प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
सौप्तिक पर्व
सौप्तिक पर्व
अध्याय 3
सार
अश्वत्थामनु आ रात्रि मलगिरुव पांचालरन्नु तानु संहरिसुवॆनॆंदु पुनः हेळिकॊंडिदुदु (1-35).
10003001 संजय उवाच।
10003001a कृपस्य वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं शुभं।
10003001c अश्वत्थामा महाराज दुःखशोकसमन्वितः।।
10003002a दह्यमानस्तु शोकेन प्रदीप्तेनाग्निना यथा।
10003002c क्रूरं मनस्ततः कृत्वा तावुभौ प्रत्यभाषत।।
संजयनु हेळिदनु: “महाराज! कृपन आ धर्मार्थसंहित शुभ मातुगळन्नु केळि दुःखशोकसमन्वितनाद अश्वत्थामनु प्रज्वलिसुत्तिरुव अग्नियंतॆ शोकदिंद दहिसुत्ता मनस्सन्नु क्रूरवन्नागिसिकॊंडु अवरिब्बरिगू उत्तरिसिदनु:
10003003a पुरुषे पुरुषे बुद्धिः सा सा भवति शोभना।
10003003c तुष्यंति च पृथक् सर्वे प्रज्ञया ते स्वया स्वया।।
“प्रतियॊब्ब पुरुषनिगू अवनिगिरुव बुद्धियु उत्तमवादुदॆंदु अन्निसुत्तदॆ. ऎल्लरू तम्म तम्म प्रत्येक बुद्धिगळिंद तृप्तरागिरुत्तारॆ.
10003004a सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरं।
10003004c सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वात्मानं प्रशंसति।।
लोकदल्लि ऎल्लरू तम्मन्नु तावे अति बुद्धिवंतरॆंदु तिळिदुकॊंडिरुत्तारॆ. ऎल्लरू तम्म मतवे बहुमतवॆंदु तिळिदुकॊंडिरुत्तारॆ. ऎल्लरू तम्म बुद्धियन्ने प्रशंसॆमाडिकॊळ्ळुत्तारॆ.
10003005a सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता।
10003005c परबुद्धिं च निंदंति स्वां प्रशंसंति चासकृत्।।
ऎल्लरू तम्म प्रज्ञॆये साधुवादुदॆंदू प्रतिष्ठितवादुदॆंदू हेळिकॊळ्ळुत्तिरुत्तारॆ. इतरर बुद्धियन्नु निंदिसुत्तारॆ. मत्तु तम्मदन्नु प्रशंसिसिकॊळ्ळुत्तिरुत्तारॆ.
10003006a कारणांतरयोगेन योगे येषां समा मतिः।
10003006c तेऽन्योन्येन च तुष्यंति बहु मन्यंति चासकृत्।।
कारणांतरदिंद योगवशात् इब्बर बुद्धियू हॊंदिकॊंडरॆ आग अवरु अन्योन्यरिंद संतुष्टरागुत्तारॆ. ऒब्बरु मत्तॊब्बरन्नु गौरविसुत्तारॆ.
10003007a तस्यैव तु मनुष्यस्य सा सा बुद्धिस्तदा तदा।
10003007c कालयोगविपर्यासं प्राप्यान्योन्यं विपद्यते।।
आदरॆ कालयोगदिंद अदे मनुष्यर विचारगळल्लि विपर्यासगळुंटादरॆ अन्योन्यरल्लि ऒडकु उंटागुत्तदॆ.
10003008a अचिंत्यत्वाद्धि चित्तानां मनुष्याणां विशेषतः।
10003008c चित्तवैकल्यमासाद्य सा सा बुद्धिः प्रजायते।।
विशेषवागि मनुष्यर चित्तगळन्नु अर्थमाडिकॊळ्ळुवुदु कष्ट. चित्तगळ व्यत्यासगळिंदागि ऒब्बॊब्बरिगॆ ऒंदॊंदुरीतिय योचनॆगळुंटागुत्तवॆ.
