001 द्रौणिमंत्रणा

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

सौप्तिक पर्व

सौप्तिक पर्व

अध्याय 1

सार

संजयनल्लि धृतराष्ट्रन प्रश्नॆ (1-17). गहन वनक्कॆ पलायन माडि रात्रि विश्रमिसिकॊळ्ळुत्तिद्दाग अश्वत्थामनु हत्तिरदल्लिये आलद मरद मेलॆ मलगिद्द सहस्रारु कागॆगळन्नु गूबॆयॊंदु आक्रमणिसि कॊंदुदन्नु नोडिदुदु (18-43). आ गूबॆयंतॆ तानू प्रतीकारवन्नॆसगबेकु ऎंदु अश्वत्थामनु तन्नल्लिये योचिसिदुदु (44-53). अश्वत्थामनु तानु माडिद निश्चयवन्नु मलगिद्द कृप-कृतवर्मरन्नु ऎब्बिसि तिळिसि, मुंदेनु माडबेकॆंदु अवर सलहॆयन्नु केळिदुदु (54-66).

10001001 संजय उवाच।
10001001a ततस्ते सहिता वीराः प्रयाता दक्षिणामुखाः।
10001001c उपास्तमयवेलायां शिबिराभ्याशमागताः।।

संजयनु हेळिदनु: “अनंतर आ वीररु ऒट्टागि दक्षिणाभिमुखवागि प्रयाणिसुत्ता सूर्यास्तद वेळॆयल्लि शिबिरगळ बळि आगमिसिदरु.

10001002a विमुच्य वाहांस्त्वरिता भीताः समभवंस्तदा।
10001002c गहनं देशमासाद्य प्रच्चन्ना न्यविशंत ते।।

भीतराद अवरु गहनवनप्रदेशवन्नु सेरि त्वरॆमाडि कुदुरॆगळन्नु बिच्चि यारिगू काणदंतॆ ऒंदॆडॆ कुळितुकॊंडरु.

10001003a सेनानिवेशमभितो नातिदूरमवस्थिताः।
10001003c निकृत्ता निशितैः शस्त्रैः समंतात् क्षतविक्षताः।।

सेनाडेरॆगळ अनतिदूरदल्लिये कुळितुकॊंडिद्द अवरु निशित शस्त्रगळिंद प्रहृतरागि शरीराद्यंत क्षतविक्षतरागिद्दरु.

10001004a दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य पांडवानन्वचिंतयन्।
10001004c श्रुत्वा च निनदं घोरं पांडवानां जयैषिणां।।

जयोल्लासित पांडवर घोर निनादवन्नु केळि पांडवरन्ने बारि बारिगू चिंतिसुत्ता सुदीर्घ बिसिबिसि निट्टुसिरन्नु बिडुत्तिद्दरु.

10001005a अनुसारभयाद्भीताः प्राङ्मुखाः प्राद्रवन्पुनः।
10001005c ते मुहूर्तं ततो गत्वा श्रांतवाहाः पिपासिताः।।

अवरेनादरू तम्मन्नु हिंबालिसि बरबहुदॆंब भयदिंद पुनः पूर्वाभिमुखवागि ओडिदरु. मुहूर्तकाल होगलु कुदुरॆगळु बळलिदवु मत्तु बायारिदवु.

10001006a नामृष्यंत महेष्वासाः क्रोधामर्षवशं गताः।
10001006c राज्ञो वधेन संतप्ता मुहूर्तं समवस्थिताः।।

राजन वधॆयिंदुंटाद कोपवन्नु सहिसिकॊळ्ळलागदे आ महेष्वासरु संतप्तरागि मुहूर्तकाल सुम्मने कुळितुकॊंडरु.”

