034 विदुरनीतिवाक्यः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

उद्योग पर्व

प्रजागर पर्व

अध्याय 34

सार

विदुरनु धृतराष्ट्रनिगॆ तन्न नीतिवाक्यगळन्नु मुंदुवरिसिदुदु (1-83).

05034001 धृतराष्ट्र उवाच।
05034001a जाग्रतो दह्यमानस्य यत्कार्यमनुपश्यसि।
05034001c तद्ब्रूहि त्वं हि नस्तात धर्मार्थकुशलः शुचिः।।

धृतराष्ट्रनु हेळिदनु: “निद्दॆ बारदिरुवनु मत्तु बेगॆयुळ्ळवनु एनु माडबेकु? अदन्नु हेळु! अय्या! नीने धर्मार्थकुशलनू शुचियू अल्लवे?

05034002a त्वं मां यथावद्विदुर प्रशादि प्रज्ञापूर्वं सर्वमजातशत्रोः।
05034002c यन्मन्यसे पथ्यमदीनसत्त्व श्रेयस्करं ब्रूहि तद्वै कुरूणां।।

विदुर! अदीनसत्व! आजातशत्रुविगॆ ऎल्लरिगू सरियागिरुवुदु एनु मत्तु कुरुगळिगॆ श्रेयस्करवादुदु एनु ऎंदु निनगन्निसुत्तदॆयो अदन्नु यथावत्तागि हेळु.

05034003a पापाशंकी पापमेवानुपश्यन् पृच्चामि त्वां व्याकुलेनात्मनाहं।
05034003c कवे तन्मे ब्रूहि सर्वं यथावन् मनीषितं सर्वमजातशत्रोः।।

मुंदॆ कॆडुकागबहुदॆंदु शंकिसि नानु हिंदॆ माडिद पापगळन्ने काणुत्तिद्देनॆ. कवे! व्याकुलात्मनागि नानु निन्नल्लि केळुत्तिद्देनॆ. अजातशत्रुविन योचनॆयल्लिरबहुदादुदॆल्लवन्नू ननगॆ यथावत्तागि हेळु.”

05034004 विदुर उवाच।
05034004a शुभं वा यदि वा पापं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियं।
05034004c अपृष्टस्तस्य तद्ब्रूयाद्यस्य नेच्चेत्पराभवं।।

विदुरनु हेळिदनु: “यार सोलन्नु बयसुवुदिल्लवो अवनिगॆ, केळदे इद्दरू, अदु अवनिगॆ शुभवॆंदॆनिसलि अथवा पापवॆंदॆनिसलि, द्वेष अथवा प्रियवादुदॆंदॆनिसलि, सत्यवन्ने नुडियबेकु.

05034005a तस्माद्वक्ष्यामि ते राजन्भवमिच्चन्कुरून्प्रति।
05034005c वचः श्रेयस्करं धर्म्यं ब्रुवतस्तन्निबोध मे।।

राजन्! आदुदरिंद कुरुगळिगॆ ऒळ्ळॆयदन्ने बयसि निनगॆ श्रेयस्करवाद, धर्मयुक्त मातुगळन्नु हेळुत्तिद्देनॆ. अर्थमाडिको!

05034006a मिथ्योपेतानि कर्माणि सिध्येयुर्यानि भारत।
05034006c अनुपायप्रयुक्तानि मा स्म तेषु मनः कृथाः।।

भारत! मोस मत्तु कॆट्ट विधानगळन्नु बळसि यशस्वियागुव कर्मगळल्लि निन्न मनस्सन्नु तॊडगिसबेड.

05034007a तथैव योगविहितं न सिध्येत्कर्म यन्नृप।
05034007c उपाययुक्तं मेधावी न तत्र ग्लपयेन्मनः।।

नृप! सरियागि कैगॊंड उत्तम कार्यवु सिद्धियन्नु कॊडदिद्दरू मेधावियु तन्न मनस्सन्नु आयासगॊळ्ळलु बिडुवुदिल्ल.

