218: श्रीसन्निधानः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शांति पर्व

मोक्षधर्म पर्व

अध्याय 218

सार

इंद्र-श्रीयर संवाद (1-19); बलियन्नु त्यजिसि बंद श्रीयन्नु इंद्रनु प्रतिष्ठापिसिदुदु (20-38).

12218001 भीष्म उवाच।
12218001a शतक्रतुरथापश्यद्बलेर्दीप्तां महात्मनः।
12218001c स्वरूपिणीं शरीराद्धि तदा निष्क्रामतीं श्रियम्।।

भीष्मनु हेळिदनु: “आग शतक्रतुवु महात्म बलिय शरीरदिंद हॊरबरुत्तिद्द परमसुंदरि प्रकाशमान श्रीयन्नु नोडिदनु.

12218002a तां दीप्तां प्रभया दृष्ट्वा भगवान् पाकशासनः।
12218002c विस्मयोत्फुल्लनयनो बलिं पप्रच्च वासवः।।

प्रभॆयिंद बॆळगुत्तिद्द अवळन्नु नोडि भगवान् पाकशासन वासवनु विस्मितनागि तॆरॆद कण्णुगळिंद बलियन्नु केळिदनु:

12218003a बले केयमपक्रांता रोचमाना शिखंडिनी।
12218003c त्वत्तः स्थिता सकेयूरा दीप्यमाना स्वतेजसा।।

“बले! जडॆयन्नु कट्टि केयूरगळन्नु धरिसि तन्नदे तेजस्सिनिंद बॆळगुत्ता निन्न शरीरदिंद हॊरबरुत्तिरुव इवळु यारु?”

12218004 बलिरुवाच।
12218004a न हीमामासुरीं वेद्मि न दैवीं न च मानुषीम्।
12218004c त्वमेवैनां पृच्च मा वा यथेष्टं कुरु वासव।।

बलियु हेळिदनु: “वासव! इवळु आसुरियो, देवियो अथवा मनुष्यळो ननगॆ तिळिदिल्ल. बेकादरॆ नीने इवळन्नु प्रश्निसु.”

12218005 शक्र उवाच।
12218005a का त्वं बलेरपक्रांता रोचमाना शिखंडिनी।
12218005c अजानतो ममाचक्ष्व नामधेयं शुचिस्मिते।।

शक्रनु हेळिदनु: “जडॆकट्टिकॊंडु बॆळगुत्ता बलियिंद हॊरबरुत्तिरुव नीनु यारु? शुचिस्मिते! ननगॆ निन्नन्नु गुरुतिसलागुत्तिल्ल. निन्न नामधेयवन्नु हेळु.

12218006a का त्वं तिष्ठसि मायेव दीप्यमाना स्वतेजसा।
12218006c हित्वा दैत्येश्वरं सुभ्रु तन्ममाचक्ष्व तत्त्वतः।।

सुभ्रु! दैत्येश्वरनन्नु त्यजिसि निन्नदे तेजस्सिनिंद बॆळगुत्ता नन्न बळि निंतिरुव नीनु यारु? तत्त्वतः ननगॆ हेळु.”

12218007 श्रीरुवाच।
12218007a न मा विरोचनो वेद न मा वैरोचनो बलिः।
12218007c आहुर्मां दुःसहेत्येवं विधित्सेति च मां विदुः।।

श्रीयु हेळिदळु: “विरोचननू नान्यारॆंदु तिळिदिरलिल्ल. वैरोचन बलियू नान्यारॆंदु तिळिदिल्ल. नन्नन्नु दुःसहा ऎंदु करॆयुत्तारॆ. कॆलवरु नन्नन्नु विधित्सा ऎंदू तिळिदिद्दारॆ.

12218008a भूतिर्लक्ष्मीति मामाहुः श्रीरित्येवं च वासव।
12218008c त्वं मां शक्र न जानीषे सर्वे देवा न मां विदुः।।

वासव! तिळिदवरु नन्नन्नु भूति, लक्ष्मि, मत्तु श्री ऎंदू करॆयुत्तारॆ. शक्र! नीनू नन्नन्नु तिळिदिल्ल. सर्व देवतॆगळू नान्यारॆंदु तिळियरु.”