10001007 धृतराष्ट्र उवाच।
10001007a अश्रद्धेयमिदं कर्म कृतं भीमेन संजय।
10001007c यत्स नागायुतप्राणः पुत्रो मम निपातितः।।

धृतराष्ट्रनु हेळिदनु: “संजय! भीमनु हत्तु साविर आनॆगळ बलवन्नु हॊंदिद्द नन्न मगननन्नु संहरिसुव कार्यवन्नु माडिदनु ऎन्नुवुदन्नु नंबलिक्के आगुत्तिल्ल!

10001008a अवध्यः सर्वभूतानां वज्रसंहननो युवा।
10001008c पांडवैः समरे पुत्रो निहतो मम संजय।।

सर्वभूतगळिगू अवध्यनॆनिसिकॊंडिद्द, वज्रसंहननाद नन्न युव मगनु समरदल्लि पांडवरिंद हतनादनु संजय!

10001009a न दिष्टमभ्यतिक्रांतुं शक्यं गावल्गणे नरैः।
10001009c यत्समेत्य रणे पार्थैः पुत्रो मम निपातितः।।

गावल्गणे! रणदल्लि पार्थरन्नु ऎदुरिसि नन्न मगनु कॆळगुरुळिदनॆंदरॆ नररिगॆ दैववन्नु मीरि नडॆयलु शक्यविल्लवॆंदायितु.

10001010a अद्रिसारमयं नूनं हृदयं मम संजय।
10001010c हतं पुत्रशतं श्रुत्वा यन्न दीर्णं सहस्रधा।।

संजय! नूरु पुत्ररू हतरादरॆन्नुवुदन्नु केळियू नन्न हृदयवु सहस्र चूरुगळागि ऒडॆदु होगिल्लवॆंदरॆ नन्न ई हृदयवु निजवागियू उक्किनिंद माडिद्दिरबहुदु!

10001011a कथं हि वृद्धमिथुनं हतपुत्रं भविष्यति।
10001011c न ह्यहं पांडवेयस्य विषये वस्तुमुत्सहे।।

पुत्ररु हतराद ई वृद्धदंपतिगळु हेगॆ जीविसिरुवरु? पांडवेयन देशदल्लि इरलु ननगॆ स्वल्पवू इष्टविल्ल!

10001012a कथं राज्ञः पिता भूत्वा स्वयं राजा च संजय।
10001012c प्रेष्यभूतः प्रवर्तेयं पांडवेयस्य शासनात्।।

संजय! राजन पितनागिद्दवनु मत्तु स्वयं राजनागिद्दवनु ईग पांडवेयन शासनक्कॊळपट्टु हेगॆ ताने सेवकनंतॆ इरबहुदु?

10001013a आज्ञाप्य पृथिवीं सर्वां स्थित्वा मूर्ध्नि च संजय।
10001013c कथमद्य भविष्यामि प्रेष्यभूतो दुरंतकृत्।।

संजय! पृथ्वियॆल्लक्कू आज्ञादायकनागिद्दॆनु मत्तु ऎल्ल राजर तलॆगळन्नू मॆट्टिनिंतिद्दॆनु. इंदु ई दुरंतक्कॆ कारणनाद नानु हेगॆ सेवकनागिरबल्लॆ?

10001014a कथं भीमस्य वाक्यानि श्रोतुं शक्ष्यामि संजय।
10001014c येन पुत्रशतं पूर्णमेकेन निहतं मम।।

संजय! नन्न नूरु मक्कळन्नू ऒब्बने संपूर्णवागि संहरिसिरुव आ भीमन वाक्यगळन्नु केळलु नानु हेगॆ ताने शक्य?

10001015a कृतं सत्यं वचस्तस्य विदुरस्य महात्मनः।
10001015c अकुर्वता वचस्तेन मम पुत्रेण संजय।।

संजय! नन्न मगनु नानु हेळिद मातन्नु केळदे महात्म विदुरनु हेळिद मातन्नु सत्यवन्नागिसिदनु!

