प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
शांति पर्व
राजधर्म पर्व
अध्याय 11
सार
अर्जुननु पक्षिरूपधारी इंद्र मत्तु ऋषिबालकर संवादवन्नु उल्लेखिसुत्ता गृहस्थ धर्म पालनॆय कुरितु हेळिदुदु (1-28).
12011001 अर्जुन उवाच।
12011001a अत्रैवोदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्।
12011001c तापसैः सह संवादं शक्रस्य भरतर्षभ।।
अर्जुननु हेळिदनु: “भरतर्षभ! ई विषयदल्लि तापसरु मत्तु शक्रन नडुवॆ नडॆद ई पुरातन ऐतिहासिक संवादवन्नु उदाहरिसि हेळुत्तारॆ.
12011002a के चिद्गृहान्परित्यज्य वनमभ्यगमन्द्विजाः।
12011002c अजातश्मश्रवो मंदाः कुले जाताः प्रवव्रजुः।।
हिंदॊम्मॆ उत्तम कुलगळल्लि हुट्टिद्द, इन्नू गड्ड-मीसॆगळु हुट्टिरद मंदबुद्धिय द्विजरु मनॆगळन्नु तॊरॆदु वनद कडॆ नडॆदरु.
12011003a धर्मोऽयमिति मन्वाना ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिताः।
12011003c त्यक्त्वा गृहान्पितृंश्चैव तानिंद्रोऽन्वकृपायत।।
मनॆ, मत्तु तंदॆ-तायंदिरन्नु तॊरॆदु इदे धर्मवॆंदु तिळिदु अवरु ब्रह्मचर्यदल्लि निरतरागिद्दरु. इंद्रनु अवर मेलॆ कृपॆदोरिदनु.
12011004a तानाबभाषे भगवान्पक्षी भूत्वा हिरण्मयः।
12011004c सुदुष्करं मनुष्यैश्च यत्कृतं विघसाशिभिः।।
12011005a पुण्यं च बत कर्मैषां प्रशस्तं चैव जीवितम्।
12011005c संसिद्धास्ते गतिं मुख्यां प्राप्ता धर्मपरायणाः।।
अवनु बंगारद पक्षियागि अवरिगॆ हेळिदनु: “विघस1वन्नु तिन्नुव मनुष्यर जीवनवन्नु नडॆसुवुदु तुंबा कष्टवादुदु. आदरॆ आवर कर्मगळु पुण्यकरवू प्रशस्त जीवनवू अल्लवे? धर्मपरायणराद अवरु सिद्धिगळन्नु पडॆदु श्रेष्ठ गतियन्नु हॊंदुत्तारॆ.”
12011006 ऋषय ऊचुः।
12011006a अहो बतायं शकुनिर्विघसाशान्प्रशंसति।
12011006c अस्मान्नूनमयं शास्ति वयं च विघसाशिनः।।
ऋषिगळु हेळिदरु: “अय्यो! ई पक्षियु विघसवन्नु सेविसुववरन्नु प्रशंसिसुत्तिदॆ! नावू विघसवन्नु सेविसुवरागबेकॆंदु उपदेशिसुत्तिदॆ!”
12011007 शकुनिरुवाच।
12011007a नाहं युष्मान्प्रशंसामि पंकदिग्धान्रजस्वलान्।
12011007c उच्चिष्टभोजिनो मंदानन्ये वै विघसाशिनः।।
पक्षियु हेळितु: “कॆसरिनिंदलू धूळिनिंदलू मुच्चिरुव पक्षिगळ ऎंजलन्नु तिन्नुव निम्मन्नु नानु प्रशंसिसुत्तिल्ल! मूढरे! विघसाशिगळु बेरॆये इद्दारॆ. अवरन्नु नानु प्रशंसिसुत्तिद्देनॆ!”