10003009a यथा हि वैद्यः कुशलो ज्ञात्वा व्याधिं यथाविधि।
10003009c भेषजं कुरुते योगात्प्रशमार्थमिहाभिभो।।
10003010a एवं कार्यस्य योगार्थं बुद्धिं कुर्वंति मानवाः।
10003010c प्रज्ञया हि स्वया युक्तास्तां च निंदंति मानवाः।।
कुशल वैद्यनु यथाविधियागि व्याधियन्नु तिळिदुकॊंडु आ रोगक्कॆ तक्कुदाद चिकित्सॆयन्नु माडुव हागॆ मनुष्यरु प्रतियॊंदु उद्देशक्कू योचनॆमाडि कार्यगतरागुत्तारॆ. आदरॆ स्वयं बुद्धियन्नुपयोगिसुववनन्नु इतर मनुष्यरु निंदिसुत्तारॆ!
10003011a अन्यया यौवने मर्त्यो बुद्ध्या भवति मोहितः।
10003011c मध्येऽन्यया जरायां तु सोऽन्यां रोचयते मतिं।।
मनुष्यनु यौवनदल्लि बेरॊंदु रीतिय बुद्धियिंद मोहितनागुत्तानॆ. मध्यवयस्सिनल्लि बेरॊंदरिंद मत्तु वृद्धाप्यदल्लि इन्नॊंदरिंद अवन बुद्धियु प्रभावितगॊळ्ळुत्तदॆ.
10003012a व्यसनं वा पुनर्घोरं समृद्धिं वापि तादृशीं।
10003012c अवाप्य पुरुषो भोज कुरुते बुद्धिवैकृतं।।
भोज! मनुष्यनु घोर व्यसनवन्नु अथवा अष्टे महत्तर समृद्धियन्नु हॊंदिदाग अवन बुद्धियु विकृतवागुत्तदॆ.
10003013a एकस्मिन्नेव पुरुषे सा सा बुद्धिस्तदा तदा।
10003013c भवत्यनित्यप्रज्ञत्वात्सा तस्यैव न रोचते।।
हीगॆ ऒब्बने मनुष्यनल्लि वयस्सिगॆ तक्कंतॆ मत्तु संदर्भक्कॆ तक्कंतॆ बुद्धियु बदलागुत्ता इरुत्तदॆयादुदरिंद ऎष्टो वेळॆ अवन निर्धारगळु अवनिगे इष्टवागुवुदिल्ल.
10003014a निश्चित्य तु यथाप्रज्ञं यां मतिं साधु पश्यति।
10003014c तस्यां प्रकुरुते भावं सा तस्योद्योगकारिका।।
तनगॆ तिळिदंतॆ यावुदु ऒळ्ळॆयदॆंदु काणुत्तानो अदन्ने निश्चयिसुत्तानॆ. आ बुद्धिये अवनन्नु कार्यप्रवृत्तनन्नागि माडुत्तदॆ.
10003015a सर्वो हि पुरुषो भोज साध्वेतदिति निश्चितः।
10003015c कर्तुमारभते प्रीतो मरणादिषु कर्मसु।।
भोज! आदुदरिंद ऎल्ल मनुष्यरु तमगॆ ऒळ्ळॆयदॆंदु निश्चयिसिदुदन्नु – अदु मरणवन्ने तरुवंतहुदादरू, संतोषदिंद कैगॊळ्ळुत्तारॆ.
10003016a सर्वे हि युक्तिं विज्ञाय प्रज्ञां चापि स्वकां नराः।
10003016c चेष्टंते विविधाश्चेष्टा हितमित्येव जानते।।
हागॆ ऎल्लरू तम्म तम्म युक्ति मत्तु प्रज्ञॆगॆ तक्कंतॆ विविध कर्मगळल्लि तॊडगुत्तारॆ मत्तु अवु तम्म हितदल्लिये इदॆ ऎंदु तिळियुत्तारॆ.
10003017a उपजाता व्यसनजा येयमद्य मतिर्मम।
10003017c युवयोस्तां प्रवक्ष्यामि मम शोकविनाशिनीं।।
इंदु व्यसनदिंद नन्न मतियल्लि हुट्टिद, शोकविनाशिनी विचारवन्नु निमगॆ हेळुत्तेनॆ.
10003018a प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा कर्म तासु विधाय च।
10003018c वर्णे वर्णे समाधत्त एकैकं गुणवत्तरं।।
प्रजापतियु प्रजॆगळन्नु सृष्टिसि अवुगळिगॆ कर्मगळन्नु विभजिसि कॊट्टनु. ऒंदॊंदु वर्णक्कू विशेष गुणगळन्नू कल्पिसिदनु.