10001016a अधर्मेण हते तात पुत्रे दुर्योधने मम।
10001016c कृतवर्मा कृपो द्रौणिः किमकुर्वत संजय।।

संजय! अधर्मदिंद नन्न मग दुर्योधननु हतनागलु कृतवर्म, कृप मत्तु द्रौणियरु एनु माडिदरु?”

10001017 संजय उवाच।
10001017a गत्वा तु तावका राजन्नातिदूरमवस्थिताः।
10001017c अपश्यंत वनं घोरं नानाद्रुमलताकुलं।।

संजयनु हेळिदनु: “राजन्! निन्नवरु कुळितिद्द अनति दूरदल्लि नाना वृक्ष-लतॆगळिंद कूडिद्द घोरवनवॊंदन्नु नोडिदरु.

10001018a ते मुहूर्तं तु विश्रम्य लब्धतोयैर्हयोत्तमैः।
10001018c सूर्यास्तमयवेलायामासेदुः सुमहद्वनं।।

मुहूर्तकाल विश्रमिसिद अवरु उत्तम कुदुरॆगळिगॆ नीरुकुडिसि सूर्यास्तद समयदल्लि आ महावनवन्नु प्रवेशिसिदरु.

10001019a नानामृगगणैर्जुष्टं नानापक्षिसमाकुलं।
10001019c नानाद्रुमलताच्चन्नं नानाव्यालनिषेवितं।।
10001020a नानातोयसमाकीर्णं तडागैरुपशोभितं।
10001020c पद्मिनीशतसंचन्नं नीलोत्पलसमायुतं।।

आ अरण्यदल्लि नाना मृगगणगळु वासिसुत्तिद्दवु. नाना पक्षिसमाकुलगळिद्दवु. नाना द्रुमलतॆगळिंद मुच्चिकॊंडित्तु. नाना विषजंतुगळिंद तुंबित्तु. नूरारु कमलपुष्पगळिंद मत्तु नीलोत्पलगळिंद मुच्चिहोगिद्द नानाविधद सरोवर-कॊळगळिंद शोभिसुत्तित्तु.

10001021a प्रविश्य तद्वनं घोरं वीक्षमाणाः समंततः।
10001021c शाखासहस्रसंचन्नं न्यग्रोधं ददृशुस्ततः।।

आ घोर वनवन्नु प्रवेशिसि सुत्तलू नोडुत्तिद्द अवरु सहस्र रॆंबॆगळिंद विशालवागि हरडिद्द आलद मरवन्नु कंडरु.

10001022a उपेत्य तु तदा राजन्न्यग्रोधं ते महारथाः।
10001022c ददृशुर्द्विपदां श्रेष्ठाः श्रेष्ठं तं वै वनस्पतिं।।

राजन्! मनुजरल्लि श्रेष्ठ आ महारथरु आलदमरद बळिहोगि आ श्रेष्ठ वनस्पतियन्नु नोडिदरु.

10001023a तेऽवतीर्य रथेभ्यस्तु विप्रमुच्य च वाजिनः।
10001023c उपस्पृश्य यथान्यायं संध्यामन्वासत प्रभो।।

अवरु रथगळिंद कॆळगिळिदु कुदुरॆगळन्नु बिच्चिदरु. प्रभो! यथान्यायवागि अवरु स्नानाचमनादिगळन्नु माडि संध्यावंदनॆयन्नू पूरैसिदरु.

10001024a ततोऽस्तं पर्वतश्रेष्ठमनुप्राप्ते दिवाकरे।
10001024c सर्वस्य जगतो धात्री शर्वरी समपद्यत।।

आग दिवाकरनु पर्वतश्रेष्ठनन्नु सेरि अस्तनागलु सर्व जगत्तिन धात्री शर्वरियु आवरिसिदळु.

10001025a ग्रहनक्षत्रताराभिः प्रकीर्णाभिरलंकृतं।
10001025c नभोऽंशुकमिवाभाति प्रेक्षणीयं समंततः।।

ग्रहनक्षत्रतारॆगळिंद अलंकृतवागि हरडिद्द नभॆयु अंशुक1दंतॆ ऎल्लॆडॆ प्रेक्षणीयवागि हॊळॆयुत्तित्तु.