12218009 शक्र उवाच।
12218009a किमिदं त्वं मम कृते उताहो बलिनः कृते।
12218009c दुःसहे विजहास्येनं चिरसंवासिनी सती।।

शक्रनु हेळिदनु: “दुःसहे! बहळकालदिंद बलिय शरीरदल्लिये वासिसुत्तिद्द नीनु ईग नन्न हितक्कागि बलियन्नु त्यजिसि बंदिद्दीया अथवा बलिय हितद सलुवागिये अवनन्नु त्यजिसिद्दीया?”

12218010 श्रीरुवाच।
12218010a न धाता न विधाता मां विदधाति कथं चन।
12218010c कालस्तु शक्र पर्यायान्मैनं शक्रावमन्यथाः।।

श्रीयु हेळिदळु: “शक्र! धातनागली विधातनागली नन्नन्नु ऎंदू याव कार्यक्कू नियोजिसुवुदिल्ल. कालवु नन्न चलनॆयन्नु निर्धरिसुत्तदॆ. शक्र! अदन्नु नीनु अपमानिसबेड!”1

12218011 शक्र उवाच।
12218011a कथं त्वया बलिस्त्यक्तः किमर्थं वा शिखंडिनि।
12218011c कथं च मां न जह्यास्त्वं तन्मे ब्रूहि शुचिस्मिते।।

शक्रनु हेळिदनु: “सुंदर जडॆयन्नु धरिसिदवळे! बलियन्नु एकॆ मत्तु हेगॆ त्यजिसिदॆ? शुचिस्मिते! हेगॆ नीनु नन्नन्नू त्यजिसदे इरुवॆ? अदन्नु ननगॆ हेळु.”

12218012 श्रीरुवाच।
12218012a सत्ये स्थितास्मि दाने च व्रते तपसि चैव हि।
12218012c पराक्रमे च धर्मे च पराचीनस्ततो बलिः।।

श्रीयु हेळिदळु: “नानु सत्य, दान, व्रत, तपस्सु, पराक्रम मत्तु धर्मदल्लि नॆलॆसिरुत्तेनॆ. ईग बलियु ई ऎल्लदरिंदलू विमुखनागिद्दानॆ.

12218013a ब्रह्मण्योऽयं सदा भूत्वा सत्यवादी जितेंद्रियः।
12218013c अभ्यसूयद्ब्राह्मणान्वै उच्चिष्टश्चास्पृशद् घृतम्।।

इवनु सदा ब्रह्मण्यनागिद्दुकॊंडु सत्यवादियू जितेंद्रियनू आगिद्दनु. नंतर इवनिगॆ ब्राह्मणर मेलॆ असूयॆयुंटायितु. उच्चिष्ट कैयिंद तुप्पवन्नु मुट्टुत्तिद्दनु.

12218014a यज्ञशीलः पुरा भूत्वा मामेव यजतेत्ययम्।
12218014c प्रोवाच लोकान्मूढात्मा कालेनोपनिपीडितः।।

मॊदलु यज्ञशीलनागिद्दनु. आदरॆ नंतर ई मूढात्मनु कालपीडितनागि “नन्न सलुवागिये यज्ञमाडिरि!” ऎंदु लोकगळिगॆ हेळिदनु.

12218015a अपाकृता ततः शक्र त्वयि वत्स्यामि वासव।
12218015c अप्रमत्तेन धार्यास्मि तपसा विक्रमेण च।।

वासव! शक्र! अवनन्नु परित्यजिसि निन्नल्लि वासिसुत्तेनॆ. अप्रमत्ततॆ, तपस्सु मत्तु विक्रमदिंद नन्नन्नु धरिसबल्लॆ.”

12218016 शक्र उवाच।
12218016a अस्ति देवमनुष्येषु सर्वभूतेषु वा पुमान्।
12218016c यस्त्वामेको विषहितुं शक्नुयात्कमलालये।।

शक्रनु हेळिदनु: “कमलवासिनिये! देवतॆगळल्लि, मनुष्यरल्लि अथवा सर्वभूतगळल्लि तानॊब्बने सदाकाल निन्नन्नु धरिसिकॊंडिरुव पुरुषनु यारू इल्ल.”

12218017 श्रीरुवाच।
12218017a नैव देवो न गंधर्वो नासुरो न च राक्षसः।
12218017c यो मामेको विषहितुं शक्तः कश्चित्पुरंदर।।

श्रीयु हेळिदळु: “पुरंदर! देवतॆगळल्लागली, गंधर्वरल्लागली, असुररल्लागली, राक्षसरल्लागली तानॊब्बने नन्नन्नु चिरकाल धरिसिकॊळ्ळबहुदादवरु यारू इल्ल.”

