प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
शांति पर्व
मोक्षधर्म पर्व
अध्याय 187
सार
अध्यात्मज्ञानद निरूपणॆ (1-60).
12187001 युधिष्ठिर उवाच।
12187001a अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह चिंत्यते।
12187001c यदध्यात्मं यतश्चैतत्तन्मे ब्रूहि पितामह1।।
युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “पितामह! मनुष्यनिगागि अध्यात्म ऎंब हॆसरिनिंद याव विचारविदॆयो आ अध्यात्म ज्ञानवु यावुदु? अदन्नु ननगॆ हेळु.”
12187002 भीष्म उवाच।
12187002a अध्यात्ममिति मां पार्थ यदेतदनुपृच्चसि।
12187002c तद्व्याख्यास्यामि ते तात श्रेयस्करतरं सुखम्।।
भीष्मनु हेळिदनु: “पार्थ! नीनु याव अध्यात्मविषयद कुरितु केळित्तिरुवॆयो निनगागि अदर व्याख्यॆयन्नु माडुत्तेनॆ. अय्या! इदु परम श्रेयस्करवू सुखकरवू आगिदॆ.
212187003a यज्ज्ञात्वा पुरुषो लोके प्रीतिं सौख्यं च विंदति।
12187003c फललाभश्च सद्यः स्यात्सर्वभूतहितं च तत्।।
इदन्नु तिळिदु पुरुषनु लोकदल्लि सुख मत्तु प्रीतियन्नु हॊंदुत्तानॆ. अवनिगॆ अभीष्टफलगळु लभिसुत्तवॆ. ई अध्यात्मज्ञानवु समस्तप्राणिगळिगू हितकरवागिदॆ.
12187004a पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पंचमम्।
12187004c महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।।
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल मत्तु अग्नि – ई ऐदु महाभूतगळु संपूर्ण प्राणिगळ उत्पत्ति मत्तु प्रयलगळ स्थानगळु.
12187005a ततः सृष्टानि तत्रैव तानि यांति पुनः पुनः।
12187005c महाभूतानि भूतेषु सागरस्योर्मयो यथा।।
सागरदल्लि हेगॆ अलॆगळु उत्पन्नवागि पुनः अदरल्लिये लीनवागुत्तवॆयो हागॆ ई पंच महाभूतगळू कूड याव परमात्मनिंद उत्पन्नवागिवॆयो अवनल्लिये सर्व प्राणिगळ सहित पुनः पुनः लीनगॊळ्ळुत्तवॆ.
12187006a प्रसार्य च यथांगानि कूर्मः संहरते पुनः।
12187006c तद्वद्भूतानि भूतात्मा सृष्ट्वा संहरते पुनः।।
आमॆयु हेगॆ तन्न अंगगळन्नु विस्तरिसिकॊंडु पुनः ऒळक्कॆळॆदुकॊळ्ळुत्तदॆयो हागॆये संपूर्ण भूतात्मा परब्रह्म परमेश्वरनु तानु रचिसिद ई संपूर्ण जगत्तन्नु विस्तरिसि पुनः तन्न ऒळगॆ ऎळॆदुकॊळ्ळुत्तानॆ.
12187007a महाभूतानि पंचैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
12187007c अकरोत्तेषु वैषम्यं तत्तु जीवोऽनु पश्यति।।
भूतकृतुवु सर्वभूतगळल्लि ऐदे महाभूतगळन्नु स्थापिसिद्दानॆ. आदरॆ अवुगळल्लि वैषम्यगळन्नु माडिद्दानॆ. आ वैषम्यतॆयु जीवक्कॆ काणिसुवुदिल्ल.
12187008a शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम्।
12187008c वायोस्त्वक्स्पर्शचेष्टाश्च वागित्येतच्चतुष्टयम्3।।
शब्द, श्रोत्र, मत्तु छिद्र – ई मूरु आकाशद कार्यगळु. स्पर्श, चेष्टा, त्वगिंद्रिय मत्तु मातु – ई नाल्कु वायुविन कार्यगळु.
12187009a रूपं चक्षुस्तथा पक्तिस्त्रिविधं4 तेज उच्यते।
12187009c रसः क्लेदश्च जिह्वा च त्रयो जलगुणाः स्मृताः।।
रूप, चक्षु मत्तु पचन ई मूरु तेजद कार्यगळॆंदु हेळुत्तारॆ. रस, तेव मत्तु नालिगॆ ई मूरु जलद गुणगळॆंदु हेळिद्दारॆ.