10001026a ईषच्चापि प्रवल्गंति ये सत्त्वा रात्रिचारिणः।
10001026c दिवाचराश्च ये सत्त्वास्ते निद्रावशमागताः।।

रात्रियल्लि संचरिसुव प्राणिगळु इच्छानुसारवागि संचरिसि कूगतॊडगिदवु. हगलल्लि संचरिसुव प्राणिगळु निद्रावशवादवु.

10001027a रात्रिंचराणां सत्त्वानां निनादोऽभूत्सुदारुणः।
10001027c क्रव्यादाश्च प्रमुदिता घोरा प्राप्ता च शर्वरी।।

कत्तलॆयु कवियुत्तले रात्रि संचरिसुव मांसाहारि प्राणिगळु संतोषदिंद घोर सुदारुण कूगुगळन्नु कूगतॊडगिदवु.

10001028a तस्मिन्रात्रिमुखे घोरे दुःखशोकसमन्विताः।
10001028c कृतवर्मा कृपो द्रौणिरुपोपविविशुः समं।।

आ घोर रात्रिय प्रारंभदल्लि दुःखशोकसमन्वितराद कृतवर्म, कृप, मत्तु द्रौणियरु ऒंदे सालिनल्लि कुळितुकॊंडरु.

10001029a तत्रोपविष्टाः शोचंतो न्यग्रोधस्य समंततः।
10001029c तमेवार्थमतिक्रांतं कुरुपांडवयोः क्षयं।।

आलद मरद समीपदल्लि कुळितिद्द अवरु अतिक्रमिसलु साध्यवागद कुरुपांडवर क्षयद कुरिते मातनाडिकॊळ्ळुत्ता शोकिसुत्तिद्दरु.

10001030a निद्रया च परीतांगा निषेदुर्धरणीतले।
10001030c श्रमेण सुदृढं युक्ता विक्षता विविधैः शरैः।।

विविध शरगळिंद गाढवागि क्षतविक्षतरागिद्द अवरु बळलिद्दु निद्दॆयिंद तूकडिसुत्ता नॆलद मेलॆये कुळितिद्दरु.

10001031a ततो निद्रावशं प्राप्तौ कृपभोजौ महारथौ।
10001031c सुखोचितावदुःखार्हौ निषण्णौ धरणीतले।
10001031e तौ तु सुप्तौ महाराज श्रमशोकसमन्वितौ।।

महाराज! आग सुखोचितरागिद्द मत्तु दुःखक्कॆ अनर्हरागिद्द महारथ कृप-कृतवर्मरु निद्रावशरागि आयास-शोकसमन्वितरागि नॆलद मेलॆये मलगिकॊंडरु.

10001032a क्रोधामर्षवशं प्राप्तो द्रोणपुत्रस्तु भारत।
10001032c नैव स्म स जगामाथ निद्रां सर्प इव श्वसन्।।

भारत! आदरॆ क्रोध-असहनॆगळ वशनागिद्द द्रोणपुत्रनिगॆ मात्र निद्दॆयु बरलिल्ल. अवनु सर्पदंतॆ सुदीर्घवागि निट्टुसिरु बिडुत्ता ऎच्चॆत्ते इद्दनु.

10001033a न लेभे स तु निद्रां वै दह्यमानोऽतिमन्युना।
10001033c वीक्षां चक्रे महाबाहुस्तद्वनं घोरदर्शनं।।

अतिकोपदिंद सुडुत्ता निद्रॆये बरदिद्द आ महाबाहुवु घोरवागि काणुत्तिद्द आ वनवन्ने वीक्षिसुत्तिद्दनु.

