044 गृहविभागः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शांति पर्व

राजधर्म पर्व

अध्याय 44

सार

गृहविभाग (1-16).

12044001 वैशंपायन उवाच।
12044001a ततो विसर्जयामास सर्वाः प्रकृतयो नृपः।
12044001c विविशुश्चाभ्यनुज्ञाता यथास्वानि गृहाणि च।।

अनंतर नृपनु प्रजॆगळॆल्लरन्नू बीळ्कॊट्टनु. अवन अप्पणॆपडॆदु अवरु तम्म तम्म मनॆगळिगॆ होदरु.

12044002a ततो युधिष्ठिरो राजा भीमं भीमपराक्रमम्।
12044002c सांत्वयन्नब्रवीद्धीमानर्जुनं यमजौ तथा।।

अनंतर राजा युधिष्ठिरनु भीमपराक्रमि भीमनन्नु संतविसुत्ता अर्जुन मत्तु यमळरिगॆ हेळिदनु:

12044003a शत्रुभिर्विविधैः शस्त्रैः कृत्तदेहा महारणे।
12044003c श्रांता भवंतः सुभृशं तापिताः शोकमन्युभिः।।

“महारणदल्लि शत्रुगळ विविध शस्त्रगळिंद निम्म शरीरगळु गायगॊंडिवॆ. शोक-क्रोधगळिंद तपिसि बळलिद्दीरि.

12044004a अरण्ये दुःखवसतीर्मत्कृते पुरुषोत्तमाः।
12044004c भवद्भिरनुभूताश्च यथा कुपुरुषैस्तथा।।

पुरुषोत्तमराद नीवु नन्निंदागि अरण्यदल्लि, भाग्यहीनरंतॆ वासिसि दुःखगळन्नु अनुभविसिदिरि.

12044005a यथासुखं यथाजोषं जयोऽयमनुभूयताम्।
12044005c विश्रांताऽल्लब्धविज्ञानान्श्वः समेतास्मि वः पुनः।।

यथासुखवागि यथेच्छॆयिंद ई जयवन्नु अनंदिसिरि! संपूर्ण विश्रांतियन्नु पडॆदु स्वस्थचित्तरादनंतर नाळॆ पुनः निम्मॊडनॆ सेरुत्तेनॆ.”

12044006a ततो दुर्योधनगृहं प्रासादैरुपशोभितम्।
12044006c बहुरत्नसमाकीर्णं दासीदाससमाकुलम्।।
12044007a धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातं भ्रात्रा दत्तं वृकोदरः।
12044007c प्रतिपेदे महाबाहुर्मंदरं मघवानिव।।

अनंतर धृतराष्ट्रन अनुमतियन्नु पडॆदु अवनु प्रासादगळिंद शोभिसुत्तिद्द, अनेक रत्नगळिंद कूडिद्द, दासी-दासर गुंपुगळिद्द दुर्योधनन अरमनॆयन्नु सहोदर वृकोदरनिगित्तनु. मंदरवन्नु इंद्रनु हेगो हागॆ महाबाहु भीमसेननु अदन्नु स्वीकरिसिदनु.

12044008a यथा दुर्योधनगृहं तथा दुःशासनस्य च।
12044008c प्रासादमालासंयुक्तं हेमतोरणभूषितम्।।
12044009a दासीदाससुसंपूर्णं प्रभूतधनधान्यवत्।
12044009c प्रतिपेदे महाबाहुरर्जुनो राजशासनात्।।

दुर्योधनन अरमनॆयंतॆये प्रासादगळ सालुगळिंद कूडिद्द, हेमतोरणभूषितवाद, दासी-दासरिंद संपूर्णवागिद्द, धन-धान्यगळिंद समृद्धवागिद्द दुःशासनन अरमनॆयन्नु राजशासनदंतॆ महाबाहु अर्जुननु पडॆदुकॊंडनु.

12044010a दुर्मर्षणस्य भवनं दुःशासनगृहाद्वरम्।
12044010c कुबेरभवनप्रख्यं मणिहेमविभूषितम्।।
12044011a नकुलाय वरार्हाय कर्शिताय महावने।
12044011c ददौ प्रीतो महाराज धर्मराजो युधिष्ठिरः।।

महाराज! दुःशासनन अरमनॆगिंतलू श्रेष्ठवागिद्द, कुबेरभवनदंतिद्द, मणिहेमविभूषितवागिद्द दुर्मर्षणन अरमनॆयन्नु महावनदल्लि अनेक कष्टगळन्ननुभविसि, बहुमानक्कॆ योग्यनागिद्द नकुलनिगॆ धर्मराज युधिष्ठिरनु प्रीतियिंद कॊट्टनु.

12044012a दुर्मुखस्य च वेश्माग्र्यं श्रीमत्कनकभूषितम्।
12044012c पूर्णं पद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम्।।
12044013a प्रददौ सहदेवाय सततं प्रियकारिणे।
12044013c मुमुदे तच्च लब्ध्वा स कैलासं धनदो यथा।।

कांतियुक्तवागिद्द, कनकभूषित, पद्मदलयताक्षी स्त्रीयर शयनमंदिरगळिंद संपन्नवागिद्द दुर्मुखन अग्र अरमनॆयन्नु युधिष्ठिरनु सततवू प्रियकारणियागिद्द सहदेवनिगॆ कॊट्टनु. कैलासवन्नु पडॆद कुबेरनंतॆ आ अरमनॆयन्नु पडॆद सहदेवनु मुदितनादनु.

12044014a युयुत्सुर्विदुरश्चैव संजयश्च महाद्युतिः।
12044014c सुधर्मा चैव धौम्यश्च यथास्वं जग्मुरालयान्।।

युयुत्सु, विदुर, महाद्युति संजय, सुधर्मा मत्तु धौम्यरु तावु हिंदॆ वासमाडुत्तिद्द मनॆगळिगे तॆरळिदरु.

12044015a सह सात्यकिना शौरिरर्जुनस्य निवेशनम्।
12044015c विवेश पुरुषव्याघ्रो व्याघ्रो गिरिगुहामिव।।

सात्यकियॊंदिगॆ पुरुषव्याघ्र शौरियु, गिरिगुहॆयन्नु प्रवेशिसुव व्याघ्रदंतॆ, अर्जुनन अरमनॆयन्नु प्रवेशिसिदनु.

12044016a तत्र भक्षान्नपानैस्ते समुपेताः सुखोषिताः।
12044016c सुखप्रबुद्धा राजानमुपतस्थुर्युधिष्ठिरम्।।

अल्लि भक्षान्न पानीयगळिंद तृप्तरागि, सुखवागि रात्रियन्नु कळॆदु, सुखिगळागिये ऎच्चॆत्तु राज युधिष्ठिरन बळि होदरु.”

समाप्ति

इति श्री महाभारते शांतिपर्वणि राजधर्मपर्वणि गृहविभागे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।।
इदु श्री महाभारत शांतिपर्वद राजधर्मपर्वदल्लि गृहविभाग ऎन्नुव नल्वत्नाल्कने अध्यायवु.