12187010a घ्रेयं घ्राणं शरीरं च ते तु भूमिगुणास्त्रयः।
12187010c महाभूतानि पंचैव षष्ठं तु मन उच्यते।।
गंध, घ्राणेंद्रिय, मत्तु शरीर ई मूरु भूमिय गुणगळु. महाभूतगळु ऐदु मत्तु आरनॆयदु मनस्सु ऎंदु हेळिद्दारॆ.
12187011a इंद्रियाणि मनश्चैव विज्ञानान्यस्य भारत।
12187011c सप्तमी बुद्धिरित्याहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः।।
भारत! इंद्रियगळु मत्तु मनस्सु जीवात्मनिगॆ विषयगळ ज्ञानवन्नुंटुमाडुत्तवॆ. एळनॆयदु बुद्धि मत्तु पुनः ऎंटनॆयदु क्षेत्रज्ञ ऎंदु हेळुत्तारॆ.
12187012a चक्षुरालोकनायैव संशयं कुरुते मनः।
12187012c बुद्धिरध्यवसायाय क्षेत्रज्ञः साक्षिवत् स्थितः।।
चक्षु मॊदलाद इंद्रियगळु विषयगळन्नु ग्रहिसुत्तवॆ. मनस्सु संशय ताळुत्तदॆ. बुद्धियु निश्चयिसुत्तदॆ. क्षेत्रज्ञनु साक्षियु.
12187013a ऊर्ध्वं पादतलाभ्यां यदर्वागूर्ध्वं च पश्यति।
12187013c एतेन सर्वमेवेदं विद्ध्यभिव्याप्तमंतरम्।।
पादतलदिंद हिडिदु मेलिनवरॆगिरुव शरीरवन्नु साक्षीभूत चेतनवु मेलॆ-कॆळगॆ ऎल्ल कडॆगळिंद नोडुत्तदॆ. अदु ई शरीरद ऒळगॆ मत्तु हॊरगॆ ऎल्ल कडॆ व्याप्तवागिदॆ. इदन्नु नीनु चॆन्नागि तिळिदुको.
12187014a पुरुषे चेंद्रियाणीह वेदितव्यानि कृत्स्नशः।
12187014c तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि भावांस्तदाश्रयान्।।
पुरुषनु ई इंद्रियगळ, मनस्सु मत्तु बुद्धिगळ व्यवहारगळन्नु संपूर्णवागि तिळिदुकॊंडिरबेकु. एकॆंदरॆ सत्त्व-रज-तमो गुणगळु इवुगळन्ने आश्रयिसिवॆ ऎंदु तिळि.
12187015a एतां बुद्ध्वा नरो बुद्ध्या भूतानामागतिं गतिम्।
12187015c समवेक्ष्य शनैश्चैव लभते शममुत्तमम्।।
मनुष्यनु तन्न बुद्धिय बलदिंद प्राणिगळ हुट्टु-सावुगळ स्वरूपवन्नु तिळिदुकॊंडु मॆल्लमॆल्लने उत्तम शांतियन्नु हॊंदुत्तानॆ.
12187016a गुणान्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेंद्रियाण्यपि।
12187016c मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः।।
सत्त्वरजस्तमोगुणगळे बुद्धियन्नु पुनः पुनः विषयगळ बळि कॊंडॊय्युत्तवॆ. बुद्धियॊंदिगॆ मनस्सु-इंद्रियगळन्नू मत्तु अवुगळ समस्त वृत्तिगळन्नू विषयगळत्त कॊंडॊय्युत्तवॆ. बुद्धियिल्लदे गुणगळु हेगॆ इरबल्लवु?
12187017a इति तन्मयमेवैतत्सर्वं स्थावरजंगमम्।
12187017c प्रलीयते चोद्भवति तस्मान्निर्दिश्यते तथा।।
स्थावरजंगम सहितवाद ऎल्लवू बुद्धिय उदयदिंदले उत्पन्नवागिवॆ मत्तु बुद्धिय लयदॊडनॆये लीनवागुत्तवॆ. आदुदरिंदले ई सकल प्रपंचवू बुद्धिमयवे आगिदॆ. इदक्कागिये श्रुतियल्लि ऎल्लवू बुद्धिरूपवागिरुवुदॆंब निर्देशविदॆ.
