024 व्यासवाक्यः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शांति पर्व

राजधर्म पर्व

अध्याय 24

सार

व्यासनु शंख-लिखितर कथॆयन्नु हेळि युधिष्ठिरनिगॆ राजधर्मदल्लिये दृढनागिरलु आज्ञॆयन्नु नीडिदुदु (1-30).

12024001 युधिष्ठिर उवाच।
12024001a भगवन्कर्मणा केन सुद्युम्नो वसुधाधिपः।
12024001c संसिद्धिं परमां प्राप्तः श्रोतुमिच्चामि तं नृपम्।।

युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “भगवन्! वसुधाधिप नृप सुद्युम्ननु याव कर्मदिंद परम संसिद्धियन्नु पडॆदनु ऎन्नुवुदन्नु केळलु बयसुत्तेनॆ.”

12024002 व्यास उवाच।
12024002a अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्।
12024002c शंखश्च लिखितश्चास्तां भ्रातरौ संयतव्रतौ।।

व्यासनु हेळिदनु: “ई विषयदल्लि संयतव्रतरागिद्द शंख मत्तु लिखित ऎन्नुव सहोदरर पुरातन इतिहासवन्नु उदाहरिसुत्तारॆ.

12024003a तयोरावसथावास्तां रमणीयौ पृथक् पृथक्।
12024003c नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैरुपेतौ बाहुदामनु।।

अवरिगॆ बाहुदानदिय तीरदल्लि नित्यपुष्प-फलगळ वृक्षगळिंद तुंबिद्द रमणीयवाद प्रत्येक आश्रमगळिद्दवु.

12024004a ततः कदा चिल्लिखितः शंखस्याश्रममागमत्।
12024004c यदृच्चयापि शंखोऽथ निष्क्रांतोऽभवदाश्रमात्।।

हीगिरलु ऒम्मॆ लिखितनु शंखन आश्रमक्कॆ बंदनु. अकस्मात्तागि अदे समदल्लि शंखनु आश्रमद हॊरगॆ होगिद्दनु.

12024005a सोऽभिगम्याश्रमं भ्रातुः शंखस्य लिखितस्तदा।
12024005c फलानि शातयामास सम्यक्परिणतान्युत।।

अण्ण शंखन आश्रमक्कॆ बंदु लिखितनु अल्लि चॆन्नागि हण्णागिद्द फलगळन्नु वृक्षदिंद कॆळक्कॆ बीळिसिदनु.

12024006a तान्युपादाय विस्रब्धो भक्षयामास स द्विजः।
12024006c तस्मिंश्च भक्षयत्येव शंखोऽप्याश्रममागमत्।।

अवुगळन्नु ऒट्टुहाकि ऒंदॆडॆयल्लि कुळितु आ द्विजनु निश्चिंतॆयिंद तिन्नुत्तिद्दनु. अवुगळन्नु तिन्नुत्तिरुवागले शंखनु आश्रमक्कॆ हिंदिरुगिदनु.

12024007a भक्षयंतं तु तं दृष्ट्वा शंखो भ्रातरमब्रवीत्।
12024007c कुतः फलान्यवाप्तानि हेतुना केन खादसि।।

हण्णुगळन्नु तिन्नुत्तिरुव अवनन्नु नोडि शंखनु “ई हण्णुगळु ऎल्लि दॊरकिदवु? एकॆ इवुगळन्नु तिन्नुत्तिरुवॆ?” ऎंदु तम्मनन्नु केळिदनु.

12024008a सोऽब्रवीद्भ्रातरं ज्येष्ठमुपस्पृश्याभिवाद्य च।
12024008c इत एव गृहीतानि मयेति प्रहसन्निव।।

अवनु अण्णन बळिहोगि, पादगळन्नु मुट्टि नमस्करिसि, नगुत्ता “इवुगळन्नु नानु इल्लिंदले तॆगॆदुकॊंडॆ!” ऎंदनु.

12024009a तमब्रवीत्तदा शंखस्तीव्रकोपसमन्वितः।
12024009c स्तेयं त्वया कृतमिदं फलान्याददता स्वयम्।।
12024009e गच्च राजानमासाद्य स्वकर्म प्रथयस्व वै।।

इदन्नु केळि शंखनु तीव्र शोकसमन्वितनागि तम्मनिगॆ हेळिदनु: “स्वयं नीने ई हण्णुगळन्नु तॆगॆदुकॊंडिदुदरिंद नीनु कळ्ळतन माडिरुवॆ. होगु! राजनल्लिगॆ होगि नीनु माडिद कॆलसवन्नु हेळिको!

12024010a अदत्तादानमेवेदं कृतं पार्थिवसत्तम।
12024010c स्तेनं मां त्वं विदित्वा च स्वधर्ममनुपालय।।
12024010e शीघ्रं धारय चौरस्य मम दंडं नराधिप।।

“पार्थिवसत्तम! दानवागि कॊट्टिरद, यारन्नू केळदे मत्तु यारिगू हेळदे नानु फलवन्नु तिंदुबिट्टॆनु. नन्नन्नु नीनु कळ्ळनॆंदु तिळिदु स्वधर्मवन्नु अनुसरिसु. नराधिप! कळ्ळनिगॆ दॊरकुव शिक्षॆयन्नु ननगू शीघ्रवागि नीडु!””