05034008a अनुबंधानवेक्षेत सानुबंधेषु कर्मसु।
05034008c संप्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत्।।

कर्मगळॊंदिगॆ परिणामगळु जोडिकॊंडिरुवुदरिंद परिणामगळ कुरितु योचिसि कार्यगळन्नु कैगॊळ्ळबेकु; अवसरदल्लि माडबारदु.

05034009a अनुबंधं च संप्रेक्ष्य विपाकांश्चैव कर्मणां।
05034009c उत्थानमात्मनश्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा।।

कर्मगळिंद मुंदागुव परिणामगळन्नु मत्तु अवुगळन्नु सहिसिकॊळ्ळलु तन्नल्लिरुव शक्तियन्नु नोडिकॊंडु अदन्नु माडबेको अथवा इल्लवो ऎंदु निर्धरिसबेकु.

05034010a यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये।
05034010c कोशे जनपदे दंडे न स राज्येऽवतिष्ठते।।

याव राजनिगॆ स्थान, लाभ, नष्ट, हण, जनरु मत्तु शिक्षॆगळ प्रमाणगळु तिळिदिल्लवो अवनु बहुकाल राजनागि उळियुवुदिल्ल.

05034011a यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति।
05034011c युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्चति।।

यारु ई हिंदॆ हेळिद प्रमाणगळन्नु धर्मार्थयुक्तनागि तिळिदुकॊंडु नडॆयुत्तानो अवनु राजत्ववन्नु पडॆयुत्तानॆ.

05034012a न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसांप्रतं।
05034012c श्रियं ह्यविनयो हंति जरा रूपमिवोत्तमं।।

“राज्यवन्नु पडॆदिद्देनॆ!” ऎंदु ऒळ्ळॆयदागि नडॆदुकॊळ्ळदे इद्दरॆ, आ अविनयवु, वृद्धाप्यवु उत्तम रूपवन्नु हेगो हागॆ, संपत्तन्नु नाशगॊळिसुत्तदॆ.

05034013a भक्ष्योत्तमप्रतिच्चन्नं मत्स्यो बडिशमायसं।
05034013c रूपाभिपाती ग्रसते नानुबंधमवेक्षते।।

ऒंदु मीनु, तोरुविकॆगॆ मात्र हारि, उत्तम आहारदल्लि मुच्चिट्टिरुव उक्किन मुळ्ळन्नु, अदर परिणामवेनागबहुदु ऎंदु योचिसदे नुंगुत्तदॆ.

05034014a यच्चक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
05034014c हितं च परिणामे यत्तदद्यं भूतिमिच्चता।।

ऒळ्ळॆयदन्नु बयसुववनु एनन्नु तिन्नबहुदो अदन्नु हुडुकुत्तानॆ, तिंद मेलॆ अदु हेगॆ जीर्णवागुत्तदॆ ऎन्नुवुदर कुरितु योचिसुत्तानॆ, मत्तु जीर्णगॊंड नंतर ई आहारवु ऒळ्ळॆयदन्नु उंटुमाडबल्लदो ऎंदू योचिसुत्तानॆ.

05034015a वनस्पतेरपक्वानि फलानि प्रचिनोति यः।
05034015c स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति।।

मरदिंद इन्नू हण्णागिरद फलवन्नु कित्तरॆ अदर रसवू सिगुवुदिल्ल मत्तु अदरल्लिरुव बीजवू नष्टवागुत्तदॆ.

05034016a यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं फलं।
05034016c फलाद्रसं स लभते बीजाच्चैव फलं पुनः।।

आदरॆ हण्णाद कालदल्लि हण्णन्नु कित्तरॆ फलदिंद रसवु दॊरॆयुत्तदॆ मत्तु बीजदिंद पुनः फलवु दॊरॆयुत्तदॆ.