12187018a येन पश्यति तच्चक्षुः शृणोति श्रोत्रमुच्यते।
12187018c जिघ्रति घ्राणमित्याहू रसं जानाति जिह्वया।।
बुद्धियु यावुदरिंद नोडुत्तदॆयो अदन्नु कण्णु, मत्तु यावुदरिंद केळुत्तदॆयो अदन्नु श्रोत्र ऎंदु करॆयुत्तारॆ. अदु यावुदरिंद मूसुत्तदॆयो अदन्नु मूगॆंदू मत्तु यावुदरिंद अदु रसवन्नु तिळियुत्तदॆयो अदन्नु नालिगॆयॆंदू हेळुत्तारॆ.
12187019a त्वचा स्पृशति च स्पर्शान्बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्।
12187019c येन संकल्पयत्यर्थं किं चिद्भवति तन्मनः।।
बुद्धियु त्वचॆयिंद स्पर्शद ज्ञानवन्नु पडॆयुत्तदॆ. हीगॆ पुनः पुनः विकारगॊळ्ळुत्तिरुत्तदॆ. अदु याव करणदिंद याव अनुभववन्नु पडॆय बयसुत्तदॆयो मनस्सु अदरद्दे रूपवन्नु धरिसुत्तदॆ.
12187020a अधिष्ठानानि बुद्धेर्हि पृथगर्थानि पंचधा।
12187020c पंचेंद्रियाणि यान्याहुस्तान्यदृश्योऽधितिष्ठति।।
बुद्धिगॆ भिन्न भिन्न विषयगळन्नु ग्रहिसलु इरुव ऐदु अधिष्ठानगळन्ने पंचेंद्रियगळॆंदु करॆयुत्तारॆ. अदृश्य जीवात्मनु इवॆल्लवुगळ अधिष्ठाता अथवा प्रेरक ऎन्नुत्तारॆ.
12187021a पुरुषाधिष्ठिता5 बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।
12187021c कदा चिल्लभते प्रीतिं कदा चिदनुशोचति।।
12187022a न सुखेन न दुःखेन कदा चिदपि वर्तते।
पुरुषनिंद प्रेरितवाद बुद्धियु मूरु भावगळल्लि वर्तिसुत्तदॆ. ऒम्मॊम्मॆ प्रीतियन्नु हॊंदुत्तदॆ. ऒम्मॊम्मॆ शोकिसुत्तदॆ. इन्नु कॆलवॊम्मॆ सुख-दुःखगळन्नु अनुभविसदे इरुत्तदॆ.
12187022c एवं नराणां मनसि त्रिषु भावेष्ववस्थिता।।
12187023a सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतान्नातिवर्तते।
12187023c सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान्।।
हीगॆ मनुष्यर मनस्सिनल्लि मूरु भावगळिवॆ. ई भावात्मिक बुद्धियु नदिगळ ऒडॆय ऊर्मिमंत सागरवु कॆलवॊम्मॆ6 तीरवन्नू अतिक्रमिसि होगुवंतॆ ई मूरु भावगळन्नू अतिक्रमिसि होगुत्तदॆ.
12187024a अतिभावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते।
12187024c प्रवर्तमानं हि रजस्तद्भावमनुवर्तते।।
हीगॆ भावगळन्नु अतिक्रमिसिदरू बुद्धियु मनस्सिनल्लिये इरुत्तदॆ. मरळि बंदनंतर बुद्धियु रजोगुणद स्वभाववन्नु अनुसरिसुत्तदॆ7.
12187025a इंद्रियाणि हि सर्वाणि प्रदर्शयति सा सदा8।
912187025c प्रीतिः सत्त्वं रजः शोकस्तमो मोहश्च ते त्रयः।।
सर्व इंद्रियगळू अदे मूरु भावगळन्नु प्रदर्शिसुत्तवॆ. प्रीतियु सत्त्वगुण. शोकवु रजोगुण, मत्तु मोहवु तमोगुण.
12187026a ये ये च भावा लोकेऽस्मिन्सर्वेष्वेतेषु ते त्रिषु।
12187026c इति बुद्धिगतिः सर्वा व्याख्याता तव भारत।।
भारत! ई लोकदल्लि याव याव भावगळिवॆयो अवॆल्लवू ई मूरु भावगळल्लिये अंतर्गतवागिवॆ. भारत! हीगॆ नानु निनगॆ बुद्धियु प्रवहिसुव मार्गगळॆल्लवन्नू वर्णिसिद्देनॆ.
