174 होत्रवाहनांबासंवादः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

उद्योग पर्व

अंबोऽपाख्यान पर्व

अध्याय 174

सार

तापसरु अंबॆगॆ तन्न तंदॆय मनॆगॆ हिंदिरुगलु हलवारु कारणगळन्नित्तु ऒत्तायिसिदरू अंबॆयु तानु तपस्सन्ने तपिसुत्तेनॆ ऎंदु हठहिडिदुदु (1-13). अल्लिगॆ आगमिसिद्द अंबॆय तायिय तंदॆ राजर्षि होत्रवाहननु अवळ परिस्थितियन्नु तिळिदुकॊंडु तंदॆयमनॆगॆ होगबेडवॆंदू, परशुरामनु अवळिगॆ सहायमाडुत्तानॆंदू हेळिदुदु (14-26).

05174001 भीष्म उवाच।
05174001a ततस्ते तापसाः सर्वे कार्यवंतोऽभवंस्तदा।
05174001c तां कन्यां चिंतयंतो वै किं कार्यमिति धर्मिणः।।

भीष्मनु हेळिदनु: “आग आ ऎल्ल तापसरू आ कन्यॆगॆ धर्मवत्ताद याव कार्यवन्नु माडबेकॆंदु चिंतिसुत्ता कार्यवंतरादरु.

05174002a के चिदाहुः पितुर्वेश्म नीयतामिति तापसाः।
05174002c के चिदस्मदुपालंभे मतिं चक्रुर्द्विजोत्तमाः।।

कॆलवु तापसरु अवळन्नु तंदॆय मनॆगॆ कळुहिसबेकॆंदु हेळिदरु. कॆलवु द्विजोत्तमरु नम्मन्ने दूरुव मनस्सुमाडिदरु.

05174003a के चिच्चाल्वपतिं गत्वा नियोज्यमिति मेनिरे।
05174003c नेति के चिद्व्यवस्यंति प्रत्याख्याता हि तेन सा।।

कॆलवरु शाल्पपतिय बळि होगि अवनन्नु ऒप्पिसबेकॆंदु अभिप्रायपट्टरु. इन्नु कॆलवरु अवळन्नु अवनु त्यजिसिदुदरिंद बेड ऎंदरु.

05174004a एवं गते किं नु शक्यं भद्रे कर्तुं मनीषिभिः।
05174004c पुनरूचुश्च ते सर्वे तापसाः संशितव्रताः।।

हीगॆ कॆल समयवु कळॆयलु ऎल्ल संशितव्रत तापसरू अवळिगॆ पुनः हेळिदरु: “भद्रे! मनीषिगळु ई विषयदल्लि एनु ताने माडबल्लरु?

05174005a अलं प्रव्रजितेनेह भद्रे शृणु हितं वचः।
05174005c इतो गच्चस्व भद्रं ते पितुरेव निवेशनं।।

भद्रे! ई रीति अलॆदाडुवुदन्नु बिडु. हितवचनवन्नु केळु. निन्न तंदॆय मनॆगॆ होगुवुदु निनगॆ ऒळ्ळॆयदु.

05174006a प्रतिपत्स्यति राजा स पिता ते यदनंतरं।
05174006c तत्र वत्स्यसि कल्याणि सुखं सर्वगुणान्विता।
05174006e न च तेऽन्या गतिर्न्याय्या भवेद्भद्रे यथा पिता।।

निन्न तंदॆ राजनु अनंतर एनु माडबेको अदन्नु माडुत्तानॆ. कल्याणि! अल्लि नीनु सर्व गुणगळिंद सुत्तुवरॆयल्पट्टु सुखदिंद वासिसुवॆ. भद्रे! तंदॆयंतह गतियु नारिगॆ बेरॆ यारू इल्ल.

05174007a पतिर्वापि गतिर्नार्याः पिता वा वरवर्णिनि।
05174007c गतिः पतिः समस्थाया विषमे तु पिता गतिः।।

वरवर्णिनी! नारिगॆ पति अथव पितरे गतियु. सुखदल्लिरुवाग पतियु गतियादरॆ कष्टदल्लिरुवाग पितनु गति.

05174008a प्रव्रज्या हि सुदुःखेयं सुकुमार्या विशेषतः।
05174008c राजपुत्र्याः प्रकृत्या च कुमार्यास्तव भामिनि।।

विशेषवागि सुकुमारियागिरुव निनगॆ परिव्राजकत्ववु तुंबा दुःखकरवादुदु. भामिनि! राजपुत्रियागिरुव नीनु प्रकृतियल्लिये कुमारियागिरुवॆ.