10001034a वीक्षमाणो वनोद्देशं नानासत्त्वैर्निषेवितं।
10001034c अपश्यत महाबाहुर्न्यग्रोधं वायसायुतं।।

नाना प्राणिगळिंद कूडिद्द आ वनप्रदेशवन्नु नोडुत्तिद्द आ महाबाहुवु आलद मरदल्लि वासिसुत्तिद्द कागॆगळ गुंपन्नु कंडनु.

10001035a तत्र काकसहस्राणि तां निशां पर्यणामयन्।
10001035c सुखं स्वपंतः कौरव्य पृथक्पृथगपाश्रयाः।।

कौरव्य! सहस्रारु कागॆगळु आ मरद प्रत्येक प्रत्येक रॆंबॆगळन्नु आश्रयिसि सुखवागि निद्रॆमाडुत्ता रात्रियन्नु कळॆयुत्तिद्दवु.

10001036a सुप्तेषु तेषु काकेषु विस्रब्धेषु समंततः।
10001036c सोऽपश्यत्सहसायांतमुलूकं घोरदर्शनं।।
10001037a महास्वनं महाकायं हर्यक्षं बभ्रुपिंगलं।
10001037c सुदीर्घघोणानखरं सुपर्णमिव वेगिनं।।

सुत्तलू निःशब्धवागिद्दु आ कागॆगळु मलगिरलु ऒम्मॆले अल्लि महास्वरद, महाकायद, हळदी बण्णद कण्णुळ्ळ, पिंगल हुब्बुगळुळ्ळ, सुदीर्घ कॊक्कु-उगुरुगळुळ्ळ, गरुडनंतह वेगवुळ्ळ घोर गूबॆयॊंदु कंडुबंदितु.

10001038a सोऽथ शब्दं मृदुं कृत्वा लीयमान इवांडजः।
10001038c न्यग्रोधस्य ततः शाखां प्रार्थयामास भारत।।

आग शब्धवन्नु मृदुवागिसि, अडगिकॊंडे आ पक्षियु आलदमरद रॆंबॆगळ मेलॆ हारि हुडुकतॊडगितु.

10001039a संनिपत्य तु शाखायां न्यग्रोधस्य विहंगमः।
10001039c सुप्तांजघान सुबहून्वायसान्वायसांतकः।।

आलदमरद रॆंबॆयिंद रॆंबॆगॆ हारुत्ता आ कागॆगळ अंतक पक्षियु मलगिद्द अनेक कागॆगळन्नु संहरिसितु.

10001040a केषां चिदच्चिनत्पक्षान् शिरांसि च चकर्त ह।
10001040c चरणांश्चैव केषां चिद्बभंजु चरणायुधः।।

कालुगळे आयुधवागिद्द आ गूबॆयु कॆलवु कागॆगळ रॆक्कॆगळन्नु कत्तरिसितु. कॆलवु कागॆगळ तलॆगळन्नु कत्तरिसितु. कॆलवु कागॆगळ कालुगळन्नु मुरियितु.

10001041a क्षणेनाहन्स बलवान्येऽस्य दृष्टिपथे स्थिताः।
10001041c तेषां शरीरावयवैः शरीरैश्च विशां पते।
10001041e न्यग्रोधमंडलं सर्वं संचन्नं सर्वतोऽभवत्।।

विशांपते! क्षणदल्लिये आ बलवान् पक्षियु तन्न दृष्टि पथदल्लि बंद कागॆगळॆल्लवन्नू कॊंदुहाकितु. आ वटवृक्षद मडलवु सत्तुहोद कागॆगळिंदलू मत्तु अवुगळ छिन्न-छिन्न अवयवगळिंदलू तुंबिहोयितु.

10001042a तांस्तु हत्वा ततः काकान्कौशिको मुदितोऽभवत्।
10001042c प्रतिकृत्य यथाकामं शत्रूणां शत्रुसूदनः।।

शत्रुसूदन आ गूबॆयु बेकादंतॆ शत्रुगळन्नु संहरिसि प्रतीकारमाडि आनंदिसितु.