12187027a इंद्रियाणि च सर्वाणि विजेतव्यानि धीमता।
12187027c सत्त्वं रजस्तमश्चैव प्राणिनां संश्रिताः सदा।।
12187028a त्रिविधा वेदना चैव सर्वसत्त्वेषु दृश्यते।
12187028c सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत।।
भारत! बुद्धिवंतनादवनु सर्व इंद्रियगळन्नू गॆल्लबेकु. सत्त्व, रज मत्तु तमोगुणगळु सदा प्राणिगळन्नाश्रयिसिये इरुत्तवॆ. ई कारणदिंदले सर्व जीविगळल्लि – सात्विकी, राजसी मत्तु तामसी – ऎंब मूरु रीतिय अनुभूतिगळु कंडुबरुत्तवॆ.
12187029a सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः।
12187029c तमोगुणेन संयुक्तौ भवतोऽव्यावहारिकौ।।
सुखस्पर्शवु सत्त्वगुण. दुःखस्पर्शवु रजोगुण. इवॆरडू तमोगुणदल्लि सेरिदाग सुख-दुःखगळॆरडू उळियुवुदिल्ल.
12187030a तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
12187030c वर्तते सात्त्विको भाव इत्यवेक्षेत तत्तदा।।
शरीर अथवा मनस्सिनल्लि प्रीतियुंटादरॆ सात्त्विक भाववु उदयवागिदॆ ऎंदु तिळियबेकु.
12187031a अथ यद्दुःखसंयुक्तमतुष्टिकर10मात्मनः।
12187031c प्रवृत्तं रज इत्येव तन्नसंरभ्य चिंतयेत्।।
आत्मनल्लि दुःखसंयुक्त असंतृप्तियुंटादाग रजोगुणवु प्रवृत्तवागिदॆ ऎंदु तिळियबेकु. अदर कुरितु चिंतिसबारदु.
12187032a अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तमिव यद्भवेत्।
12187032c अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्।।
यावाग मोहसंयुक्तवाद एनॊंदू तिळियदंतागुत्तदॆयो आग तमोगुणवु वृद्धियागिदॆयॆंदु तिळियबेकु.
12187033a प्रहर्षः प्रीतिरानंदः सुखं संशांतचित्तता।
12187033c कथं चिदभिवर्तंत इत्येते सात्त्विका गुणाः।।
अति हर्ष, प्रीति, आनंद, सुख, मत्तु प्रसन्नतॆगळुंटादाग इवु सात्त्विकगुणगळॆनिसिकॊळ्ळुत्तवॆ.
12187034a अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाक्षमा।
12187034c लिंगानि रजसस्तानि दृश्यंते हेत्वहेतुभिः।।
कारणदॊंदिगॆ अथवा अकारणवागि अतृप्ति, परिताप, शोक, लोभ मत्तु अक्षमॆगळ लक्षणगळुंटादरॆ अवु रजोगुणवन्नु तोरिसुत्तवॆ.
12187035a अभिमान11स्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतंद्रिता।
12187035c कथं चिदभिवर्तंते विविधास्तामसा गुणाः।।
अभिमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न मत्तु आलस्य – इवुगळु मनुष्यनन्नु हेगो आवरिसिकॊळ्ळुत्तवॆ. इवु विविध तामस गुणगळु.
12187036a दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम्।
12187036c मनः सुनियतं यस्य स सुखी प्रेत्य चेह च।।
दूरहोगुव, अनेक विषयगळ कडॆगॆ होगुव, अनेक वस्तुगळन्नु बयसुव मत्तु संशयात्मक मनस्सन्नु यारु संयमदल्लिट्टुकॊळ्ळुत्तानो अवनु इह मत्तु परगळल्लॆरडरल्लियू सुखियागिरुत्तानॆ.
12187037a सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदंतरं पश्य सूक्ष्मयोः।
12187037c सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान्।।
सत्त्व अथवा बुद्धि मत्तु क्षेत्रज्ञ अथवा आत्म ई सूक्ष्मतत्त्वगळल्लिन अंतरवन्नु नोडु. ऒंदु अनेक गुणगळन्नु हुट्टिसुत्तदॆ. इन्नॊंदु गुणगळन्नु हुट्टिसुवुदिल्ल.
12187038a मशकोदुंबरौ चापि संप्रयुक्तौ यथा सदा।
12187038c अन्योन्यमन्यौ च यथा संप्रयोगस्तथा तयोः।।
अत्तिय हण्णिनल्लि तिरुळु मत्तु हुळगळु हेगॆ एकत्रविद्दरू प्रत्येक अस्तित्वगळन्नु हॊंदिरुववो हागॆ बुद्धि मत्तु आत्म इवॆरडू ऒट्टिगे इद्दरू प्रत्येकवागिवॆ.
