059 बलदेवसांत्वनः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शल्य पर्व

गदायुद्ध पर्व

अध्याय 59

सार

अधर्मयुक्तवागि दुर्योधननन्नु हॊडॆदुरुळिसिदुदन्नु कंडु बलरामनु नेगिलन्नॆत्ति भीमसेननन्नु आक्रमणिसलु मुंदादुदु (1-8). कृष्णनु बलरामनन्नु हिडिदु निल्लिसि शांतनागलु हेळिदुदु (9-16). बलरामनु “भीमसेननु वंचनॆयिंद युद्धमाडुववनु!” ऎंदु राजसंसदियल्लि घोषिसि द्वारकॆगॆ तॆरळिदुदु (17-24). वासुदेव-युधिष्ठिर संवाद (25-36). भीमसेन-युधिष्ठिर संवाद (37-44).

09059001 धृतराष्ट्र उवाच 09059001a अधर्मेण हतं दृष्ट्वा राजानं माधवोत्तमः।
09059001c किमब्रवीत्तदा सूत बलदेवो महाबलः।।

धृतराष्ट्रनु हेळिदनु: “सूत! अधर्मदिंद राजनु हतनादुदन्नु नोडि माधवोत्तम महाबल बलदेवनु एनु हेळिदनु?

09059002a गदायुद्धविशेषज्ञो गदायुद्धविशारदः।
09059002c कृतवान्रौहिणेयो यत्तन्ममाचक्ष्व संजय।।

संजय! आग गदायुद्ध विशेषज्ञ, गदायुद्धविशारद रौहिणेयनु एनन्नु माडिदनु ऎन्नुवुदन्नु ननगॆ हेळु!”

09059003 संजय उवाच 09059003a शिरस्यभिहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन ते सुतं।
09059003c रामः प्रहरतां श्रेष्ठश्चुक्रोध बलवद् बली।।

संजयनु हेळिदनु: “भीमसेननु निन्न मगन तलॆयन्नु ऒदॆदुदन्नु कंडु प्रहरिगळल्लि श्रेष्ठ बलशाली रामनु अत्यंत क्रोधितनादनु.

09059004a ततो मध्ये नरेंद्राणां ऊर्ध्वबाहुर्हलायुधः।
09059004c कुर्वन्नार्तस्वरं घोरं धिग्धिग्भीमेत्युवाच ह।।

आग नरेंद्रर मध्यदल्लि हलायुधनु बाहुगळन्नु मेलॆत्ति घोरवाद आर्तस्वरदल्लि “भीम! धिक्कार! धिक्कार!” ऎंदु कूगिदनु.

09059005a अहो धिग्यदधो नाभेः प्रहृतं शुद्धविक्रमे।
09059005c नैतद्दृष्टं गदायुद्धे कृतवान्यद्वृकोदरः।।

“धिक्कार! शुद्धविक्रमनन्नु नाभिय कॆळगॆ हॊडॆदुदक्कॆ धिक्कार! गदायुद्धदल्लि वृकोदरनु माडिदुदन्नु ई हिंदॆ यारू कंडिरलिल्ल!

09059006a अधो नाभ्या न हंतव्यमिति शास्त्रस्य निश्चयः।
09059006c अयं त्वशास्त्रविन्मूढः स्वच्चंदात्संप्रवर्तते।।

नाभिय कॆळगॆ हॊडॆयबारदॆंदु गदायुद्ध शास्त्रद निश्चय! शास्त्रगळ कुरितु मूढनाद इवनु स्वच्चंदनागि वर्तिसिद्दानॆ!”

09059007a तस्य तत्तद्ब्रुवाणस्य रोषः समभवन्महान्।
09059007c ततो लांगलमुद्यम्य भीममभ्यद्रवद्बली।।

अवनु हीगॆ हेळुत्तिद्दंतॆये अवनल्लि महा रोषवु उद्भविसितु. आग नेगिलन्नॆत्तिकॊंडु आ बलशालियु भीमनन्नु आक्रमिस हॊरटनु.

09059008a तस्योर्ध्वबाहोः सदृशं रूपमासीन्महात्मनः।
09059008c बहुधातुविचित्रस्य श्वेतस्येव महागिरेः।।

आग बाहुगळन्नु मेलित्तिद्द आ महात्मन रूपवु अनेक धातुगळु सुरिदु बण्णद लेपनगॊंडिद्द महा श्वेतगिरियंतॆ तोरितु.