05034017a यथा मधु समादत्ते रक्षन्पुष्पाणि षट्पदः।
05034017c तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।।

जेनु हुळुगळु हेगॆ हूगळन्नु रक्षिसि जेनन्नु मात्र शेकरिसुत्तवॆयो हागॆ मनुष्यनू कूड इतररन्नु हिंसिसदे संपत्तन्नु गळिसबेकु.

05034018a पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्चेदं न कारयेत्।
05034018c मालाकार इवारामे न यथांगारकारकः।।

मालॆगळन्नु कट्टि मारुववनंतॆ हूवुगळन्नु मात्र कीळबेके हॊरतु, इद्दलु माडि मारुववनंतॆ बेरिन सहित गिडवन्नु कीळबारदु.

05034019a किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः।
05034019c इति कर्माणि संचिंत्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा।।

इदन्नु माडिदरॆ ननगेनागुत्तदे? माडदे इद्दरॆ ननगॆ एनागुत्तदॆ? ऎंदु पुरुषनु प्रतियॊंदु कर्मद कुरितू आलोचिसि अदन्नु माडबेकु अथवा माडबारदु.

05034020a अनारभ्या भवंत्यर्थाः के चिन्नित्यं तथागताः।
05034020c कृतः पुरुषकारोऽपि भवेद्येषु निरर्थकः।।

कॆलवॊंदु विषयगळ कुरितु एनन्नू माडबारदु, मत्तु अवु यावागलू हागॆये इरुत्तवॆ. एकॆंदरॆ अदर कुरितु पुरुषनु ऎष्टे माडिदरू अदु निरर्थकवागुत्तदॆ.

05034021a कांश्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्।
05034021c क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान्।।

इन्नु कॆलवु कर्मगळु स्वल्पवे बेरुगळिद्दरू हॆच्चिन फलवन्नु नीडुवंथहुदु. प्राज्ञ नरनु अंथवुगळन्नु क्षिप्रवागि कैगॊळ्ळुत्तानॆ मत्तु अंथवुगळिगॆ विघ्नवन्नु तरुवुदिल्ल.

05034022a ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव।
05034022c आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यंति तं प्रजाः।।

कण्णुगळिंदले कुडियुवंतॆ यारु ऎल्लवन्नू नेरवागि काणुत्तारो अवरु सुम्मनॆ कुळितुकॊंडिद्दरू प्रजॆगळु संतोषगॊळ्ळुत्तारॆ.

05034023a चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधं।
05034023c प्रसादयति लोकं यः तं लोकोऽनुप्रसीदति।।

यारु नाल्कु विधगळिंद - दृष्टि, योचनॆ, मातु मत्तु कॆलस - लोकवन्नु प्रीतिसुत्तानो अवनन्नु लोकवू प्रीतिसुत्तदॆ.

05034024a यस्मात्त्रस्यंति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव।
05034024c सागरांतामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते।।

आदरॆ अवनिगॆ, बेटॆगारनिगॆ जिंकॆगळु हेगो हागॆ, प्रजॆगळु हॆदरिदरॆ, अवनु सागरद अंचिनवरॆगिन भूमियन्नु पडॆदिद्दरू तिरस्करिसल्पडुत्तानॆ.

05034025a पितृपैतामहं राज्यं प्राप्तवान्स्वेन तेजसा।
05034025c वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः।।

तन्नदे तेजस्सिनिंद पितृपैतामहर राज्यवन्नु पडॆयबहुदु. आदरॆ अवनु अन्यायद दारियल्लि नडॆदरॆ भिरुगाळियु मोडवन्नु चदुरिसुवंतॆ अदन्नु तुंडरिसिबिडबहुदु.