12187039a पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ संप्रयुक्तौ च सर्वदा।
12187039c यथा मत्स्यो जलं चैव संप्रयुक्तौ तथैव तौ।।
नीरु मत्तु मीनु प्रत्येकवादरू हेगॆ ऒंदक्कॊंदु सेरिकॊंडिरुववो हागॆ बुद्धि मत्तु आत्मगळु स्वभावतः प्रत्येकवागिद्दरू सदा ऒंदक्कॊंदु सेरिकॊंडिरुत्तवॆ12.
12187040a न गुणा विदुरात्मानं स गुणान्वेत्ति सर्वशः।
12187040c परिद्रष्टा गुणानां च संस्रष्टा मन्यते सदा।।
सत्त्वादि गुणगळु जडवागिरुवुदरिंद अवु आत्मनन्नु तिळियलारवु. आदरॆ आत्मवु चेतनवु. आदुदरिंद अदु गुणगळन्नु चॆन्नागि तिळिदिरुत्तदॆ. आत्मवु गुणगळिगॆ साक्षियागि अवुगळिंद सर्वथा भिन्नवागिद्दरू अदु तन्नन्नु गुणगळिंद कूडिदवनॆंदु भाविसुत्तदॆ.
12187041a इंद्रियैस्तु प्रदीपार्थं कुरुते बुद्धिसप्तमैः।
12187041c निर्विचेष्टैरजानद्भिः परमात्मा प्रदीपवत्।।
गडिगॆयल्लिट्ट दीपवु गडिगॆय रंध्रगळ मूलक हेगॆ हॊरगिन पदार्थगळन्नु प्रकाशगॊळिसुत्तदॆयो हागॆ मनुष्यन शरीरदल्लिरुव चैतन्यरूप आत्मनु चेष्टारहितवाद मत्तु ज्ञानशून्यवाद पंचेंद्रियगळु, मनस्सु मत्तु बुद्धि – ई एळु रंध्रगळ मूलक हॊरगिन ऎल्ल पदार्थगळन्नू अनुभविसुत्तानॆ.
12187042a सृजते हि गुणान्सत्त्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।
12187042c संप्रयोगस्तयोरेष सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः।।
बुद्धियु गुणगळन्नु सृष्टिसुत्तिरुत्तदॆ13 मत्तु आत्मवु अदन्नु नोडुत्तिरुत्तदॆ. बुद्धि मत्तु आत्मगळ ई संयोगवु अनादियु.
12187043a आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य क्षेत्रज्ञस्य च कश्चन।
12187043c सत्त्वं मनः संसृजति न गुणान्वै कदा चन।।
बुद्धिगॆ आत्मनन्नु बिट्टु बेरॆ आश्रयविल्ल. क्षेत्रज्ञनिगू बुद्धियन्नु बिट्टु बेरॆ आश्रयविल्ल. बुद्धियु मनस्सिनॊडनॆ निकट संबंधवन्नु हॊंदिदॆ. आदरॆ बुद्धिगॆ गुणगळॊडनॆ नेर संबंधविल्ल.
12187044a रश्मींस्तेषां स मनसा यदा सम्यङ्नियच्चति।
12187044c तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा घटे दीपो ज्वलन्निव।।
बुद्धिय रश्मिगळंतिरुव इंद्रियगळन्नु मनस्सिनिंद नियंत्रिसिदाग घटस्थवागिरुव दीपवु प्रकाशिसुवंतॆ आत्मनु प्रकाशिसुत्तानॆ.
12187045a त्यक्त्वा यः प्राकृतं कर्म नित्यमात्मरतिर्मुनिः।
12187045c सर्वभूतात्मभूतः स्यात्स गच्चेत्परमां गतिम्।।
प्रकृतिसंबंध कर्मगळन्नु त्यजिसि नित्यवू आत्मरतियागिरुव मुनियु सर्वभूतात्मनागि परम गतियन्नु पडॆयुत्तानॆ.
12187046a यथा वारिचरः पक्षी लिप्यमानो न लिप्यते।
12187046c एवमेव कृतप्रज्ञो भूतेषु परिवर्तते।।
नीरिनल्लि नडॆयुव पक्षियु हेगॆ नीरिनिंद नॆनॆयुवुदिल्लवो हागॆ कृतप्रज्ञनु प्राणिगळ मध्यदल्लिद्दरू निर्लिप्तनागि वर्तिसुत्तानॆ.