10003019a ब्राह्मणे दममव्यग्रं क्षत्रिये तेज उत्तमं।
10003019c दाक्ष्यं वैश्ये च शूद्रे च सर्ववर्णानुकूलतां।।
ब्राह्मणनिगॆ अव्यग्र दमवन्नू, क्षत्रियनिगॆ उत्तम तेजस्सन्नू, वैश्यनिगॆ दक्षतॆयन्नू मत्तु शूद्रनिगॆ सर्ववर्णदवरिगॆ अनुकूलवागिरुवंथह गुणगळन्नित्तनु.
10003020a अदांतो ब्राह्मणोऽसाधुर्निस्तेजाः क्षत्रियोऽधमः।
10003020c अदक्षो निंद्यते वैश्यः शूद्रश्च प्रतिकूलवान्।।
नियंत्रणदल्लिरद ब्राह्मणनु ऒळ्ळॆयवनल्ल. तेजस्सिल्लद क्षत्रियनु अधमनु. दक्षनल्लद वैश्य मत्तु प्रतिकूलनाद शूद्र इवरु निंदनीयरु.
10003021a सोऽस्मि जातः कुले श्रेष्ठे ब्राह्मणानां सुपूजिते।
10003021c मंदभाग्यतयास्म्येतं क्षत्रधर्ममनु ष्ठितः।।
नानु सुपूजित शेष्ठ ब्राह्मणर कुलदल्लि हुट्टिदॆनु. आदरॆ मंदभाग्यवु नन्नन्नु क्षत्रधर्मवन्नु अनुसरिसुवंतॆ माडितु.
10003022a क्षत्रधर्मं विदित्वाहं यदि ब्राह्मण्यसंश्रितं।
10003022c प्रकुर्यां सुमहत्कर्म न मे तत्साधु संमतं।।
क्षत्रधर्मवन्नु चॆन्नागि तिळिदुकॊंडिरुव नानु ऒंदु वेळॆ ब्राह्मण्यधर्मवन्नु अनुसरिसि अत्यंत महत्तर कार्यवन्नु माडिदरू अदु सत्पुरुषर मान्यतॆयन्नु पडॆयुवुदिल्ल.
10003023a धारयित्वा धनुर्दिव्यं दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे।
10003023c पितरं निहतं दृष्ट्वा किं नु वक्ष्यामि संसदि।।
युद्धदल्लि दिव्य धनुस्सन्नू दिव्य अस्त्रगळन्नू धरिसिद मत्तु तंदॆय कॊलॆयन्नु प्रत्यक्ष कंड नानु, ईग हेगॆ ताने यागगळल्लि मंत्रगळन्नु हेळिकॊंडिरलि?4
10003024a सोऽहमद्य यथाकामं क्षत्रधर्ममुपास्य तं।
10003024c गंतास्मि पदवीं राज्ञः पितुश्चापि महाद्युतेः।।
आदुदरिंद इंदु ननगिष्टवाद क्षत्रधर्मवन्नु गौरविसि राज दुर्योधनन मत्तु महाद्युति तंदॆय हॆज्जॆगळल्लि नडॆयुत्तेनॆ.
10003025a अद्य स्वप्स्यंति पांचाला विश्वस्ता जितकाशिनः।
10003025c विमुक्तयुग्यकवचा हर्षेण च समन्विताः।
10003025e वयं जिता मताश्चैषां श्रांता व्यायमनेन च।।
विजयदिंद उब्बिरुव पांचालरु इंदु नम्मन्नु गॆद्दॆवॆंदु तिळिदु हर्षसमन्वितरागि मत्तु होराटदिंद बळलि कुदुरॆगळन्नू कवचगळन्नू कळचि आतंकद भयवेनू इल्लदे निद्रिसुत्तिद्दारॆ.
10003026a तेषां निशि प्रसुप्तानां स्वस्थानां शिबिरे स्वके।
10003026c अवस्कंदं करिष्यामि शिबिरस्याद्य दुष्करं।।
रात्रियल्लि तम्म शिबिरगळल्लि तम्मवरॊंदिगॆ मलगिरुव अवर शिबिरगळ मेलॆ इंदु दुष्कर मुत्तिगॆयन्नु हाकि अवरन्नु संहरिसुत्तेनॆ.
