु मुगिसदॆये नीनु बिट्टु सत्तुहोगबहुदु.
12277022a यदा मृतश्च स्वजनं न ज्ञास्यसि कथं चन।
12277022c सुखितं दुःखितं वापि ननु बोद्धव्यमात्मना।।
मृतनाद निन्नवनू मरणानंतर सुखवागिरुत्तानो अथवा दुःखितनागिरुत्तानो ऎन्नुवुदु निनगॆ ऎंदू तिळियुवुदिल्ल. आदुदरिंद ई विषयदल्लि नीनु योचनॆमाडबेकागिदॆ.
12277023a मृते वा त्वयि जीवे वा यदि भोक्ष्यति वै जनः।
12277023c स्वकृतं ननु बुद्ध्वैवं कर्तव्यं हितमात्मनः।।
नीनु मृतनागु अथवा जीवंतविरु. जनरु अवर कर्मफलगळन्नु भोगिसिये तीरुत्तारॆ. अवर भरण-पोषणॆयु नन्न कर्त्यव्य ऎंदु तिळियदे निन्न हितद कुरितु योचिसु.
12277024a एवं विजानऽल्लोकेऽस्मिन्कः कस्येत्यभिनिश्चितः।
12277024c मोक्षे निवेशय मनो भूयश्चाप्युपधारय।।
इदन्नु तिळिदु ई लोकदल्लि यारु यारवनु ऎंदु निश्चयिसि मोक्षमार्गदल्लिये बुद्धियन्निडु. पुनः पुनः मनस्सिनल्लि ई विषयवन्नु आलोचिसुत्तिरु.
12277025a क्षुत्पिपासादयो भावा जिता यस्येह देहिनः।
12277025c क्रोधो लोभस्तथा मोहः सत्त्ववान्मुक्त एव सः।।
हसिवु, बायारिकॆ, क्रोध, लोभ, मोह मॊदलाद भावगळन्नु जयिसिरुव सत्त्वसंपन्ननु मुक्तने सरि.
12277026a द्यूते पाने तथा स्त्रीषु मृगयायां च यो नरः।
12277026c न प्रमाद्यति संमोहात्सततं मुक्त एव सः।।
द्यूत, मद्यपान, स्त्रीयरु मत्तु बेटॆगळल्लि याव नरनु सम्मोहदिंद प्रमादगॊळ्ळुवुदिल्लवो अवनु मुक्तने सरि.
12277027a दिवसे दिवसे नाम रात्रौ रात्रौ सदा सदा।
12277027c भोक्तव्यमिति यः खिन्नो दोषबुद्धिः स उच्यते।।
प्रति दिनवू मत्तु प्रति रात्रियू सदा नानु एनन्नु भोगिसलि ऎंदु चिंतिसि खिन्ननागुववनन्नु दोषबुद्धियॆंदु करॆयुत्तारॆ.
12277028a आत्मभावं तथा स्त्रीषु मुक्तमेव पुनः पुनः।
12277028c यः पश्यति सदा युक्तो यथावन्मुक्त एव सः।।
सदा सावधानयुक्तनागिद्दुकॊंडु अवळु तन्नवळॆंब आत्मभाववन्नु ताळदे स्त्रीयरन्नु नोडुववनु मुक्तने सरि.
12277029a संभवं च विनाशं च भूतानां चेष्टितं तथा।
12277029c यस्तत्त्वतो विजानाति लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।।
ई लोकदल्लि भूतगळ हुट्टु, मरण मत्तु जीवन क्लेषगळन्नु यथार्थरूपदल्लि तिळिदिरुववने मुक्तनु.
12277030a प्रस्थं वाहसहस्रेषु यात्रार्थं चैव कोटिषु।
12277030c प्रासादे मंचकस्थानं यः पश्यति स मुच्यते।।
साविरारु-कोट्यानुकोटि बंडिगळल्लि तुंबिरुव धान्यदल्लि तनगॆ अंदिन ऊटक्कॆ बेकागुवष्टे धान्यवु साकु ऎंदु भाविसुववनु हागू विशाल भवनदल्लि हासिगॆ हासुवष्टु जागवु साकु ऎन्नुववनु मुक्तने सरि.