05174009a भद्रे दोषा हि विद्यंते बहवो वरवर्णिनि।
05174009c आश्रमे वै वसंत्यास्ते न भवेयुः पितुर्गृहे।।

भद्रे! वरवर्णिनी! आश्रमवासदल्लि बहळ दोषगळिवॆयॆंदु तिळिदिद्देवॆ. इव्यावुदू निन्न तंदॆय मनॆयल्लि इरुवुदिल्ल.”

05174010a ततस्तु तेऽब्रुवन्वाक्यं ब्राह्मणास्तां तपस्विनीं।
05174010c त्वामिहैकाकिनीं दृष्ट्वा निर्जने गहने वने।
05174010e प्रार्थयिष्यंति राजेंद्रास्तस्मान्मैवं मनः कृथाः।।

आग आ ब्राह्मणरु तपस्विनिगॆ ई मातन्नू हेळिदरु: “निर्जनवाद गहन वनदल्लि एकांगियारुव निन्नन्नु नोडि राजेंद्ररु निन्नन्नु बयसुत्तारॆ. आदुदरिंद आ मार्गदल्लि होगलु मनस्सु माडबेड!”

05174011 अंबोवाच।
05174011a न शक्यं काशिनगरीं पुनर्गंतुं पितुर्गृहान्।
05174011c अवज्ञाता भविष्यामि बांधवानां न संशयः।।

अंबॆयु हेळिदळु: “काशीनगरदल्लि तंदॆय मनॆगॆ पुनः होगलु शक्यविल्ल. बांधवरिगॆ नानु गॊत्तिल्लदवळागिबिट्टिद्देनॆ ऎन्नुवुदरल्लि संशयविल्ल.

05174012a उषिता ह्यन्यथा बाल्ये पितुर्वेश्मनि तापसाः।
05174012c नाहं गमिष्ये भद्रं वस्तत्र यत्र पिता मम।
05174012e तपस्तप्तुमभीप्सामि तापसैः परिपालिता।।

तापसरे! एकॆंदरॆ नानु बाल्यदल्लि तंदॆय मनॆयल्लि वासिसिद्दुदु बेरॆयागित्तु. नन्न तंदॆयिरुवल्लिगॆ होगि अल्लि वासिसुवुदिल्ल. निमगॆ मंगळवागलि. तापसरिंद परिपालितळागि तपस्सन्नु तपिसलु बयसुत्तेनॆ.

05174013a यथा परेऽपि मे लोके न स्यादेवं महात्ययः।
05174013c दौर्भाग्यं ब्राह्मणश्रेष्ठास्तस्मात्तप्स्याम्यहं तपः।।

ब्राह्मणश्रेष्ठरे! इदर नंतरद लोकदल्लि ननगॆ ई रीतिय दौर्भाग्यवागली आपत्तागली बरदिरलॆंदु नानु तपस्सन्नु तपिसुत्तेनॆ.””

05174014 भीष्म उवाच।
05174014a इत्येवं तेषु विप्रेषु चिंतयत्सु तथा तथा।
05174014c राजर्षिस्तद्वनं प्राप्तस्तपस्वी होत्रवाहनः।।

भीष्मनु हेळिदनु: “हीगॆ आ विप्ररु अदु इदु ऎंदु योचिसुत्तिरुवाग आ वनक्कॆ राजर्षि तपस्वी होत्रवाहननु आगमिसिदनु.

05174015a ततस्ते तापसाः सर्वे पूजयंति स्म तं नृपं।
05174015c पूजाभिः स्वागताद्याभिरासनेनोदकेन च।।

आग तापसरॆल्लरू आ नृपनन्नु पूजिसिदरु. पूजॆ, आसन, उदकगळन्नित्तु स्वागतिसिदरु.

05174016a तस्योपविष्टस्य ततो विश्रांतस्योपशृण्वतः।
05174016c पुनरेव कथां चक्रुः कन्यां प्रति वनौकसः।।

अवनु कुळितुकॊंडु विश्रांतियन्नु पडॆदु परस्पररन्नु केळिद नंतर वनौकसरु मातुकथॆयन्नु पुनः कन्यॆय कडॆ नडॆसिदरु.

05174017a अंबायास्तां कथां श्रुत्वा काशिराज्ञाश्च भारत।
05174017c स वेपमान उत्थाय मातुरस्याः पिता तदा।
05174017e तां कन्यामंकमारोप्य पर्याश्वासयत प्रभो।।

भारत! प्रभो! काशीराजन अंबॆय आ कथॆयन्नु केळि अवळ तायिय तंदॆयाद अवनु नडुगुत्ता मेलॆद्दु, कन्यॆयन्नु तॊडॆय मेलेरिसिकॊंडु समाधानगॊळिसिदनु.