05034026a धर्ममाचरतो राज्ञाः सद्भिश्चरितमादितः।
05034026c वसुधा वसुसंपूर्णा वर्धते भूतिवर्धनी।।

मॊदलिनिंदलू साधुगळु आचरिसि कॊंडु बंदिरुव धर्मवन्नु आचरिसुव राजन भूमियु अभिवृद्धि हॊंदुत्तदॆ मत्तु संपत्तु वृद्धियागुत्तदॆ.

05034027a अथ संत्यजतो धर्ममधर्मं चानुतिष्ठतः।
05034027c प्रतिसंवेष्टते भूमिरग्नौ चर्माहितं यथा।।

आदरॆ धर्मवन्नु तॊरॆदु अधर्मववन्नु अनुसरिसुववन आस्तियु बॆंकिगॆ तगुलिद चर्मदंतॆ मुदुडिकॊळ्ळुवुदु.

05034028a य एव यत्नः क्रियते परराष्ट्रावमर्दने।
05034028c स एव यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने।।

शत्रुगळ राष्ट्रवन्नु सदॆबडियलु ऎष्टु प्रयत्न माडुत्तेवॆयो अष्टे प्रयत्नवन्नु तन्न राष्ट्रद परिपालनॆय कर्तव्यदल्लियू माडबेकु.

05034029a धर्मेण राज्यं विंदेत धर्मेण परिपालयेत्।
05034029c धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते।।

धर्मदिंद राज्यवन्नु स्थापिसबेकु, धर्मदिंद अदन्नु परिपालिसबेकु. धर्ममूलवाद श्रीयु नष्टवागुवुदिल्ल. जयिसल्पडुवुदू इल्ल.

05034030a अप्युन्मत्तात्प्रलपतो बालाच्च परिसर्पतः।
05034030c सर्वतः सारमादद्यादश्मभ्य इव कांचनं।।

कल्लिनिंद कांचनवन्नु हेगो हागॆ हुच्चन प्रलापदिंदागली हरिदाडुव मगुविनिंदागली सारवुळ्ळ एनादरू दॊरॆयुत्तदॆये?

05034031a सुव्याहृतानि सुधियां सुकृतानि ततस्ततः।
05034031c संचिन्वन्धीर आसीत शिलाहारी शिलं यथा।।

तिळिदवनु, शिलाहारियुव शिलवन्नु हेगो हागॆ, साधुगळु आगाग माडिद सुव्यवहार-सुकृतगळन्नु ऒट्टु हाकिकॊंडु मॆलकु हाकुत्तिरुत्तानॆ.

05034032a गंधेन गावः पश्यंति वेदैः पश्यंति ब्राह्मणाः।
05034032c चारैः पश्यंति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः।।

गोवुगळु वासनॆयिंद नोडुत्तवॆ, ब्राह्मणरु वेदगळ मूलक नोडुत्तारॆ, राजरु चारर मूलक नोडुत्तारॆ मत्तु इतर जनरॆल्लरू कण्णुगळिंद नोडुत्तारॆ.

05034033a भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा।
05034033c अथ या सुदुहा राजन्नैव तां विनयंत्यपि।।

हालन्नु कॊडदे इरुव गोवु कष्टवन्नु अनुभविसबहुदु. आदरॆ, राजन्! उत्तम हालुकरॆयुववनन्नु यारू बग्गिसलाररु.

05034034a यदतप्तं प्रणमति न तत्संतापयंत्यपि।
05034034c यच्च स्वयं नतं दारु न तत्सम्नामयंत्यपि।।

कायिसदॆये बग्गिसबहुदादुदन्नु जनरु कायिसुवुदिल्ल. स्वयं बग्गुव गिडवन्नु बग्गिसलु बलवन्नु उपयोगिसुवुदिल्ल.

05034035a एतयोपमया धीरः सम्नमेत बलीयसे।
05034035c इंद्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे।।

ई उपमेयद प्रकार धीरनु तनगिंत हॆच्चिन बलशालिगॆ मणियुत्तानॆ. बलशालिगॆ मणियुववरन्नु इंद्रनू नमस्करिसुत्तानॆ.