12011008 ऋषय ऊचुः।
12011008a इदं श्रेयः परमिति वयमेवाभ्युपास्महे।
12011008c शकुने ब्रूहि यच्च्रेयो भृशं वै श्रद्दधाम ते।।
ऋषिगळु हेळिदरु: “इदे परम श्रेयस्करवॆंदु नावु ई जीवनवन्नु नडॆसुत्तिरुवॆवु. पक्षिये! इदक्किंतलू श्रेयस्करवादुदिद्दरॆ हेळु. निन्न मातिन मेलॆ नमगॆ श्रद्धॆयिदॆ!”
12011009 शकुनिरुवाच।
12011009a यदि मां नाभिशंकध्वं विभज्यात्मानमात्मना।
12011009c ततोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं हितं वचः।।
पक्षियु हेळितु: “नन्न मातन्नु नीवु शंकिसदिद्दरॆ नन्नल्लि नाने योचिसि विभजिसि निमगॆ ऒळ्ळॆयदागुवंतह हितवचनवन्नु हेळुत्तेनॆ. केळि!”
12011010 ऋषय ऊचुः।
12011010a शृणुमस्ते वचस्तात पंथानो विदितास्तव।
12011010c नियोगे चैव धर्मात्मन् स्थातुमिच्चाम शाधि नः।।
ऋषिगळु हेळिदरु: “अय्या! नावु निन्न मातन्नु केळुत्तेवॆ! निनगॆ सिद्धिसाधक मार्गगळु तिळिदिवॆ. धर्मात्मन्! नमगॆ उपदेशिसु. अदरंतॆये नावु नडॆदुकॊळ्ळलु बयसुत्तेवॆ.”
12011011 शकुनिरुवाच 12011011a चतुष्पदां गौः प्रवरा लोहानां कांचनं वरम्।
12011011c शब्दानां प्रवरो मंत्रो ब्राह्मणो द्विपदां वरः।।
पक्षियु हेळितु: “नाल्कु कालुगळिरुव प्राणिगळल्लि गोवु श्रेष्ठवादुदु. लोहगळल्लि चिन्नवु श्रेष्ठवादुदु. शब्धगळल्लि मंत्रवु श्रेष्ठवादुदु. मत्तु ऎरडु कालिरुव मनुष्यरल्लि ब्राह्मणरु श्रेष्ठ.
12011012a मंत्रोऽयं जातकर्मादि ब्राह्मणस्य विधीयते।
12011012c जीवतो यो यथाकालं श्मशाननिधनादिति।।
ब्राह्मणनिगॆ मंत्रपूर्वकवाद जातकर्मादि संस्कारगळिवॆ. अवनु जीविसिरुवाग यथाकालदल्लि मत्तु निधनद नंतर श्मशानदल्लियू विविध संस्कारगळिवॆ.
12011013a कर्माणि वैदिकान्यस्य स्वर्ग्यः पंथास्त्वनुत्तमः।
12011013c अथ सर्वाणि कर्माणि मंत्रसिद्धानि चक्षते।।
ब्राह्मणरिगॆ वैदिक कर्मगळे स्वर्गद उत्तम मार्गवु. अवन सर्व कर्मगळू मंत्रसिद्ध ऎंदु हेळुत्तारॆ.
12011014a आम्नायदृढवादीनि तथा सिद्धिरिहेष्यते।
12011014c मासार्धमासा ऋतव आदित्यशशितारकम्।।
12011015a ईहंते सर्वभूतानि तदृतं कर्मसंगिनाम्।
12011015c सिद्धिक्षेत्रमिदं पुण्यमयमेवाश्रमो महान्।।
वेदगळु इवन्नु दृढपडिसिवॆ. इवुगळिंदले सिद्धियू दॊरॆयुत्तदॆ. मास, पक्ष, ऋतु, सूर्य, चंद्र, नक्षत्रगळु सूचिसुव यज्ञगळन्नु माडलु ऎल्ल प्राणिगळू इच्छिसुत्तवॆ. आदुदरिंद कर्मसंगिगळ गृहस्थाश्रमवे सिद्धिक्षेत्रवॆंदू महा पुण्यमयवॆंदू हेळुत्तारॆ.