12277031a मृत्युनाभ्याहतं लोकं व्याधिभिश्चोपपीडितम्।
12277031c अवृत्तिकर्शितं चैव यः पश्यति स मुच्यते।।
लोकवु मृत्युविन आक्रमणक्कॊळपट्टिदॆयॆंदू, व्याधिगळिंद पीडितवागिदॆयॆंदू, जीविकॆय अभावदिंद दुर्बलवु ऎंदु यारु काणुत्तानो अवनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277032a यः पश्यति सुखी तुष्टो4 नपश्यंश्च विहन्यते।
12277032c यश्चाप्यल्पेन संतुष्टो लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।।
हीगॆ नोडुववनु सुखियू संतुष्टनू आगुत्तानॆ. हीगॆ नोडदिरुववनु नष्टनागुत्तानॆ5. ई लोकदल्लि अल्पदिंदले संतुष्टरागिरुववरु मुक्तरे सरि.
12277033a अग्नीषोमाविदं सर्वमिति यश्चानुपश्यति।
12277033c न च संस्पृश्यते भावैरद्भुतैर्मुक्त एव सः।।
यारु ई ऎल्लवू अग्नीषोमगळ6 स्वरूपवॆंदु तिळियुवनो अवनन्नु मायॆय अद्भुतभावगळु तगलुवुदिल्ल. अंथवनु मुक्तने सरि.
12277034a पर्यंकशय्या भूमिश्च समाने यस्य देहिनः।
12277034c शालयश्च कदन्नं च यस्य स्यान्मुक्त एव सः।।
यारिगॆ पर्यंकशयनवू भूमिय मेलॆ मलगुवुदू समानवो, हागॆये मृष्टान्नवू तंगळन्नवू समानवो अवनु मुक्तने सरि.
12277035a क्षौमं च कुशचीरं च कौशेयं वल्कलानि च।
12277035c आविकं चर्म च समं यस्य स्यान्मुक्त एव सः।।
यारिगॆ सुवर्णद जरियिंद कूडिरुव रेष्मॆय पट्टेवस्त्रवू-दर्भॆय बट्टॆयू समानवो, रेष्मॆय वस्त्रवू-नारु मडियू समानवो, मत्तु उण्णॆय बट्टॆयू-मृगचर्मवू समानवो अवनु मुक्तने सरि.
12277036a पंचभूतसमुद्भूतं लोकं यश्चानुपश्यति।
12277036c तथा च वर्तते दृष्ट्वा लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।।
पंचभूतगळिंद उंटादुदॆंदु लोकवन्नु काणुववनु मत्तु लोकद ऎल्ल प्राणिगळन्नू समनागि काणुववनु मुक्तने सरि.
12277037a सुखदुःखे समे यस्य लाभालाभौ जयाजयौ।
12277037c इच्चाद्वेषौ भयोद्वेगौ सर्वथा मुक्त एव सः।।
सुख-दुःखगळल्लि, लाभालाभगळल्लि, जयाजयगळल्लि, इच्चाद्वेषगळल्लि, मत्तु भयोद्वेगगळल्लि समभावदिंदिरुववनु मुक्तने सरि.
12277038a रक्तमूत्रपुरीषाणां दोषाणां संचयं तथा।
12277038c शरीरं दोषबहुलं दृष्ट्वा चेदं विमुच्यते।।
शरीरवु रक्त-मूत्र-मलगळ आवासस्थानवागिरुवुदन्नू, वात-पित्त-कफगळॆंब दोषयुक्तवागिरुवुदन्नू कंडुकॊंडवनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277039a वलीपलितसंयोगं कार्श्यं वैवर्ण्यमेव च।
12277039c कुब्जभावं च जरया यः पश्यति स मुच्यते।।
मुप्पु आवरिसिदॊडनॆये चर्मवु सुक्किहोगुवुदु, तलॆगूदलु नॆरॆयुवुदु, देहवु कृशवागि कांतिहीनवागुवुदु, सॊंटवु बग्गुवुदु – इवुगळन्नु मनगाणुववनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277040a पुंस्त्वोपघातं कालेन दर्शनोपरमं तथा।
12277040c बाधिर्यं प्राणमंदत्वं यः पश्यति स मुच्यते।।
कालक्रमेणवागि आगुव पुरुषत्वद नाश, दृष्टियु मंदवागुवुदु, किवि केळिसदे इरुवुदु, मत्तु प्राणशक्तियु क्षीणिसुवुदु – इवुगळन्नु मुंदागिये मनगंडवनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277041a गतानृषींस्तथा देवानसुरांश्च तथा गतान्।