09059009a तमुत्पतंतं जग्राह केशवो विनयानतः।
09059009c बाहुभ्यां पीनवृत्ताभ्यां प्रयत्नाद्बलवद्बली।।

मेलेळुत्तिद्द अवनन्नु विनयानत बलशाली केशवनु उब्बिद उरुटु बाहुगळिंद बलवन्नुपयोगिसि प्रयत्नपट्टु हिडिदुकॊंडनु.

09059010a सितासितौ यदुवरौ शुशुभातेऽधिकं ततः।
09059010c नभोगतौ यथा राजंश्चंद्रसूर्यौ दिनक्षये।।

कप्पु मत्तु श्वेतवर्णगळ आ इब्बरु यदुवररु सयांकाल आकाशदल्लि काणुव चंद्र-सूर्यरंतॆ शोभिसिदरु.

09059011a उवाच चैनं संरब्धं शमयन्निव केशवः।
09059011c आत्मवृद्धिर्मित्रवृद्धिर्मित्रमित्रोदयस्तथा।।
09059011e विपरीतं द्विषत्स्वेतत्षड्विधा वृद्धिरात्मनः।।

कुपितनागिरुववनन्नु संतविसुत्ता केशवनु ई मातुगळन्नाडिदनु: “आत्मवृद्धि, मित्रवृद्धि, मित्रन शत्रुविन नाश, मित्रन मित्रन वृद्धि, शत्रुविन मित्रन नाश – ई आरु आत्मवृद्धिगॆ साधनगळागुत्तवॆ.

09059012a आत्मन्यपि च मित्रेषु विपरीतं यदा भवेत्।
09059012c तदा विद्यान्मनोज्यानिमाशु शांतिकरो भवेत्।।

तन्न विषयदल्लियू मत्तु तन्न मित्रन विषयदल्लियू इदक्कॆ विपरीतवादरॆ मनोव्यथॆयुंटागुत्तदॆ. बेगने अदन्नु निवारिसलु प्रयत्निसबेकु.

09059013a अस्माकं सहजं मित्रं पांडवाः शुद्धपौरुषाः।
09059013c स्वकाः पितृष्वसुः पुत्रास्ते परैर्निकृता भृशं।।

शुद्धपौरुष पांडवरु नम्म सहज मित्ररु. नम्म सोदरत्तॆय मक्कळादुदरिंद अवरु नम्मवरु. शत्रुगळिंद बहळवागि पीडितरागिरुवरु.

09059014a प्रतिज्ञापारणं धर्मः क्षत्रियस्येति वेत्थ ह।
09059014c सुयोधनस्य गदया भंक्तास्म्यूरू महाहवे।।
09059014e इति पूर्वं प्रतिज्ञातं भीमेन हि सभातले।।

प्रतिज्ञापालनॆयु क्षत्रियन धर्मवॆंदु नानु तिळिदुकॊंडिद्देनॆ. हिंदॆ सभातलदल्लि भीमनु “महायुद्धदल्लि गदॆयिंद सुयोधनन तॊडॆयन्नु सीळुत्तेनॆ!” ऎंदु प्रतिज्ञॆमाडिद्दनु.

09059015a मैत्रेयेणाभिशप्तश्च पूर्वमेव महर्षिणा।
09059015c ऊरू भेत्स्यति ते भीमो गदयेति परंतप।।
09059015e अतो दोषं न पश्यामि मा क्रुधस्त्वं प्रलंबहन्।।

परंतप! हिंदॆ महर्षि मैत्रेयनू कूड “भीमनु गदॆयिंद निन्न तॊडॆयन्नु ऒडॆयुत्तानॆ!” ऎंदु शपिसिद्दनु. आदुदरिंद इदरल्लि दोषवन्नेनू नानु काणुत्तिल्ल. कोपगॊळ्ळदिरु!

09059016a यौनैर्हार्दैश्च संबंधैः संबद्धाः स्मेह पांडवैः।
09059016c तेषां वृद्ध्याभिवृद्धिर्नो मा क्रुधः पुरुषर्षभ।।

पांडवरॊंदिगॆ शरीरसंबंधविदॆ29. विवाहद मूलकवू अवरॊंदिगॆ नम्म संबंधविदॆ30. अवर वृद्धियू नम्म वृद्धियू ऒंदे. पुरुषर्षभ! क्रोधितनागबेड!”

