005 शल्यदुर्योधनसंवादः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

शल्य पर्व

शल्यवध पर्व

अध्याय 5

सार

शल्यसेनापत्याभिषेक (1-27).

09005001 संजय उवाच 09005001a अथ हैमवते प्रस्थे स्थित्वा युद्धाभिनंदिनः।
09005001c सर्व एव महाराज योधास्तत्र समागताः।।

संजयनु हेळिदनु: “महाराज! हिमालयद तप्पलिनल्लि युद्धाभिनंदि योधरॆल्लरू सेरि तंगिदरु.

09005002a शल्यश्च चित्रसेनश्च शकुनिश्च महारथः।
09005002c अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः।।
09005003a सुषेणोऽरिष्टसेनश्च धृतसेनश्च वीर्यवान्।
09005003c जयत्सेनश्च राजानस्ते रात्रिमुषितास्ततः।।

शल्य, चित्रसेन, महारथ शकुनि, अश्वत्थाम, कृप, सात्वत कृतवर्म, सुषेण, अरिष्टसेन, वीर्यवान् धृतसेन, राजा जयत्सेन – इवरु रात्रियन्नु अल्लि कळॆदरु.

09005004a रणे कर्णे हते वीरे त्रासिता जितकाशिभिः।
09005004c नालभन् शर्म ते पुत्रा हिमवंतं ऋते गिरिं।।

रणदल्लि वीर कर्णनु हतनागलु जयदिंद उब्बिद्द पांडवर भयदिंद तत्तरिसिद्द निन्न मक्कळिगॆ आ हिमालयद तप्पलिनल्लियू समाधानवु दॊरकलिल्ल.

09005005a तेऽब्रुवन्सहितास्तत्र राजानं सैन्यसंनिधौ।
09005005c कृतयत्ना रणे राजन्संपूज्य विधिवत्तदा।।

राजन्! रणदल्लि प्रयत्नमाडि अल्लि नॆरॆदिद्द अवरु सैन्य सन्निधियल्लि राजनन्नु विधिवत्तागि गौरविसि अवनिगॆ हेळिदरु:

09005006a कृत्वा सेनाप्रणेतारं परांस्त्वं योद्धुमर्हसि।
09005006c येनाभिगुप्ताः संग्रामे जयेमासुहृदो वयं।।

“सेनानायकनन्नु माडिकॊंडु शत्रुगळॊंदिगॆ नीनु युद्धमाडबेकु. सेनापतिय रक्षणॆयडियल्लि नावु संग्रामदल्लि जयवन्नु गळिसबल्लॆवु!”

09005007a ततो दुर्योधनः स्थित्वा रथे रथवरोत्तमं।
09005007c सर्वयुद्धविभागज्ञमंतकप्रतिमं युधि।।
09005008a स्वंगं प्रच्चन्नशिरसं कंबुग्रीवं प्रियंवदं।
09005008c व्याकोशपद्माभिमुखं व्याघ्रास्यं मेरुगौरवं।।
09005009a स्थाणोर्वृषस्य सदृशं स्कंधनेत्रगतिस्वरैः।
09005009c पुष्टश्लिष्टायतभुजं सुविस्तीर्णघनोरसं।।
09005010a जवे बले च सदृशमरुणानुजवातयोः।
09005010c आदित्यस्य त्विषा तुल्यं बुद्ध्या चोशनसा समं।।
09005011a कांतिरूपमुखैश्वर्यैस्त्रिभिश्चंद्रमसोपमं।
09005011c कांचनोपलसंघातैः सदृशं श्लिष्टसंधिकं।।
09005012a सुवृत्तोरुकटीजंघं सुपादं स्वंगुलीनखं।
09005012c स्मृत्वा स्मृत्वैव च गुणान्धात्रा यत्नाद्विनिर्मितं।।
09005013a सर्वलक्षणसंपन्नं निपुणं श्रुतिसागरं।
09005013c जेतारं तरसारीणामजेयं शत्रुभिर्बलात्।।
09005014a दशांगं यश्चतुष्पादमिष्वस्त्रं वेद तत्त्वतः।
09005014c सांगांश्च चतुरो वेदान्संयगाख्यानपंचमान्।।
09005015a आराध्य त्र्यंबकं यत्नाद्व्रतैरुग्रैर्महातपाः।
09005015c अयोनिजायामुत्पन्नो द्रोणेनायोनिजेन यः।।
09005016a तमप्रतिमकर्माणं रूपेणासदृशं भुवि।
09005016c पारगं सर्वविद्यानां गुणार्णवमनिंदितं।।
09005016e तमभ्येत्यात्मजस्तुभ्यमश्वत्थामानमब्रवीत्।।