12187047a एवंस्वभावमेवैतत् स्वबुद्ध्या विहरेन्नरः।
12187047c अशोचन्नप्रहृष्यंश्च चरेद्विगतमत्सरः।।
आत्मतत्त्ववु हीगॆ निर्लिप्त विशुद्ध स्वभावद्दॆंदु बुद्धिय मूलक तिळिदु नरनु शोक-हर्ष-मात्सर्यरहितनागि सर्वत्र समभावदिंदिरबेकु.
12187048a स्वभावसिद्ध्या संसिद्धान्स14 नित्यं सृजते गुणान्।
12187048c ऊर्णनाभिर्यथा स्रष्टा विज्ञेयास्तंतुवद्गुणाः।।
जेडर हुळवु हेगॆ तन्न सुत्तलू बलॆयन्नु हॆणॆदुकॊंडु अदर मध्यदल्लि कुळितुकॊळ्ळुवुदो हागॆ अत्मनु तन्न स्वभावयुक्तनागि नित्यवू गुणगळन्नु सृष्टिसुत्तिरुत्तानॆ. गुणगळे आ बलॆय तंतुगळॆंदु तिळियबेकु.
12187049a प्रध्वस्ता न निवर्तंते निवृत्तिर्नोपलभ्यते।
12187049c प्रत्यक्षेण परोक्षं तदनुमानेन सिध्यति।।
12187050a एवमेके व्यवस्यंति निवृत्तिरिति चापरे।
12187050c उभयं संप्रधार्यैतदध्यवस्येद्यथामति।।
आत्मसाक्षात्कारवादाग गुणगळु नष्टवागिबिडुत्तदॆयादरू अवु सर्वथा निर्वृत्तगॊळ्ळुवुदिल्ल. एकॆंदरॆ अवुगळ निवृत्तियन्नु प्रत्यक्ष नोडलिक्कागुवुदिल्ल. यावुदु परोक्षवो अदन्नु केवल अनुमानदिंदले सिद्धगॊळिसबेकागुत्तदॆ. इदु ऒंदु श्रेणिय विद्वांसर निश्चयवु. इतररु आत्मसाक्षात्कारदॊंदिगॆ गुणगळु सर्वथा निवृत्तियागुत्तवॆ ऎंदु अभिप्रायपडुत्तारॆ. ई ऎरडू मतगळ कुरितु चॆन्नागि विचारमाडिये तन्न बुद्धिय अनुसार यथार्थ वस्तुवन्नु निश्चयिसबेकु.
12187051a इतीमं हृदयग्रंथिं बुद्धिभेदमयं दृढम्।
12187051c विमुच्य सुखमासीत न शोचेच्चिन्नसंशयः।।
बुद्धियु कल्पिसिद ई भेदवे हृदयद सुदृढ गंटु. अदन्नु बिच्चि संशयरहितनाद ज्ञानी पुरुषनु सुखदिंदिरुत्तानॆ. ऎंदू शोकिसुवुदिल्ल.
12187052a मलिनाः प्राप्नुयुः शुद्धिं यथा पूर्णां नदीं नराः।
12187052c अवगाह्य सुविद्वंसो विद्धि ज्ञानमिदं तथा।।
शरीरवु कॊळॆयादाग मनुष्यरु तुंबिद नदियल्लि हेगॆ शुद्धियन्नु हॊंदुत्तारो हागॆ अज्ञानिगळु ज्ञानमयवाद ई नदियल्लि अवगाहनमाडिदरॆ शुद्धरू ज्ञानसंपन्नरू आगुत्तारॆंदु तिळि.
12187053a महानदीं हि पारज्ञस्तप्यते न तरन्यथा।
12187053c एवं ये विदुरध्यात्मं कैवल्यं ज्ञानमुत्तमम्।।
महानदिय मत्तॊंदु दडक्कॆ हेगॆ होगबेकॆंबुदु तिळिदिद्दरू अदन्नु दाटलु नौकॆ-नाविकन साधनवु बेकागुत्तदॆ. साधनगळु दॊरॆयुववरॆगॆ परितपिसुत्तले इरुत्तानॆ. आदरॆ तत्त्वज्ञनु संसारसागरवन्नु दाटलु यावुदे बाह्य साधनक्कागि कायबेकागुवुदिल्ल. तत्त्ववन्नु तिळिदमात्रदिंदले अवनु संसारसागरवन्नु दाटिबिडुत्तानॆ. संसारद सरपळिगळु तावागिये कळचिबीळुत्तवॆ. तत्त्वज्ञानवु स्वयं फलस्वरूपवे आगिदॆ.