05174018a स तामपृच्चत्कार्त्स्न्यॆन व्यसनोत्पत्तिमादितः।
05174018c सा च तस्मै यथावृत्तं विस्तरेण न्यवेदयत्।।

अवनु अवळ व्यसनद मूलवन्नु संपूर्णवागि केळलु अवळू कूड अवनिगॆ नडॆदुदॆल्लवन्नू विस्तारदिंद निवेदिसिदळु.

05174019a ततः स राजर्षिरभूद्दुःखशोकसमन्वितः।
05174019c कार्यं च प्रतिपेदे तन्मनसा सुमहातपाः।।

आग आ राजर्षियु तुंबा दुःखशोकसमन्वितनादनु. एनु माडबेकॆंदु आ सुमहातपस्वियु योचिसिदनु.

05174020a अब्रवीद्वेपमानश्च कन्यामार्तां सुदुःखितः।
05174020c मा गाः पितृगृहं भद्रे मातुस्ते जनको ह्यहं।।

कंपिसुत्ता अवनु आर्तळू सुदुःखितळू आगिद्द कन्यॆगॆ हेळिदनु: “भद्रे! तंदॆय मनॆगॆ होगबेड! निन्न तायिय तंदॆ नानु.

05174021a दुःखं चेत्स्यामि तेऽहं वै मयि वर्तस्व पुत्रिके।
05174021c पर्याप्तं ते मनः पुत्रि यदेवं परिशुष्यसि।।

नानु निन्न दुःखवन्नु कळॆयुत्तेनॆ. मगळे! नन्नल्लि विश्वासविडु. निन्न मनस्सन्नु ऒणगिसुत्तिरुव बयकॆयन्नु नानु पूरैसिकॊडुत्तेनॆ.

05174022a गच्च मद्वचनाद्रामं जामदग्न्यं तपस्विनं।
05174022c रामस्तव महद्दुःखं शोकं चापनयिष्यति।
05174022e हनिष्यति रणे भीष्मं न करिष्यति चेद्वचः।।

नन्न मातिनंतॆ जामदग्नि तपस्वि रामनल्लिगॆ होगु. रामनु निन्न महा दुःख-शोकगळन्नु निवारिसुत्तानॆ. अवन मातिनंतॆ नडॆदुकॊळ्ळदे इद्दरॆ भीष्मनन्नु अवनु रणदल्लि कॊल्लुत्तानॆ.

05174023a तं गच्च भार्गवश्रेष्ठं कालाग्निसमतेजसं।
05174023c प्रतिष्ठापयिता स त्वां समे पथि महातपाः।।

कालाग्निसमनाद तेजस्सुळ्ळ आ भार्गवश्रेष्ठनल्लिगॆ होगु. आ महातपस्वियु निन्नन्नु सम मार्गदल्लि नॆलॆसुत्तानॆ.”

05174024a ततस्तु सस्वरं बाष्पमुत्सृजंती पुनः पुनः।
05174024c अब्रवीत्पितरं मातुः सा तदा होत्रवाहनं।।

आग ऒंदेसमनॆ कण्णीरु सुरिसुत्तिद्द अवळु तन्न तायिय तंदॆ होत्रवानननिगॆ पुनः पुनः हेळिदळु:

05174025a अभिवादयित्वा शिरसा गमिष्ये तव शासनात्।
05174025c अपि नामाद्य पश्येयमार्यं तं लोकविश्रुतं।।

“तलॆबागि नमस्करिसि निन्न शासनदंतॆ होगुत्तेनॆ. आदरॆ लोकविश्रुतनाद आ अर्यनन्नु इंदु नानु काणबल्लॆने?

05174026a कथं च तीव्रं दुःखं मे हनिष्यति स भार्गवः।
05174026c एतदिच्चाम्यहं श्रोतुमथ यास्यामि तत्र वै।।

भार्गवनु हेगॆ नन्न ई तीव्र दुःखवन्नु कॊनॆगॊळिसबल्लनु? इदन्नु केळलु बयसुत्तेनॆ. नंतर अल्लिगॆ होगुत्तेनॆ.”

समाप्ति

इति श्री महाभारते उद्योग पर्वणि अंबोऽपाख्यान पर्वणि होत्रवाहनांबासंवादे चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।
इदु श्री महाभारतदल्लि उद्योग पर्वदल्लि अंबोऽपाख्यान पर्वदल्लि होत्रवाहनांबासंवाददल्लि नूराऎप्पत्नाल्कनॆय अध्यायवु.