आग निन्न मग दुर्योधननु श्रेष्ठ उत्तम रथदल्लि निंतु सर्वयुद्धविभावज्ञनू, युद्धदल्लि अंतकनंतिरुव, सुंदरांग, शिरदल्लि केशराशियिद्द, कंबुग्रीव, प्रियवदन, अरळिद कमलदळगळंतिरुव कण्णुगळिद्द, व्याघ्रदंतॆ विशाल मुखविद्द, मेरुपर्वदंतॆ गंभीरनागिद्द, स्थाणुविन नंदिय हॆगलु-कण्णुगळु-नडिगॆ-गर्जनॆगळिद्द, पुष्ट-सुसंघटित-नीळ तोळुगळिद्द, विशाल-श्रेष्ठ वक्षस्थळविद्द, अरुणानुज गरुड मत्तु वायुविनंथह बल-वेगवुळ्ळ, सूर्यन तेजस्सु मत्तु शुक्राचार्यन बुद्धियुळ्ळ, चंद्रन मुखकांति-रूपैश्वर्ययुक्त, सुवर्णशिलॆय कांतिय शरीरवुळ्ळ, सुघटित संधिगळिंद कूडिद्द, वृत्ताकारद तॊडॆ-कटि-मॊणकालुगळिद्द, सुंदर पाद-बॆरळु-उगुरुगळन्नु पडॆदिद्द, ब्रह्मनु ऒळ्ळॊळ्ळॆय गुणगळन्नु स्मरणॆगॆ तंदुकॊंडु प्रयत्नपूर्वकवागि निर्मिसिदंतिद्द सुंदर अवयवगळिद्द, सर्वलक्षण संपन्न, निपुण, श्रुतिसागर, शत्रुगळन्नु बहुबेग जयिसबल्ल, शत्रुगळिगॆ दुर्लभ, धनुर्वेदद हत्तु अंगगळन्नु मत्तु नाल्कु पादगळन्नु तिळिदिद्द, इष्वस्त्रगळ तत्वगळन्नु तिळिदिद्द, नाल्कु वेदगळन्नु सांगवागि तिळिदिद्द, ऐदनॆय वेदवन्नु तिळिदिद्द, उग्र व्रतानुष्टानगळिंद प्रयत्नपट्टु त्र्यंबकनन्नु आराधिसि अनुग्रह पडॆदुकॊंडिद्द, अयोनिजॆ कृपॆ मत्तु अयोनिज द्रोणरिंद उत्पन्ननागिद्द, अप्रतिम कर्मगळन्नॆसगिद्द, रूपदल्लि भुवियल्लिये असदृशनागिद्द, सर्वविद्या पारंग, गुणगळ सागर, अनिंदित अश्वत्थामनिगॆ ई रीति हेळिदनु:

09005017a यं पुरस्कृत्य सहिता युधि जेष्याम पांडवान्।
09005017c गुरुपुत्रोऽद्य सर्वेषामस्माकं परमा गतिः।।
09005017e भवांस्तस्मान्नियोगात्ते कोऽस्तु सेनापतिर्मम।।

“गुरुपुत्र! यारन्नु मुंदिट्टुकॊंडु ऒट्टागि नावु युद्धदल्लि पांडवरन्नु जयिसबल्लॆवो अंतह नीने नम्मॆल्लर परम गतियु. आदुदरिंद निन्न निर्देशनदंतॆये नावु नडॆदुकॊळ्ळुत्तेवॆ. यारु नन्न सेनापतियागबहुदु?”

09005018 द्रौणिरुवाच 09005018a अयं कुलेन वीर्येण तेजसा यशसा श्रिया।
09005018c सर्वैर्गुणैः समुदितः शल्यो नोऽस्तु चमूपतिः।।

द्रौणियु हेळिदनु: “ई शल्यनु कुल, वीर्य, तेजस्सु, यशस्सु मत्तु श्री ई सर्वगुणगळिंद समुदितनागिरुवनु. अवने नम्म सेनापतियागलि!

09005019a भागिनेयान्निजांस्त्यक्त्वा कृतज्ञोऽस्मानुपागतः।
09005019c महासेनो महाबाहुर्महासेन इवापरः।।

कृतज्ञनाद इवनु तंगिय मक्कळन्नू परित्यजिसि नम्मन्नु अनुसरिसि बंदिद्दानॆ. ई महाबाहुवु मत्तॊब्ब कार्तिकेयनंतॆ महासेनानियागिद्दानॆ.