1512187054a एतां बुद्ध्वा नरः सर्वां भूतानामागतिं गतिम्। 12187054c अवेक्ष्य च शनैर्बुद्ध्या लभते शं परं ततः।।
ई रीति बुद्धिपूर्वकवागि सर्व भूतगळ हुट्टु-सावुगळ कुरितु विचारिसिदरॆ मॆल्लमॆल्लने अवनिगॆ शांतियुंटागुत्तदॆ.
12187055a त्रिवर्गो यस्य विदितः प्राग्ज्योतिः स विमुच्यते16।
12187055c अन्विष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः।।
त्रिवर्गवन्नु तिळिदिरुव, मॊदले इवुगळन्नु परित्यजिसिद मत्तु मनस्सिन मूलक आत्मतत्त्ववन्नु अनुसंधान माडि योगयुक्तनागिरुव हागू आत्मक्किंत भिन्न वस्तुगळल्लि निरुत्साहियागिरुववनु तत्त्वदर्शियु.
12187056a न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिंद्रियेषु विभागशः।
12187056c तत्र तत्र विसृष्टेषु दुर्जयेष्वकृतात्मभिः।। 17
मनस्सन्नु तन्न वशदल्लिट्टुकॊंडिरद, भिन्न भिन्न विषयगळ कुरितु प्रेरितराद मत्तु इंद्रियगळन्नु नियंत्रिसलु शक्यरागदवरु आत्मसाक्षात्कारमाडिकॊळ्ळलु समर्थरागुवुदिल्ल.
12187057a एतद्बुद्ध्वा भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धलक्षणम्।
12187057c विज्ञाय तद्धि मन्यंते कृतकृत्या मनीषिणः।।
इदन्नु तिळिदु अदरंतॆ मनस्सु-इंद्रियगळन्नु वशपडिसिकॊंडवनु बुद्धनागुत्तानॆ. ज्ञानिय लक्षणवु बेरॆ यावुदिदॆ? मनीषिणरु इदन्नु तिळिदुकॊंडरे कृतकृत्यरादॆवॆंदु भाविसुत्तारॆ.
12187058a न भवति विदुषां ततो भयं यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत्।
12187058c न हि गतिरधिकास्ति कस्य चित् सति हि गुणे प्रवदंत्यतुल्यताम्।।
अज्ञानिगळिगिरुव महाभयवु ज्ञानिगळिगिरुवुदिल्ल. आत्मज्ञानवादकूडले ऎल्लरिगू ऒंदे विधद मुक्तियुंटागुत्तदॆ. ऒब्बरिगॆ हॆच्चिन अथवा ऒब्बरिगॆ कडिमॆ उत्कृष्टतॆय गतियु दॊरॆयुवुदिल्ल. आत्मज्ञानिगळॆल्लरू त्रिगुणातीतरागुत्तारॆ. गुणगळ संबंधविरुववरॆगॆ तारतम्य. गुणगळन्नु मीरिदरॆ साम्य.
12187059a यत्करोत्यनभिसंधिपूर्वकं तच्च निर्णुदति यत्पुरा कृतम्।
12187059c नाप्रियं तदुभयं कुतः प्रियं तस्य तज्जनयतीह कुर्वतः।।
निष्कामभावदिंद माडुव कर्मफलगळु कर्तृवु हिंदॆ माडिद पापकर्मगळ फलगळॆल्लवन्नू तॊळॆदुहाकुत्तदॆ. हिंदिन जन्मदल्लि माडिद कर्मगळु अवनिगॆ प्रियवाद अथवा अप्रियवाद फलगळन्नु कॊडुवुदिल्ल.
12187060a लोक आतुरजनान्विराविणस् तत्तदेव बहु पश्य शोचतः।
12187060c तत्र पश्य कुशलानशोचतो ये विदुस्तदुभयं पदं सदा18।।
लोकदल्लि आतुरजनरु प्रियवादुदन्नु कळॆदुकॊंडु बहुवागि शोकिसुवुदन्नु नोडु. इन्नॊंदॆडॆ शोकिसदे इरुव कुशलरन्नु नोडु. अज्ञानिगळु शोकपडुवुदक्कॆ कारण मत्तु सुज्ञानिगळु शोकपडदे इरलु कारण – इवॆरडन्नू यारु सतत चिंतनॆयिंद तिळिदुकॊळ्ळुवरो अवरु उत्तम पदवन्नु पडॆयुत्तारॆ.”