09059017 राम उवाच 09059017a धर्मः सुचरितः सद्भिः सह द्वाभ्यां नियच्चति।
09059017c अर्थश्चात्यर्थलुब्धस्य कामश्चातिप्रसंगिनः।।

रामनु हेळिदनु: “संपत्तन्नु अतियागि आसॆपडुवुदरिंद मत्तु अतियाद देहकामवन्नु बयसुवुदरिंद सत्पुरुषरु आचरिसुव धर्मवु संकुचितवागुत्तदॆ.

09059018a धर्मार्थौ धर्मकामौ च कामार्थौ चाप्यपीडयन्।
09059018c धर्मार्थकामान्योऽभ्येति सोऽत्यंतं सुखमश्नुते।।

यारु धर्म-अर्थगळन्नू, धर्म-कामगळन्नू, काम-अर्थगळन्नू परस्पर कुंठितवागदंतॆ धर्म-अर्थ-काम ई मूरन्नू यथोचितवागि अनुसरिसुत्तानो अवनु अत्यंत सुखवन्नु हॊंदुत्तानॆ.

09059019a तदिदं व्याकुलं सर्वं कृतं धर्मस्य पीडनात्।
09059019c भीमसेनेन गोविंद कामं त्वं तु यथात्थ मां।।

गोविंद! भीमसेननु बेकंतले धर्मवन्नु अवहेळिसि ऎल्लवन्नू व्याकुलगॊळिसिद्दानॆ. ई विषयदल्लि नीनु निनगॆ तोरिद धर्मवन्नु ननगॆ हेळुत्तिरुवॆ!”

09059020 वासुदेव उवाच 09059020a अरोषणो हि धर्मात्मा सततं धर्मवत्सलः।
09059020c भवान्प्रख्यायते लोके तस्मात्संशाम्य मा क्रुधः।।

वासुदेवनु हेळिदनु: “नीनु धर्मात्म. सततवू धर्मवत्सल. क्रोधरहितनॆंदु लोकदल्लि प्रख्यातनागिरुवॆ! आदुदरिंद शांतनागु. क्रोधिसबेड!

09059021a प्राप्तं कलियुगं विद्धि प्रतिज्ञां पांडवस्य च।
09059021c आनृण्यं यातु वैरस्य प्रतिज्ञायाश्च पांडवः।।

कलियुगवु प्राप्तवादुदन्नू पांडव भीमसेनन प्रतिज्ञॆयन्नू गमनिसु. पांडव भीमनु वैर मत्तु प्रतिज्ञॆगळ ऋणगळिंद मुक्तनागलि!””

09059022 संजय उवाच 09059022a धर्मच्चलमपि श्रुत्वा केशवात्स विशां पते।
09059022c नैव प्रीतमना रामो वचनं प्राह संसदि।।

संजयनु हेळिदनु: “विशांपते! केशवनिंद व्याजरूपवाद धर्मद विवरणॆयन्नु केळि रामनिगॆ समाधानवागलिल्ल. राजसंसदियल्लि अवनु ई मातुगळन्नाडिदनु:

09059023a हत्वाधर्मेण राजानं धर्मात्मानं सुयोधनं।
09059023c जिह्मयोधीति लोकेऽस्मिन्ख्यातिं यास्यति पांडवः।।

“धर्मात्म राजा सुयोधननन्नु अधर्मदिंद कॊंदु पांडव भीमनु ई लोकदल्लि वंचनॆय युद्धमाडुववनु ऎंदु प्रख्यातनागुत्तानॆ!

09059024a दुर्योधनोऽपि धर्मात्मा गतिं यास्यति शाश्वतीं।
09059024c ऋजुयोधी हतो राजा धार्तराष्ट्रो नराधिपः।।

हतनाद धर्मात्म न्याययोधी नराधिप राजा धार्तराष्ट्र दुर्योधननादरो शाश्वत गतियन्नु हॊंदुत्तानॆ.

09059025a युद्धदीक्षां प्रविश्याजौ रणयज्ञं वितत्य च।
09059025c हुत्वात्मानममित्राग्नौ प्राप चावभृथं यशः।।

युद्धदीक्षॆयन्नु कैगॊंडु प्रवेशिसि रणयज्ञवन्नु पसरिसि शत्रुगळॆंब अग्नियल्लि आत्माहुतियन्नित्तु इवनु यशस्सॆंब अवभृतवन्नु हॊंदिदनु.”