10003027a तानवस्कंद्य शिबिरे प्रेतभूतान्विचेतसः।
10003027c सूदयिष्यामि विक्रम्य मघवानिव दानवान्।।
ऎच्चरविल्लदॆ प्रेतगळंतॆ मलगिरुव अवरन्नु विक्रमदिंद मघवान् इंद्रनु दानवरन्नु हेगो हागॆ संहरिसुत्तेनॆ.
10003028a अद्य तान्सहितान्सर्वान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्।
10003028c सूदयिष्यामि विक्रम्य कक्षं दीप्त इवानलः।
10003028e निहत्य चैव पांचालान् शांतिं लब्धास्मि सत्तम।।
धृष्टद्युम्नन नायकत्वदल्लिरुव अवरॆल्लरन्नू ऒट्टिगे इंदु विक्रमदिंद ऒणहुल्लिन मॆदॆगळन्नु बॆंकियु भस्ममाडुवंतॆ संहरिसुत्तेनॆ. सत्तम! पांचालरन्नु संहरिसिद नंतरवे नानु मनःशांतियन्नु पडॆयुत्तेनॆ.
10003029a पांचालेषु चरिष्यामि सूदयन्नद्य संयुगे।
10003029c पिनाकपाणिः संक्रुद्धः स्वयं रुद्रः पशुष्विव।।
संक्रुद्ध स्वयं पिनाकपाणि रुद्रनु प्राणिगळ मध्यॆ संचरिसुवंतॆ इंदु नानु रणदल्लि पांचालरन्नु संहरिसुत्ता संचरिसुत्तेनॆ.
10003030a अद्याहं सर्वपांचालान्निहत्य च निकृत्य च।
10003030c अर्दयिष्यामि संक्रुद्धो रणे पांडुसुतांस्तथा।।
इंदु संक्रुद्धनागि पांचालरॆल्लरन्नु कत्तरिसि कॊंदु रणदल्लि पांडुसुतरन्नु काडुत्तेनॆ.
10003031a अद्याहं सर्वपांचालैः कृत्वा भूमिं शरीरिणीं।
10003031c प्रहृत्यैकैकशस्तेभ्यो भविष्याम्यनृणः पितुः।।
इंदु अवरल्लि ऒब्बॊब्बरन्नू संहरिसि, भूमियु पांचालरॆल्लर मृतशरीरगळन्नु हॊरुवंतॆ माडि नन्न तंदॆय ऋणवन्नु तीरिसिकॊळ्ळुत्तेनॆ.
10003032a दुर्योधनस्य कर्णस्य भीष्मसैंधवयोरपि।
10003032c गमयिष्यामि पांचालान्पदवीमद्य दुर्गमां।।
दुर्योधन, कर्ण, भीष्म मत्तु सैंधवरु होद दुर्गम मार्गदल्लि इंदु पांचालरन्नु कूड कळुहिसुत्तेनॆ.
10003033a अद्य पांचालराजस्य धृष्टद्युम्नस्य वै निशि।
10003033c विरात्रे प्रमथिष्यामि पशोरिव शिरो बलात्।।
इंदिन रात्रियु कळॆयुवुदरल्लि कत्तलॆयल्लि नानु पांचालराज धृष्टद्युम्नन शिरवन्नु बलवन्नुपयोगिसि पशुवॊंदर शिरदंतॆ अरॆयुत्तेनॆ.
10003034a अद्य पांचालपांडूनां शयितानात्मजान्निशि।
10003034c खड्गेन निशितेनाजौ प्रमथिष्यामि गौतम।।
गौतम! इंदिन रात्रि मलगिरुव पांचाल-पांडवरन्नु नानु ऎळॆद निशित खड्गदिंद तुंडरिसुत्तेनॆ.
10003035a अद्य पांचालसेनां तां निहत्य निशि सौप्तिके।
10003035c कृतकृत्यः सुखी चैव भविष्यामि महामते।।
महामते! इंदिन रात्रि मलगिरुव आ पांचालसेनॆयन्नु संहरिसि नानु कृतकृत्यनू सुखियू आगुत्तेनॆ!”
समाप्ति
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिमंत्रणायां तृतीयोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि सौप्तिकपर्वदल्लि द्रौणिमंत्रण ऎन्नुव मूरने अध्यायवु.