12024011a इत्युक्तस्तस्य वचनात्सुद्युम्नं वसुधाधिपम्।
12024011c अभ्यगच्चन्महाबाहो लिखितः संशितव्रतः।।

महाबाहो! अवन मातिनंतॆ संशितव्रत लिखितनु वसुधाधिप सुद्युम्ननल्लिगॆ होदनु.

12024012a सुद्युम्नस्त्वंतपालेभ्यः श्रुत्वा लिखितमागतम्।
12024012c अभ्यगच्चत्सहामात्यः पद्भ्यामेव नरेश्वरः।।

लिखितन बरुविकॆयन्नु द्वारपालरिंद केळिद नरेश्वर सुद्युम्ननु अमात्यरॊंदिगॆ काल्नडुगॆयल्लिये बंदनु.

12024013a तमब्रवीत्समागत्य स राजा ब्रह्मवित्तमम्।
12024013c किमागमनमाचक्ष्व भगवन्कृतमेव तत्।।

आ ब्रह्मवित्तमनन्नु स्वागतिसि राजनु “भगवन्! नीनु याव कारणदिंद इल्लिगॆ आगमिसिरुवॆयो आ कार्यवु आदंतॆये तिळि” ऎंदनु.

12024014a एवमुक्तः स विप्रर्षिः सुद्युम्नमिदमब्रवीत्।
12024014c प्रतिश्रौषि करिष्येति श्रुत्वा तत्कर्तुमर्हसि।।

हीगॆ हेळलु आ विप्रर्षियु सुद्युम्ननिगॆ हेळिदनु: “माडुत्तेनॆ ऎंदु मातुकॊट्टमेलॆ, नानु हेळुवुदन्नु केळि अदरंतॆये माडबेकागुत्तदॆ!

12024015a अनिसृष्टानि गुरुणा फलानि पुरुषर्षभ।
12024015c भक्षितानि मया राजंस्तत्र मां शाधि माचिरम्।।

पुरुषर्षभ! राजन्! अवनु कॊडदॆये मत्तु अवनन्नु केळदॆये नानु अण्णन फलगळन्नु तिंदिद्देनॆ. आ अपराधक्कॆ कूडले नन्नन्नु शिक्षिसु!”

12024016 सुद्युम्न उवाच।
12024016a प्रमाणं चेन्मतो राजा भवतो दंडधारणे।
12024016c अनुज्ञायामपि तथा हेतुः स्याद्ब्राह्मणर्षभ।।

सुद्युम्ननु हेळिदनु: “ब्राह्मणर्षभ! निन्नन्नु शिक्षिसलु राजनु मात्र अर्हनॆंदु इरुवुदादरॆ निन्नन्नु क्षमिसि कळुहिसिकॊडलू अवनु अर्हनल्लवे?

12024017a स भवानभ्यनुज्ञातः शुचिकर्मा महाव्रतः।
12024017c ब्रूहि कामानतोऽन्यांस्त्वं करिष्यामि हि ते वचः।।

शुचिकर्मा! महाव्रत! निन्नन्नु नानु क्षमिसिद्देनॆ मत्तु हिंदिरुगलु अनुमतियित्तिद्देनॆ. मत्तेनादरू अभिलाषॆगळिद्दरॆ अदन्नू हेळु. निन्न आ मातन्नू नडॆसिकॊडुत्तेनॆ.””

12024018 व्यास उवाच।
12024018a चंद्यमानोऽपि ब्रह्मर्षिः पार्थिवेन महात्मना।
12024018c नान्यं वै वरयामास तस्माद्दंडादृते वरम्।।

व्यासनु हेळिदनु: “महात्म पार्थिवनु समाधान पडिसुत्तिद्दरू ब्रह्मर्षियु “शिक्षॆय वरवन्नल्लदे बेरॆ याव वरवन्नू निन्निंद नानु स्वीकरिसुवुदिल्ल” ऎंदु हठहिडिदनु.

12024019a ततः स पृथिवीपालो लिखितस्य महात्मनः।
12024019c करौ प्रच्चेदयामास धृतदंडो जगाम सः।।

आग आ पृथिवीपालनु महात्म लिखितन ऎरडू कैगळन्नू कत्तरिसुंतॆ माडिदनु. शिक्षॆयन्नु पडॆद अवनु हॊरटुहोदनु.

12024020a स गत्वा भ्रातरं शंखमार्तरूपोऽब्रवीदिदम्।
12024020c धृतदंडस्य दुर्भुद्धेर्भगवन् क्षंतुमर्हसि।।

अवनु अण्ण शंखन बळि होगि आर्तरूपनागि “भगवन्! शिक्षॆयन्नु पडॆद ई दुर्बुद्धियन्नु क्षमिसबेकु” ऎंदु केळिकॊंडनु.