09059026a इत्युक्त्वा रथमास्थाय रौहिणेयः प्रतापवान्।
09059026c श्वेताभ्रशिखराकारः प्रययौ द्वारकां प्रति।।

हीगॆ हेळि रथवन्नेरि श्वेतगिरिय शिखरप्रायनाद प्रतापवान् रौहिणेयनु द्वारकॆय कडॆ प्रयाणिसिदनु.

09059027a पांचालाश्च सवार्ष्णेयाः पांडवाश्च विशां पते।
09059027c रामे द्वारवतीं याते नातिप्रमनसोऽभवन्।।

विशांपते! रामनु द्वारवतिगॆ तॆरळुत्तिरुवुवन्नु नोडि पांचालरु, सर्व वार्ष्णेयरु मत्तु पांडवरु अति प्रसन्नरागलिल्ल.

09059028a ततो युधिष्ठिरं दीनं चिंतापरमधोमुखं।
09059028c शोकोपहतसंकल्पं वासुदेवोऽब्रवीदिदं।।

आग दीननागि चिंतापरनागि शोकदिंद भग्न संकल्पनागि मुखवन्नु कॆळगॆमाडिकॊंडिद्द युधिष्ठिरनिगॆ वासुदेवनु हेळिदनु:

09059029a धर्मराज किमर्थं त्वमधर्ममनुमन्यसे।
09059029c हतबंधोर्यदेतस्य पतितस्य विचेतसः।।

“धर्मराज! एकॆ हीगॆ नीनु अधर्मकार्यक्कॆ ऒप्पिगॆयन्नित्तॆ? बंधुगळन्नु कळॆदुकॊंडु प्रज्ञाहीननागि अवनु कॆळगॆ बिद्दिद्दनु.

09059030a दुर्योधनस्य भीमेन मृद्यमानं शिरः पदा।
09059030c उपप्रेक्षसि कस्मात्त्वं धर्मज्ञः सन्नराधिप।।

नराधिप! धर्मज्ञनाद नीनु दुर्योधनन शिरवन्नु भीमसेननु पादगळिंद तुळियुवुदन्नु एकॆ उपेक्षिसलिल्ल?”

09059031 युधिष्ठिर उवाच 09059031a न ममैतत्प्रियं कृष्ण यद्राजानं वृकोदरः।
09059031c पदा मूर्ध्न्यस्पृशत्क्रोधान्न च हृष्ये कुलक्षये।।

युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “कृष्ण! वृकोदरनु क्रोधदिंद कालिनिंद राजनन्नु मॆट्टिदिदु ननगू इष्टवागलिल्ल. कुलक्षयदल्लि याव संतोषवू इल्ल!

09059032a निकृत्या निकृता नित्यं धृतराष्ट्रसुतैर्वयं।
09059032c बहूनि परुषाण्युक्त्वा वनं प्रस्थापिताः स्म ह।।

धृतराष्ट्रन मक्कळु नम्मन्नु नित्यवू वंचनॆगळिंद मोसगॊळिसुत्तिद्दरु. अनेक कठोरमातुगळन्नाडि नम्मन्नु वनक्कॆ कूड कळुहिसिदरु.

09059033a भीमसेनस्य तद्दुःखमतीव हृदि वर्तते।
09059033c इति संचिंत्य वार्ष्णेय मयैतत्समुपेक्षितं।।

भीमसेनन हृदयदल्लिद्द आ अतीव दुःखवु अवनन्नु ई रीति नडॆसिकॊंडितु. वार्ष्णेय! हीगॆ योचिसि नानु अवन ई कॆलसवन्नु उपेक्षिसलिल्ल.

09059034a तस्माद्धत्वाकृतप्रज्ञं लुब्धं कामवशानुगं।
09059034c लभतां पांडवः कामं धर्मेऽधर्मेऽपि वा कृते।।

आदुदरिंद प्रज्ञॆगळिल्लद लुब्धनाद कामवशानुगनाद दुर्योधननिगॆ धर्म अथवा अधर्म कार्यवन्नॆसगि पांडव भीमनु तन्न आसॆयन्नु पूरैसिकॊंडिद्दानॆ!””

09059035 संजय उवाच 09059035a इत्युक्ते धर्मराजेन वासुदेवोऽब्रवीदिदं।
09059035c काममस्त्वेवमिति वै कृच्च्राद्यदुकुलोद्वहः।।

संजयनु हेळिदनु: “धर्मराजनु हीगॆ हेळलु यदुकुलोद्वह वासुदेवनु बहळ कष्टदिंद “निनगिष्टवादंतागलि!” ऎंदु हेळिदनु.