12011016a अथ ये कर्म निंदंतो मनुष्याः कापथं गताः।
12011016c मूढानामर्थहीनानां तेषामेनस्तु विद्यते।।
कर्मवन्नु निंदिसि कॆट्टदारियल्लि होगुव मूढ मनुष्यरु अर्थहीनरागुत्तारॆ ऎंदु तिळियबेकु.
12011017a देववंशान्पितृवंशान्ब्रह्मवंशांश्च शाश्वतान्।
12011017c संत्यज्य मूढा वर्तंते ततो यांत्यश्रुतीपथम्।।
मूढरु शाश्वतराद देववंशगळन्नु, पितृवंशगळन्नु मत्तु ब्रह्मवंशगळन्नु तृप्तिपडिसुवुदन्नु बिट्टु तम्म वर्तनॆगळिंद शृतिगळिगॆ विरुद्ध मार्गदल्लि होगुत्तारॆ.
12011018a एतद्वोऽस्तु तपो युक्तं ददानीत्यृषिचोदितम्।
12011018c तस्मात्तदध्यवसतस्तपस्वि तप उच्यते।।
ऋषिगळु हाकिकॊट्टिरुव इदे तपोयुक्तवॆनिसुत्तदॆ. अदरल्लिये निरतनागिरुववनिगॆ तपस्वि मत्तु तपस्सु ऎंदु हेळुत्तारॆ.
12011019a देववंशान्पितृवंशान्ब्रह्मवंशांश्च शाश्वतान्।
12011019c संविभज्य गुरोश्चर्यां तद्वै दुष्करमुच्यते।।
शाश्वत देववंशगळन्नू, पितृवंशगळन्नू मत्तु ब्रह्मवंशगळन्नू प्रत्येक प्रत्येकवागि तृप्तिपडिसुवुदु दुष्करवॆंदु गुरुगळु हेळुत्तारॆ2.
12011020a देवा वै दुष्करं कृत्वा विभूतिं परमां गताः।
12011020c तस्माद्गार्हस्थ्यमुद्वोढुं दुष्करं प्रब्रवीमि वः।।
इंतह दुष्कर कर्मगळन्नु माडिये देवतॆगळु श्रेष्ठ वैभववन्नु पडॆदिरुत्तारॆ. आदुदरिंद दुष्करवादरू गार्हस्थ्यधर्मवु हॆच्चिनदॆंदु नानु हेळुत्तिद्देनॆ.
12011021a तपः श्रेष्ठं प्रजानां हि मूलमेतन्न संशयः।
12011021c कुटुंबविधिनानेन यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
इंतह गृहस्थाश्रमद तपस्से श्रेष्ठवादुदु मत्तु प्रजॆगळ हितसाधनॆगॆ मूलकारण ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल. ऎल्ल कुटुंबविधिगळू ई गृहस्थाश्रमदल्लिये प्रतिष्ठितवागिवॆ.
12011022a एतद्विदुस्तपो विप्रा द्वंद्वातीता विमत्सराः।
12011022c तस्माद्वनं मध्यमं च लोकेषु तप उच्यते।।
शीतोष्ण-सुखदुःखगळॆंब द्वंद्वगळिगॆ अतीतराद मत्तु मत्सर रहितराद विप्ररु गृहस्थाश्रमवन्ने तपस्सॆंदु परिगणिसुत्तारॆ. आदुदरिंद ई मध्यमव्रतवन्ने तपस्सॆंदु लोकगळु हेळुत्तवॆ.