12277041c लोकादस्मात्परं लोकं यः पश्यति स मुच्यते।।
ऎष्टो मंदि ऋषिगळु, देवतॆगळु मत्तु असुररु ई लोकदिंद परलोकक्कॆ हॊरटुहोदरु ऎन्नुवुदन्नु नोडुववनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277042a प्रभावैरन्वितास्तैस्तैः पार्थिवेंद्राः सहस्रशः।
12277042c ये गताः पृथिवीं त्यक्त्वा इति ज्ञात्वा विमुच्यते।।
सहस्रारु प्रभावयुक्त पार्थिवेंद्ररु ई पृथ्वियन्नु तॊरॆदु हॊरटुहोगिद्दारॆ ऎंदु तिळिदुकॊंडवनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277043a अर्थांश्च दुर्लभाऽल्लोके क्लेशांश्च सुलभांस्तथा।
12277043c दुःखं चैव कुटुंबार्थे यः पश्यति स मुच्यते।।
ई लोकदल्लि अर्थप्राप्तियु दुर्लभवादुदु, क्लेषगळु सुलभवागि दॊरॆयुत्तवॆ मत्तु कुटुंबद कारणदिंद अनेक दुःखगळुंटागुत्तदॆ ऎन्नुवुदन्नु कंडवनु मुक्तनागुत्तानॆ.
12277044a अपत्यानां च वैगुण्यं जनं विगुणमेव च।
12277044c पश्यन्भूयिष्ठशो लोके को मोक्षं नाभिपूजयेत्।।
मक्कळल्लिरुव गुणहीनतॆ मत्तु जनरल्लिरुव दुर्गुणगळन्नु लोकदल्लि हॆच्चु हॆच्चु नोडुत्तिरुव यारु ताने मोक्षवन्नु आदरिसुवुदिल्ल?
12277045a शास्त्राल्लोकाच्च यो बुद्धः सर्वं पश्यति मानवः।
12277045c असारमिव मानुष्यं सर्वथा मुक्त एव सः।।
शास्त्रगळ अध्ययनदिंद मत्तु लौकिक अनुभवदिंद ज्ञानसंपन्ननागि मनुष्यत्ववे निस्सारवॆंदु कंडुकॊळ्ळुव मानवनु सर्वथा मुक्तनादंतॆये.
12277046a एतच्च्रुत्वा मम वचो भवांश्चरतु मुक्तवत्।
12277046c गार्हस्थ्ये यदि ते मोक्षे कृता बुद्धिरविक्लवा।।
नन्न ई मातन्नु केळि निन्न बुद्धिय व्याकुलतॆयन्नु दूरीकरिसि, गृहस्थाश्रमदल्लागली संन्यासाश्रमदल्लागली इद्दुकॊंडु मुक्तनंतॆ व्यवहरिसु.”
12277047a तत्तस्य वचनं श्रुत्वा सम्यक्स पृथिवीपतिः।
12277047c मोक्षजैश्च गुणैर्युक्तः पालयामास च प्रजाः।।
अवन आ मातन्नु श्रद्धॆयिंद केळि पृथिवीपति सगरनु मोक्षोपयोगी गुणगळिंद युक्तनागि प्रजॆगळन्नु पालिसुत्तिद्दनु.”
समाप्ति
इति श्रीमहाभारते शांतिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सगरारिष्टनेमिसंवादे सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि शांतिपर्वदल्लि मोक्षधर्मपर्वदल्लि सगरारिष्टनेमिसंवाद ऎन्नुव इन्नूराऎप्पत्तेळने अध्यायवु.
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युक्तः (भारत दर्शन). ↩︎
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अरिष्टनेमिय इन्नॊंदु हॆसरु तार्क्ष्य. ↩︎
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मूढो (भारत दर्शन). ↩︎
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यः पश्यति स संतुष्टो (भारत दर्शन). ↩︎
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तन्नन्नु संतुष्टनन्नागि काणुववनु मुक्तनु. तानु संतुष्टनॆंदु यारु काणुवुदिल्लवो अवनु हाळागिहोगुत्तानॆ. (भारत दर्शन) ↩︎
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अग्नि – जठराग्नि, भोक्ता मत्तु सोम – अन्न, भोज्य (भारत दर्शन). ↩︎