12218018 शक्र उवाच।
12218018a तिष्ठेथा मयि नित्यं त्वं यथा तद्ब्रूहि मे शुभे।
12218018c तत्करिष्यामि ते वाक्यमृतं त्वं वक्तुमर्हसि।।

शक्रनु हेळिदनु: “शुभे! नानु हेगिद्दरॆ नीनु नन्नल्लि नित्यवू नॆलॆसिरुवॆ ऎन्नुवुदन्नु हेळु. निन्न मातिनंतॆये नानु नडॆदुकॊळ्ळुत्तेनॆ. ननगॆ नीनु सत्यवन्नु हेळबेकु.”

12218019 श्रीरुवाच।
12218019a स्थास्यामि नित्यं देवेंद्र यथा त्वयि निबोध तत्।
12218019c विधिना वेददृष्टेन चतुर्धा विभजस्व माम्।।

श्रीयु हेळिदळु: “देवेंद्र! नित्यवू निन्नल्लि हेगॆ नानु निल्लबल्लॆ ऎन्नुवुदन्नु हेळुत्तेनॆ. केळु. वेददृष्ट विधियिंद नन्नन्नु नाल्कु भागगळन्नागि विंगडिसु.”

12218020 शक्र उवाच।
12218020a अहं वै त्वा निधास्यामि यथाशक्ति यथाबलम्।
12218020c न तु मेऽतिक्रमः स्याद्वै सदा लक्ष्मि तवांतिके।।

शक्रनु हेळिदनु: “लक्ष्मि! शक्ति मत्तु बलगळिगनुगुणवागि नानु निन्नन्नु प्रतिष्ठापिसुत्तेनॆ. नीनु नन्नॊडनिरुववरॆगॆ नानु निन्नन्नु अतिक्रमिसुवुदिल्ल.

12218021a भूमिरेव मनुष्येषु धारणी भूतभाविनी।
12218021c सा ते पादं तितिक्षेत समर्था हीति मे मतिः।।

भूतभाविनी! मनुष्यरल्लि भूमियु निन्नन्नु धरिसुत्ताळॆ. अवळु निन्न ऒंदु कालु भागवन्नु हॊरलु समर्थळु ऎंदु नन्न अभिप्रायवु.”

12218022 श्रीरुवाच।
12218022a एष मे निहितः पादो योऽयं भूमौ प्रतिष्ठितः।
12218022c द्वितीयं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु।।

श्रीयु हेळिदळु: “इदो! नन्न ई ऒंदु पादवन्नु भूमिय मेलॆ प्रतिष्ठापिसिद्देनॆ. शक्र! नन्न ऎरडनॆय पादवन्नु ऎल्लिडबेकॆंदु निश्चयमाडु.”

12218023 शक्र उवाच।
12218023a आप एव मनुष्येषु द्रवंत्यः परिचारिकाः।
12218023c तास्ते पादं तितिक्षंतामलमापस्तितिक्षितुम्।।

शक्रनु हेळिदनु: “मनुष्यरल्लि जलवे द्रव्यरूपदल्लि सेवॆसल्लिसुत्तदॆ. निन्न ऒंदु कालुभागवु जलदल्लि प्रतिष्ठितगॊळ्ळलि. जलवु निन्नन्नु हॊरबल्लदु.”

12218024 श्रीरुवाच।
12218024a एष मे निहितः पादो योऽयमप्सु प्रतिष्ठितः।
12218024c तृतीयं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु।।

श्रीयु हेळिदळु: “इदो! नन्न ई ऒंदु पादवन्नु जलदल्लि प्रतिष्ठापिसिद्देनॆ. शक्र! नन्न मूरनॆय पादवन्नु ऎल्लिडबेकॆंदु निश्चयमाडु.”

12218025 शक्र उवाच।
12218025a यस्मिन्देवाश्च यज्ञाश्च यस्मिन्वेदाः प्रतिष्ठिताः।
12218025c तृतीयं पादमग्निस्ते सुधृतं धारयिष्यति।।

शक्रनु हेळिदनु: “यारल्लि देवतॆगळू, यज्ञगळू मत्तु वेदगळु प्रतिष्ठितवागिवॆयो आ अग्नियु निन्न मूरनॆय कालुभागवन्नु चॆन्नागि धरिसिकॊळ्ळुत्तानॆ.”