09005020a एनं सेनापतिं कृत्वा नृपतिं नृपसत्तम।
09005020c शक्यः प्राप्तुं जयोऽस्माभिर्देवैः स्कंदमिवाजितं।।

नृपसत्तम! अपराजित देवतॆगळु स्कंदनन्नु पडॆदु जयवन्नु गळिसिदंतॆ नावू कूड ई नृपतियन्नु सेनापतियन्नागि माडि जयगळिसुत्तेवॆ.”

09005021a तथोक्ते द्रोणपुत्रेण सर्व एव नराधिपाः।
09005021c परिवार्य स्थिताः शल्यं जयशब्दांश्च चक्रिरे।।
09005021e युद्धाय च मतिं चक्रूरावेशं च परं ययुः।।

द्रोणपुत्रनु हीगॆ हेळलु सर्व नराधिपरू शल्यनन्नु सुत्तुवरॆदु निंतु जयकार माडिदरु. युद्धमाडबेकॆंदु निर्धरिसि परम आवेशपूर्णरादरु.

09005022a ततो दुर्योधनः शल्यं भूमौ स्थित्वा रथे स्थितं।
09005022c उवाच प्रांजलिर्भूत्वा रामभीष्मसमं रणे।।

अनंतर दुर्योधननु नॆलद मेलॆये निंतु रथदल्लि कुळितिद्द, रणदल्लि परशुराम-भीष्मर समनागिद्द शल्यनिगॆ कैमुगिदु हेळिदनु:

09005023a अयं स कालः संप्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल।
09005023c यत्र मित्रममित्रं वा परीक्षंते बुधा जनाः।।

“मित्रवत्सल! विध्वांसरु मित्ररु यारु मत्तु अमित्ररु यारु ऎंदु परीक्षिसुवंतह, मित्ररिगॆ सरियाद, कालवु बंदॊदगिदॆ.

09005024a स भवानस्तु नः शूरः प्रणेता वाहिनीमुखे।
09005024c रणं च याते भवति पांडवा मंदचेतसः।।
09005024e भविष्यंति सहामात्याः पांचालाश्च निरुद्यमाः।।

शूरनाद नीनु सेनामुखदल्लि नम्म प्रणेतनागु. नीनु युद्धक्कॆ होदॆयादरॆ अमात्यरॊंदिगॆ मंदबुद्धिय पांडवरू मत्तु पांचालरू उद्योगशून्यरागुत्तारॆ!” 1709005025 शल्य उवाच

09005025a यत्तु मां मन्यसे राजन्कुरुराज करोमि तत्।
09005025c त्वत्प्रियार्थं हि मे सर्वं प्राणा राज्यं धनानि च।।

शल्यनु हेळिदनु: “राजन्! कुरुराज! नीनु ननगॆ हॊरिसुव कार्यवन्नु माडुत्तेनॆ. नन्न प्राण, राज्य, धन सर्ववू निन्न प्रीत्यर्थवागिये इवॆ!”

09005026 दुर्योधन उवाच 09005026a सेनापत्येन वरये त्वामहं मातुलातुलं।
09005026c सोऽस्मान्पाहि युधां श्रेष्ठ स्कंदो देवानिवाहवे।।

दुर्योधननु हेळिदनु: “मातुल! अतुल पराक्रमियागिरुव निन्नन्नु नानु सेनापतियन्नागि आरिसुत्तेनॆ. योधरल्लि श्रेष्ठ स्कंदनु देवतॆगळन्नु हेगो हागॆ नीनु नम्मन्नु युद्धदल्लि रक्षिसुववनागु!

09005027a अभिषिच्यस्व राजेंद्र देवानामिव पावकिः।
09005027c जहि शत्रून्रणे वीर महेंद्रो दानवानिव।।

राजेंद्र! पावकियन्नु देवतॆगळु हेगो हागॆ नानु निन्नन्नु सेनापतियागि अभिषेकिसुत्तेनॆ. वीर! महेंद्रनु दानवरन्नु हेगो हागॆ रणदल्लि शत्रुगळन्नु संहरिसु!””

समाप्ति

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि शल्यवधपर्वणि शल्यदुर्योधनसंवादे पंचमोऽध्यायः।।
इदु श्रीमहाभारतदल्लि शल्यपर्वदल्लि शल्यवधपर्वदल्लि शल्यदुर्योधनसंवाद ऎन्नुव ऐदने अध्यायवु.