समाप्ति
इति श्रीमहाभारते शांतिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि आध्यात्मकथने सप्ताशीत्यधिकशतमोऽध्यायः।। इदु श्रीमहाभारतदल्लि शांतिपर्वदल्लि मोक्षधर्मपर्वदल्लि आध्यात्मकथन ऎन्नुव नूराऎंभत्तेळने अध्यायवु.-
इदर नंतर इन्नॊंदु अधिक श्लोकविदॆ: कृतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन् स्थावरजंगमम्। प्रलये कथमभ्येति तन्मे वक्तुमिहार्हसि।। (गीता प्रॆस्). ↩︎
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इदक्कॆ मॊदलु ई ऒंदु श्लोकार्धविदॆ: सृष्टिप्रलयसंयुक्तमाचार्यः परिदर्शितम्। (गीता प्रॆस्). ↩︎
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वायोः स्पर्शस्तथा चेष्टा त्वक्चैव त्रितयं स्मृतम्। (गीता प्रॆस्). ↩︎
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पाकस्त्रिविधं (गीता प्रॆस्). ↩︎
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पुरुषे तिष्ठती (गीता प्रॆस्). ↩︎
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समाधिस्थितियल्लि बुद्धियु गुण-भावगळन्नु अतिक्रमिसि होगुत्तदॆ (गीता प्रॆस्/भारत दर्शन). ↩︎
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हीगॆ समाधिस्थितियल्लि सुख-दुःख-मोहगळॆंब अथवा सत्त्व-रजस्सु-तमस्सुगळॆंब मूरु भागगळन्नु अतिक्रमिसि होदागलू बुद्धियु भावात्मक मनस्सिनल्लि सूक्ष्मरूपदल्लि इद्दे इरुत्तदॆ. समाधियिंद ऎद्द नंतर प्रवृत्त्यात्मकवाद रजोगुणवु बुद्धिभाववन्नु अनुसरिसुत्तदॆ (भारत दर्शन). ↩︎
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प्रवर्तयति सा तदा (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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इदक्कॆ मॊदलु ई ऒंदु श्लोकार्धविदॆ: ततः सत्त्वं तमोभावः प्रीतियोगात्प्रवर्तते। (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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अप्रीतिकर (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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अवमान (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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नीरिल्लदे हेगॆ मीनु इरुवुदिल्लवो हागॆ बुद्धिगॆ आधारभूतवाद आत्मनिल्लदिद्दरॆ बुद्धियु उळियुवुदिल्ल (भारत दर्शन). ↩︎
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बुद्धियु गुणगळन्नु सृष्टिसुत्तवॆ ऎन्नुवुदु मुंदॆ बुद्धिगॆ गुणगळॊडनॆ नेर संबंधविल्ल ऎन्नुव मुंदिन श्लोकद अर्थक्कॆ विरुद्धवागिरुवंतॆ तोरुत्तदॆ. आदरॆ गीता प्रॆस् मत्तु भारत दर्शन ऎरडरल्लियू इल्लि कॊट्टिरुव हागॆये अनुवादवन्नु माडिद्दारॆ. बहुषः इल्लि क्षेत्रज्ञनु गुणगळन्नु सृष्टिसुत्तानॆ ऎन्नुवुदु सरियॆंदु तोरुत्तदॆ. एकॆंदरॆ इदे अध्यायद ४८ ने श्लोकद प्रकार आत्मवे गुणगळन्नु जेडर बलॆयंतॆ हॆणॆयुत्तानॆ ऎंदिदॆ. ↩︎
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स्वभावयुक्त्या युक्तस्तु (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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इदक्कॆ मॊदलु ई ऒंदु अधिक श्लोकार्धविदॆ: एवं ये विदुराध्यात्मं केवलं ज्ञानमुत्तमम्। (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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प्रेक्ष्य यश्च विमुंचति। (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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इदक्कॆ मॊदलु ई ऒंदु श्लोकार्धविदॆ: लोकमातुरमसूयतेजनस्तस्य तज्जनयतीह सर्वतः। (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎
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सतां (भारत दर्शन/गीता प्रॆस्). ↩︎