10001043a तद्दृष्ट्वा सोपधं कर्म कौशिकेन कृतं निशि।
10001043c तद्भावकृतसंकल्पो द्रौणिरेको व्यचिंतयत्।।

गूबॆयु रात्रियल्लि वंचनॆयिंद माडिद आ क्रूर कर्मवन्नु नोडिद द्रौणियु तानू कूड हागॆ माडबेकॆंब संकल्पदिंद ऒब्बने योचिसतॊडगिदनु.

10001044a उपदेशः कृतोऽनेन पक्षिणा मम संयुगे।
10001044c शत्रूणां क्षपणे युक्तः प्राप्तकालश्च मे मतः।।

“युद्धदल्लि नानु एनु माडबेकॆन्नुवुदन्नु ई पक्षिये ननगॆ उपदेशिसिदंतिदॆ! शत्रुगळ विनाशकार्यक्कॆ समयवु बंदॊदगिदॆयॆंदु ननगन्निसुत्तदॆ.

10001045a नाद्य शक्या मया हंतुं पांडवा जितकाशिनः।
10001045c बलवंतः कृतोत्साहा लब्धलक्षाः प्रहारिणः।
10001045e राज्ञः सकाशे तेषां च प्रतिज्ञातो वधो मया।।

विजयद उत्साहदिंद बलवंतरागिरुव गुरियिट्टु प्रहरिसबल्ल विजयशालि पांडवरन्नु संहरिसलु इंदु ननगॆ शक्यविल्ल. आदरॆ राज दुर्योधन समक्षमदल्लि अवरन्नु वधिसुत्तेनॆंदु नानु प्रतिज्ञॆगैदिद्देनॆ.

10001046a पतंगाग्निसमां वृत्तिमास्थायात्मविनाशिनीं।
10001046c न्यायतो युध्यमानस्य प्राणत्यागो न संशयः।
10001046e चद्मना तु भवेत्सिद्धिः शत्रूणां च क्षयो महान्।।

आत्मविनाशकारि पतंगाग्निसम वृत्ति2यन्ननुसरिसि अवरॊडनॆ न्यायरीतियल्लि युद्धमाडिदरॆ प्राणत्यागवागुत्तदॆ ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल. वंचनॆयिंदलू शत्रुगळ महाक्षयवु साध्यवागुत्तदॆ.

10001047a तत्र संशयितादर्थाद्योऽर्थो निःसंशयो भवेत्।
10001047c तं जना बहु मन्यंते येऽर्थशास्त्रविशारदाः।।

अर्थसिद्धिय संशयविद्दाग निःसंशयवागि अर्थसिद्धियन्नुंटु माडबल्ल मार्गवन्नु अनुसरिसबेकॆंदु अर्थशास्त्रविशारद अनेक जनरु अभिप्रायपडुत्तारॆ.

10001048a यच्चाप्यत्र भवेद्वाच्यं गर्हितं लोकनिंदितं।
10001048c कर्तव्यं तन्मनुष्येण क्षत्रधर्मेण वर्तता।।

क्षत्रधर्मवन्नु अनुसरिसि नडॆदुकॊळ्ळुव मनुष्यनु लोकनिंदितवादुदन्नु अथवा लोकवु दूषितवॆंदु हेळुवुदन्नु कर्तव्यवॆंदु पालिसबहुदु.

10001049a निंदितानि च सर्वाणि कुत्सितानि पदे पदे।
10001049c सोपधानि कृतान्येव पांडवैरकृतात्मभिः।।

अकृतात्म पांडवरॆल्लरू कूड पदे पदे निंदनीय कुत्सित कार्यगळन्नु माडुत्तले बंदिद्दारॆ.