12024021 शंख उवाच।
12024021a न कुप्ये तव धर्मज्ञ न च दूषयसे मम।
12024021c धर्मस्तु ते व्यतिक्रांतस्ततस्ते निष्कृतिः कृता।।

शंखनु हेळिदनु: “धर्मज्ञ! निन्नमेलॆ कोपविल्ल. निन्नन्नु दूषिसुवुदू इल्ल. धर्मवन्नु अतिक्रमिसिदुदरिंद निनगॆ ई प्रायश्चित्तवायितु.

12024022a स गत्वा बाहुदां शीघ्रं तर्पयस्व यथाविधि।
12024022c देवान्पितृनृषींश्चैव मा चाधर्मे मनः कृथाः।।

शीघ्रदल्लिये नीनु बहुदानदिगॆ होगि यथाविधियागि देवतॆगळिगू, पितृगळिगू, ऋषिगळिगू तर्पणगळन्नु नीडु. निन्न मनस्सन्नु अधर्मदल्लि तॊडगिसबेड!””

12024023 व्यास उवाच।
12024023a तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शंखस्य लिखितस्तदा।
12024023c अवगाह्यापगां पुण्यामुदकार्थं प्रचक्रमे।।

व्यासनु हेळिदनु: “शंखन आ मातन्नु केळिद लिखितनु पुण्य नदियल्लि मिंदु तर्पणगळन्नु कॊडलु प्रारंभिसिदनु.

12024024a प्रादुरास्तां ततस्तस्य करौ जलजसंनिभौ।
12024024c ततः स विस्मितो भ्रातुर्दर्शयामास तौ करौ।।

कूडले अवनिगॆ कमलदंतह कैगळु हुट्टिकॊंडवु. विस्मितनाद अवनु तन्न आ ऎरडू कैगळन्नू अण्णनिगॆ तोरिसिदनु.

12024025a ततस्तमब्रवीच्चंखस्तपसेदं कृतं मया।
12024025c मा च तेऽत्र विशंका भूद्दैवमेव विधीयते।।

आग शंखनु “नन्न तपस्सिनिंदागि नाने इदन्नु हीगॆ माडिदॆनु. इदरल्लि शंकॆताळदिरु. दैववे ऎल्लवन्नू माडिसुत्तदॆ!” ऎंदु हेळिदनु.

12024026 लिखित उवाच।
12024026a किं नु नाहं त्वया पूतः पूर्वमेव महाद्युते।
12024026c यस्य ते तपसो वीर्यमीदृशं द्विजसत्तम।।

लिखितनु हेळिदनु: “महाद्युते! द्विजसत्तम! निन्न तपस्सिन वीर्यवु ई तरहनागित्तॆंदरॆ मॊदले नीनु नन्नन्नु पवित्रनन्नागि माडबहुदित्तल्लवे?”

12024027 शंख उवाच।
12024027a एवमेतन्मया कार्यं नाहं दंडधरस्तव।
12024027c स च पूतो नरपतिस्त्वं चापि पितृभिः सह।।

शंखनु हेळिदनु: “हीगॆ माडुवुदे नन्न कर्तव्यवागित्तु. निनगॆ शिक्षॆयन्नु विधिसुववनु नानल्ल! निनगॆ दंडवन्नित्तु आ नरपतियू, पितृगळॊंदिगॆ नीनू पवित्ररादिरि!””

12024028 व्यास उवाच।
12024028a स राजा पांडवश्रेष्ठ श्रेष्ठो वै तेन कर्मणा।
12024028c प्राप्तवान्परमां सिद्धिं दक्षः प्राचेतसो यथा।।

व्यासनु हेळिदनु: “पांडवश्रेष्ठ! दंडधारणॆय आ श्रेष्ठ कर्मदिंदागि राजा सुद्युम्ननु दक्ष प्राचेतसनंतॆ परम सिद्धियन्नु पडॆदनु.

12024029a एष धर्मः क्षत्रियाणां प्रजानां परिपालनम्।
12024029c उत्पथेऽस्मिन्महाराज मा च शोके मनः कृथाः।।

महाराज! प्रजॆगळ परिपालनॆये क्षत्रियर धर्म. आदुदरिंद इदर कुरितु शोकिसबेड!

12024030a भ्रातुरस्य हितं वाक्यं शृणु धर्मज्ञसत्तम।
12024030c दंड एव हि राजेंद्र क्षत्रधर्मो न मुंडनम्।।

धर्मज्ञ! सत्तम! तम्मन हितवाक्यवन्नु केळु. राजेंद्र! दंडवे क्षत्रधर्म. मुंडनवल्ल!””

समाप्ति

इति श्री महाभारते शांतिपर्वणि राजधर्मपर्वणि व्यासवाक्ये चतुर्विंशोऽध्यायः।।
इदु श्री महाभारत शांतिपर्वद राजधर्मपर्वदल्लि व्यासवाक्य ऎन्नुव इप्पत्नाल्कने अध्यायवु.