12011023a दुराधर्षं पदं चैव गच्चंति विघसाशिनः।
12011023c सायंप्रातर्विभज्यान्नं स्वकुटुंबे यथाविधि।।
12011024a दत्त्वातिथिभ्यो देवेभ्यः पितृभ्यः स्वजनस्य च।
12011024c अवशिष्टानि येऽश्नंति तानाहुर्विघसाशिनः।।
विघसाशिगळु सामान्यरु जयिसलु असाध्यवाद पुण्यलोकगळिगॆ होगुत्तारॆ. सायंकाल मत्तु प्रातःकालगळल्लि तम्म कुटुंबदल्लि यथाविधियागि आहारवन्नु विभागिसि, देव-पितृगळिगॆ निवेदनॆ माडि, अतिथिगळिगू मत्तु बंधुवर्गदवरिगू भोजनमाडिसि उळिदुदन्नु यारु तिन्नुत्तारॆयो अवरन्ने विघसाशिगळॆंदु करॆयुत्तारॆ.
12011025a तस्मात्स्वधर्ममास्थाय सुव्रताः सत्यवादिनः।
12011025c लोकस्य गुरवो भूत्वा ते भवंत्यनुपस्कृताः।।
आदुदरिंद सुव्रत सत्यवादी विघसाशिगळु स्वधर्मदल्लिये निरतरागिद्दुकॊंडु यावुदे संशयगळिल्लदे, लोकद गुरुगळागि विराजिसुत्तारॆ.
12011026a त्रिदिवं प्राप्य शक्रस्य स्वर्गलोके विमत्सराः।
12011026c वसंति शाश्वतीर्वर्षा जना दुष्करकारिणः।।
मात्सर्यविल्लदे इंतह दुष्कर ग्रहस्थाश्रमधर्मवन्नु अनुसरिसि ई विघसाशिगळु त्रिदिववन्नु सेरि शक्रन स्वर्गलोकदल्लि शाश्वतकालगळ पर्यंत वासमाडुत्तारॆ.”
12011027a ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा तस्य धर्मार्थसंहितम्।
12011027c उत्सृज्य नास्तिकगतिं गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रिताः।।
आ पक्षिय धर्मार्थगळिंद कूडिद मातुगळन्नु केळि आ ब्राह्मणरु नास्तिकगतियन्नु बिट्टु गृहस्थधर्मवन्नु आश्रयिसिदरु.
12011028a तस्मात्त्वमपि दुर्धर्ष धैर्यमालंब्य शाश्वतम्।
12011028c प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां हतामित्रां नरोत्तम।।
नरोत्तम! दुर्धर्ष! नीनू कूड धैर्यवन्नु ताळि शत्रुगळिंद रहितवागिरुव ई इडी भूमियन्नु आळु!””
समाप्ति
इति श्री महाभारते शांति पर्वणि राजधर्म पर्वणि अर्जुनवाक्ये ऋषिशकुनिसंवादकथने एकादशोऽध्यायः।।
इदु श्री महाभारत शांति पर्वद राजधर्म पर्वदल्लि अर्जुनवाक्ये ऋषि-शकुनिसंवादकथन ऎन्नुव हन्नॊंदने अध्यायवु.
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विघस ऎंदरॆ यज्ञशेष अथवा भोजन शेष. यज्ञमाडि होमशेषवन्नु प्रसादरूपवागि उण्णुववरु मत्तु अतिथि-अभ्यागतरन्नु सत्करिसि भोजन नीडि नंतर उळिद अन्नवन्नु भक्षिसुववरु विघसाशिगळु. विघसवु अमृतसमान – अमृतं विघसो यज्ञ शेषभोजन शेषयोः|| (अमर कोश) ↩︎
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दिनद कालवन्नु विभजिसि यज्ञगळ मूलक देवतॆगळन्नु, स्वाध्याय-ब्रह्मयज्ञादिगळ मूलक ब्रह्मवंशीय ऋषिगळन्नू, मत्तु श्राद्ध-तर्पणादिगळ मूलक पितृगळन्नू तृप्तिपडिसुवुदु मत्तु गुरुशुश्रूषॆमाडुवुदु दुष्करवॆंदु विध्वांसरु हेळुत्तारॆ. ↩︎