10001050a अस्मिन्नर्थे पुरा गीतौ श्रूयेते धर्मचिंतकैः।
10001050c श्लोकौ न्यायमवेक्षद्भिस्तत्त्वार्थं तत्त्वदर्शिभिः।।

इदे विषयद मेलॆ हिंदॆ धर्मचिंतक तत्त्वदर्शिगळु न्यायदृष्टिय तत्त्वार्थगळन्नु ई ऎरडु श्लोकगळ गीतॆयल्लि तिळिसिकॊट्टिद्दारॆ.

10001051a परिश्रांते विदीर्णे च भुंजाने चापि शत्रुभिः।
10001051c प्रस्थाने च प्रवेशे च प्रहर्तव्यं रिपोर्बलं।।

शत्रुगळु बळलिरुवाग, चदुरिहोगिरुवाग, ऊटमाडुत्तिरुवाग, प्रयाणमाडुत्तिरुवाग, ऎल्लियादरू प्रवेशिसुत्तिरुवाग शत्रुसेनॆयन्नु संहरिसबहुदु.

10001052a निद्रार्तमर्धरात्रे च तथा नष्टप्रणायकं।
10001052c भिन्नयोधं बलं यच्च द्विधा युक्तं च यद्भवेत्।।

अर्थसिद्धियन्नु बयसुव क्षत्रियनु अर्धरात्रियल्लि निद्रावशरागिरुव, सेनानायकनन्नु हॊंदिरद, मत्तु योधरु ऒट्टागिरद सेनॆयन्नु संहरिसबेकु.”

10001053a इत्येवं निश्चयं चक्रे सुप्तानां युधि मारणे।
10001053c पांडूनां सह पांचालैर्द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।।

हीगॆ प्रतापवान् द्रोणपुत्रनु रणदल्लि मलगिरुव पांडवरन्नु पांचालरॊंदिगॆ संहरिसलु निश्चयिसिदनु.

10001054a स क्रूरां मतिमास्थाय विनिश्चित्य मुहुर्मुहुः।
10001054c सुप्तौ प्राबोधयत्तौ तु मातुलं भोजमेव च।।

आ क्रूर बुद्धियन्ननुसरिसि पुनः पुनः निर्धारक्कॆ बंदु अवनु मलगिद्द सोदरमावनन्नू बोज कृतवर्मनन्नू ऎच्चरिसिदनु.

10001055a नोत्तरं प्रतिपेदे च तत्र युक्तं ह्रिया वृतः।
10001055c स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पविह्वलमब्रवीत्।।

नाचिकॆगॊंड अवरु अवनिगॆ आग युक्तवाद याव उत्तरवन्नू कॊडदे होदरु. आग अश्वत्थामनु मुहूर्तकाल योचिसि कण्णीरुतुंबि विह्वलनागि हेळिदनु:

10001056a हतो दुर्योधनो राजा एकवीरो महाबलः।
10001056c यस्यार्थे वैरमस्माभिरासक्तं पांडवैः सह।।

“यारिगागि नावु पांडवरॊंदिगॆ वैरवन्नु कट्टिकॊंडॆवो आ एकवीर महाबल राजा दुर्योधननु हतनादनु.

10001057a एकाकी बहुभिः क्षुद्रैराहवे शुद्धविक्रमः।
10001057c पातितो भीमसेनेन एकादशचमूपतिः।।

हन्नॊंदु अक्षौहिणी सेनॆगॆ ऒडॆयनागिद्द आ शुद्धविक्रमनु युद्धदल्लि अनेक क्षुद्ररिंद सुत्तुवरॆयल्पट्टु एकांगियागि भीमसेननिंद कॆळगुरुळिसल्पट्टनु.

10001058a वृकोदरेण क्षुद्रेण सुनृशंसमिदं कृतं।
10001058c मूर्धाभिषिक्तस्य शिरः पादेन परिमृद्नता।।

मूर्धाभिषिक्तनागिद्दवन शिरवन्नु पाददिंद ऒदॆदु वृकोदरनु अति हीन मत्तु क्रूर कार्यवन्नॆसगिदनु.