09059036a इत्युक्तो वासुदेवेन भीमप्रियहितैषिणा।
09059036c अन्वमोदत तत्सर्वं यद्भीमेन कृतं युधि।।

भीमप्रियनाद अवन हितैषिणियाद वासुदेवनु हीगॆ हेळलु भीमनु युद्धदल्लि माडिदुदॆल्लवन्नू अनुमोदिसिदनु.

09059037a भीमसेनोऽपि हत्वाजौ तव पुत्रममर्षणः।
09059037c अभिवाद्याग्रतः स्थित्वा संप्रहृष्टः कृतांजलिः।।

असहनशील भीमसेननादरो निन्न पुत्रनन्नु संहरिसि संतोषदिंद अंजलीबद्धनागि अण्णन ऎदिरु नमस्करिसि निंतुकॊंडनु.

09059038a प्रोवाच सुमहातेजा धर्मराजं युधिष्ठिरं।
09059038c हर्षादुत्फुल्लनयनो जितकाशी विशां पते।।

विशांपते! आ महातेजस्वियु विजयद हर्षदिंद कण्णुगळन्नरळिसिकॊंडु धर्मराज युधिष्ठिरनिगॆ हेळिदनु:

09059039a तवाद्य पृथिवी राजन् क्षेमा निहतकंटका।
09059039c तां प्रशाधि महाराज स्वधर्ममनुपालयन्।।

“राजन्! इंदु निनगागि ई पृथ्वियु कंटकरन्नु कळॆदुकॊंडु क्षेमवागिदॆ. महाराज! स्वधर्मवन्नु पालिसिकॊंडु इदर मेलॆ प्रशासन माडु!

09059040a यस्तु कर्तास्य वैरस्य निकृत्या निकृतिप्रियः।
09059040c सोऽयं विनिहतः शेते पृथिव्यां पृथिवीपते।।

पृथिवीपते! याव मोसप्रियनु निनगॆ मोसगैदनो आ वैरियु इगो हतनागि भूमिय मेलॆ मलगिद्दानॆ.

09059041a दुःशासनप्रभृतयः सर्वे ते चोग्रवादिनः।
09059041c राधेयः शकुनिश्चापि निहतास्तव शत्रवः।।

कठोरमातुगळन्नाडुत्तिद्द निन्न शत्रुगळाद दुःशासनने मॊदलागि राधेय, शकुनि ऎल्लरू हतरागिद्दारॆ.

09059042a सेयं रत्नसमाकीर्णा मही सवनपर्वता।
09059042c उपावृत्ता महाराज त्वामद्य निहतद्विषं।।

महाराज! रत्नसमाकीर्णळाद महियु वनपर्वतगळॊंदिगॆ हतशत्रुवाद निन्नन्नु उपासिसुत्ताळॆ!”

09059043 युधिष्ठिर उवाच 09059043a गतं वैरस्य निधनं हतो राजा सुयोधनः।
09059043c कृष्णस्य मतमास्थाय विजितेयं वसुंधरा।।

युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “निन्न वैरवु कॊनॆगॊंडितु. राजा सुयोधननु हतनादनु. कृष्णन सलहॆगळन्नु अनुसरिसि नावु ई वसुंधरॆयन्नु गॆद्दॆवु!

09059044a दिष्ट्या गतस्त्वमानृण्यं मातुः कोपस्य चोभयोः।
09059044c दिष्ट्या जयसि दुर्धर्ष दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः।।

ऒळ्ळॆयदायितु! नीनु मातृ ऋण मत्तु क्रोध ऋण इवॆरडरिंदलू मुक्तनागिरुवॆ! ऒळ्ळॆयदायितु! दुर्धर्षनन्नु गॆद्दिरुवॆ! ऒळ्ळॆयदायितु! शत्रुवन्नु कॆळगुरुळिसिरुवॆ!””

समाप्ति इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदायुद्धपर्वणि बलदेवसांत्वने एकोनषष्टितमोऽध्यायः।। इदु श्रीमहाभारतदल्लि शल्यपर्वदल्लि गदायुद्धपर्वदल्लि बलदेवसांत्वन ऎन्नुव ऐवत्तॊंभत्तने अध्यायवु.