12218026 श्रीरुवाच।
12218026a एष मे निहितः पादो योऽयमग्नौ प्रतिष्ठितः।
12218026c चतुर्थं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु।।

श्रीयु हेळिदळु: “इदो! नन्न ई ऒंदु पादवन्नु अग्नियल्लि प्रतिष्ठापिसिद्देनॆ. शक्र! नन्न नाल्कनॆय पादवन्नु ऎल्लिडबेकॆंदु निश्चयमाडु.”

12218027 शक्र उवाच।
12218027a ये वै संतो मनुष्येषु ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।
12218027c ते ते पादं तितिक्षंतामलं संतस्तितिक्षितुम्।।

शक्रनु हेळिदनु: “मनुष्यरल्लि ब्रह्मण्यरू सत्यवादिगळू आद संतरिद्दारॆ. आ अमल संतरु निन्नन्नु धरिसलु समर्थरागिद्दारॆ. अवरु निन्न ऒंदु पादवन्नु धरिसुत्तारॆ.”

12218028 श्रीरुवाच।
12218028a एष मे निहितः पादो योऽयं सत्सु प्रतिष्ठितः।
12218028c एवं विनिहितां शक्र भूतेषु परिधत्स्व माम्।।

श्रीयु हेळिदळु: “इदो! नन्न ई ऒंदु पादवन्नु सत्पुरुषरल्लि प्रतिष्ठापिसिद्देनॆ. शक्र! हीगॆ भूतगळल्लि इरिसल्पट्ट नन्नन्नु नीनु रक्षिसु.”

12218029 शक्र उवाच।
12218029a भूतानामिह वै यस्त्वा मया विनिहितां सतीम्।
12218029c उपहन्यात्स मे द्विष्यात्तथा शृण्वंतु मे वचः।।

शक्रनु हेळिदनु: “हीगॆ नानु निन्नन्नु विंगडिसि भूतगळल्लि इरिसिद्देनॆ. नन्न ई मातन्नु केळु. निन्नन्नु हिंसिसुववरन्नु नानु कॊल्लुत्तेनॆ.””

12218030 भीष्म उवाच।
12218030a ततस्त्यक्तः श्रिया राजा दैत्यानां बलिरब्रवीत्।
12218030c यावत्पुरस्तात् प्रतपेत्तावद्वै दक्षिणां दिशम्।।
12218031a पश्चिमां तावदेवापि तथोदीचीं दिवाकरः।
12218031c तथा मध्यंदिने सूर्यो अस्तमेति2 यदा तदा।
12218031e पुनर्देवासुरं युद्धं भावि जेतास्मि वस्तदा।।

भीष्मनु हेळिदनु: “हीगॆ श्रीयिंद त्यक्तनाद दैत्यर राज बलियु हेळिदनु: “सूर्यनु ऎल्लियवरॆगॆ पूर्वदिक्किनल्लि प्रकाशमाननागिरुत्तानो अंदिनवरॆगू अवनु दक्षिण, उत्तर, मत्तु पश्चिम दिक्कुगळन्नू बॆळगुत्तिरुत्तानॆ. सूर्यनु यावाग मध्याह्नदल्लिये इद्दु अस्तंगतनागुवुदिल्लवो आग पुनः देवासुरर युद्धवागुत्तदॆ. आग नानु निन्नन्नु गॆल्लुत्तेनॆ.3

12218032a सर्वाऽल्लोकान्यदादित्य एकस्थस्तापयिष्यति।
12218032c तदा देवासुरे युद्धे जेताहं त्वां शतक्रतो।।

शतक्रतो! यावाग सूर्यनु ऒंदे स्थानदल्लिद्दुकॊंडु ऎल्ल लोकगळन्नू बॆळगुत्तानो आग नडॆयुव देवासुर युद्धदल्लि नानु निन्नन्नु गॆल्लुत्तेनॆ.”

12218033 शक्र उवाच।
12218033a ब्रह्मणास्मि समादिष्टो न हंतव्यो भवानिति।
12218033c तेन तेऽहं बले वज्रं न विमुंचामि मूर्धनि।।

शक्रनु हेळिदनु: “बले! निन्नन्नु नानु कॊल्लकूडदॆंदु ब्रह्मनु ननगॆ आज्ञॆयित्तिद्दानॆ. आदुदरिंद निन्न तलॆय मेलॆ वज्रवन्नु प्रहरिसुत्तिल्ल.