10001059a विनर्दंति स्म पांचालाः क्ष्वेडंति च हसंति च।
10001059c धमंति शंखांशतशो हृष्टा घ्नंति च दुंदुभीन्।।

पांचालरु संतोषदिंद सिंहनादमाडुत्तिद्दारॆ. अट्टहासदिंद नगुत्तिद्दारॆ. प्रहृष्टरागि नूरारु शंखगळन्नु ऊदुत्तिद्दारॆ. दुंदुभिगळन्नु बारिसुत्तिद्दारॆ.

10001060a वादित्रघोषस्तुमुलो विमिश्रः शंखनिस्वनैः।
10001060c अनिलेनेरितो घोरो दिशः पूरयतीव हि।।

वाद्यघोषगळ तुमुल शब्धवु शंखनिनादगळिंद कूडि गाळियल्लि तेलि घोरवागि दिक्कुगळल्लि मॊळगुत्तिवॆ.

10001061a अश्वानां हेषमाणानां गजानां चैव बृंहतां।
10001061c सिंहनादश्च शूराणां श्रूयते सुमहानयं।।

कुदुरॆगळ हेंकारवू, आनॆगळ घींकारवू, शूरर सिंहनादगळू जोरागि केळिबरुत्तिवॆ.

10001062a दिशं प्राचीं समाश्रित्य हृष्टानां गर्जतां भृशं।
10001062c रथनेमिस्वनाश्चैव श्रूयंते लोमहर्षणाः।।

आनंदतुंदिलरागि पूर्वदिक्किनकडॆ जोरागि गर्जिसुत्ता होगुत्तिरुववर रथचक्रगळ रोमांचकारी शब्धगळू पूर्वदिक्किनिंद केळिबरुत्तिवॆ.

10001063a पांडवैर्धार्तराष्ट्राणां यदिदं कदनं कृतं।
10001063c वयमेव त्रयः शिष्टास्तस्मिन्महति वैशसे।।

धार्तराष्ट्ररॊंदिगॆ पांडवरु नडॆसिद ई कदनद महा संहारकार्यदल्लि नावु मूवरु मात्र उळिदुकॊंडिद्देवॆ.

10001064a के चिन्नागशतप्राणाः के चित्सर्वास्त्रकोविदाः।
10001064c निहताः पांडवेयैः स्म मन्ये कालस्य पर्ययं।।

नम्मल्लि कॆलवरिगॆ नूरु आनॆगळ बलविद्दितु. कॆलवरु सर्वास्त्रकोविदरागिद्दरु. अवरु पांडवरिंद हतरादरॆंदरॆ इदु कालद वैपरित्यवॆंदे नावु भाविसबेकागुत्तदॆ.

10001065a एवमेतेन भाव्यं हि नूनं कार्येण तत्त्वतः।
10001065c यथा ह्यस्येदृशी निष्ठा कृते कार्येऽपि दुष्करे।।

निश्चयवागियू ई कार्यद परिणामवु हीगॆये आगबेकॆंदित्तेनो! ई दुष्कर कार्यवन्नु निष्ठॆयिंद माडिद्दरू परिणामवु हीगायितल्ल!

10001066a भवतोस्तु यदि प्रज्ञा न मोहादपचीयते।
10001066c व्यापन्नेऽस्मिन्महत्यर्थे यन्नः श्रेयस्तदुच्यतां।।

मोहदिंद निम्म प्रज्ञॆयु नष्टवागि होगदे इद्दरॆ नम्म कडॆय ऎल्लवू नाशवागिरुवाग नमगॆ श्रेयस्करवाद एनन्नु माडबेकु ऎन्नुवुदन्नु नीवु हेळबेकु!”

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिमंत्रणायां प्रथमोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि सौप्तिकपर्वदल्लि द्रौणिमंत्रण ऎन्नुव मॊदलने अध्यायवु.