12218034a यथेष्टं गच्च दैत्येंद्र स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।
12218034c आदित्यो नावतपिता कदा चिन्मध्यतः स्थितः।।

दैत्येंद्र! महासुर! इष्टवादल्लिगॆ होगु. निनगॆ मंगळवागलि. आदित्यनु ऎंदू मध्यदल्लि स्थितनागुवुदिल्ल.

12218035a स्थापितो ह्यस्य समयः पूर्वमेव स्वयंभुवा।
12218035c अजस्रं परियात्येष सत्येनावतपन् प्रजाः।।

हिंदॆये स्वयंभुवु अवनिगॆ मर्यादॆयन्नु स्थापिसिद्दानॆ. अदे सत्यमर्यादॆय अनुसार सूर्यनु संपूर्ण लोकगळिगॆ तापवन्नु नीडुत्ता निरंतर परिभ्रमिसुत्तिरुत्तानॆ.

12218036a अयनं तस्य षण्मासा उत्तरं दक्षिणं तथा।
12218036c येन संयाति लोकेषु शीतोष्णे विसृजन्रविः।।

अवनिगॆ आरु मासगळ उत्तर मत्तु दक्षिण मार्गगळिवॆ. इदरिंदले रवियु संपूर्ण जगत्तिनल्लि छळि मत्तु बेसगॆ कालगळन्नु सृष्टिसुत्तानॆ.””

12218037 भीष्म उवाच।
12218037a एवमुक्तस्तु दैत्येंद्रो बलिरिंद्रेण भारत।
12218037c जगाम दक्षिणामाशामुदीचीं तु पुरंदरः।।

भीष्मनु हेळिदनु: “भारत! इंद्रनु हीगॆ हेळलु दैत्येंद्र बलियु दक्षिणाभिमुखनागि होदनु. पुरंदरनु उत्तर दिक्किनल्लि होदनु.

12218038a इत्येतद्बलिना गीतमनहंकारसंज्ञितम्।
12218038c वाक्यं श्रुत्वा सहस्राक्षः खमेवारुरुहे तदा।।

अनहंकारवन्नु सूचिसुव बलिय ई गीतॆयन्नु केळि सहस्राक्षनु आकाशवन्नेरिदनु.”

समाप्ति इति श्रीमहाभारते शांतिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि श्रीसन्निधानो नाम अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। इदु श्रीमहाभारतदल्लि शांतिपर्वदल्लि मोक्षधर्मपर्वदल्लि श्रीसन्निधान ऎन्नुव इन्नूराहदिनॆंटने अध्यायवु.

  1. कालद आदेशवन्नु नानु मन्निसुत्तेनॆ. ईग कालनु बलियन्नु परित्यजिसलु नन्नन्नु प्रेरेपिसिद्दानॆ. आदुदरिंद नानु बलिय शरीरदिंद हॊरबंदिद्देनॆ. आदुदरिंद नीनु बलियन्नु याव कारणदिंदलू अवहेळन माडबेड. (भारत दर्शन). ↩︎

  2. नास्तमेति (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎

  3. ईग वैवस्वत मन्वंतरवु नडॆयुत्तिदॆ. इदर नंतरद सावर्णिक मन्वंतरदल्लि बलिये इंद्रनागुवनॆंदू अदन्नु सूचिसिये बलियु ई मातन्नु हेळिरुवनॆंदु व्याख्यानकारर अभिप्रायवु (भारत दर्शन). वैवस्वत मन्वंतरवन्नु ऎंटु भागगळल्लि विंगडिसि ऎंटने भागवु कळॆयुत्ता बरुवाग पूर्वादि नाल्कू दिक्कुगळल्लिरुव इंद्र, यम, वरुण मत्तु कुबेरर नाल्कू पुरिगळु नष्टवागुत्तवॆ. आ समयदल्लि केवल ब्रह्मलोकदल्लि स्थितनागि सूर्यनु कॆळगिन संपूर्ण लोकगळन्नु प्रकाशिसुत्तानॆ. आ समयदल्लि सावर्णिक मन्वंतरद आरंभवागुत्तदॆ मत्तु आग राजा बलियु इंद्रनागुत्तानॆ. (नीलकंठी, गीता प्रॆस्). ↩︎