05034036a पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मित्रबांधवाः।
05034036c पतयो बांधवाः स्त्रीणां ब्राह्मणा वेदबांधवाः।।

पशुगळिगॆ मळॆयु नाथ, राजनिगॆ मित्ररे बांधवरु, स्त्रीयरिगॆ पतिगळे बांधवरु, मत्तु ब्राह्मणरिगॆ वेदगळे बांधवरु.

05034037a सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
05034037c मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।

धर्मवु सत्यदिंद रक्षिसल्पडुत्तदॆ, विद्यॆयु योगदिंद रक्षिसल्पडुत्तदॆ, तॊळॆयुवुदरिंद रूपवु रक्षिसल्पडुत्तदॆ मत्तु कुलवु नडतॆयिंद रक्षिसल्पडुत्तदॆ.

05034038a मानेन रक्ष्यते धान्यमश्वान्रक्षत्यनुक्रमः।
05034038c अभीक्ष्णदर्शनाद्गावः स्त्रियो रक्ष्याः कुचेलतः।।

धान्यवु अळतॆयिंद रक्षिसल्पडुत्तदॆ, अश्वगळु व्यायामदिंद रक्षिसल्पडुत्तवॆ, कायुवुदरिंद गोवुगळु रक्षिसल्पडुत्तवॆ मत्तु स्त्रीयरु उडुपुगळिंद रक्षिसल्पडुत्तारॆ.

05034039a न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मतिः।
05034039c अंत्येष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।

उत्तम नडतॆयिल्लदवनिगॆ कुलवु प्रमाणवल्लवॆंदु नन्न अभिप्राय. एकॆंदरॆ हीन कुलदल्लि जनिसिद्दरू अवर नडतॆयु विशेषवागिरबहुदु.

05034040a य ईर्ष्युः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये।
05034040c सुखे सौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनंतकः।।

इन्नॊब्बर संपत्तु, रूप, वीर्य, उत्तम कुल, सुख, सौभाग्य मत्तु सत्कारगळ बग्गॆ असूयॆ पडुववर व्याधिगॆ अंत्यविल्ल.

05034041a अकार्यकरणाद्भीतः कार्याणां च विवर्जनात्।
05034041c अकाले मंत्रभेदाच्च येन माद्येन्न तत्पिबेत्।।

माडबारद्दन्नु माडियेनु ऎंदु भयविरुवाग, अकालदल्लि गॊंदलक्कीडादाग, मत्तेरिसुव एनन्नू कुडियबेड.

05034042a विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
05034042c एते मदावलिप्तानामेत एव सतां दमाः।

विद्यामद, धनमद मत्तु मूरनॆयदागि जनबॆंबलद मद. इवु पुरुषनन्नु मुळुगिसुव मदगळु. इवुगळन्ने सज्जनरु नियंत्रणदल्लिट्टुकॊळ्ळुत्तारॆ.

05034043a असंतोऽभ्यर्थिताः सद्भिः किं चित्कार्यं कदा चन।
05034043c मन्यंते संतमात्मानमसंतमपि विश्रुतं।।

संतरु असंतरल्लि एनादरू ऒंदु कॆलसवन्नु केळिदरू कूड, अवरु असंतरॆंदु विश्रुतरागिद्दरू तम्मन्नु तावे संतरॆंदु तिळिदुकॊंडुबिडुत्तारॆ.

05034044a गतिरात्मवतां संतः संत एव सतां गतिः।
05034044c असतां च गतिः संतो न त्वसंतः सतां गतिः।।

संतरु आत्मवंतर गति, संतरु सत्यवंतर गति. असतरन्नु संतरु नडॆसबल्लरु आदरॆ असंतरु संतरन्नु ऎंदू नडॆसुवुदिल्ल.

05034045a जिता सभा वस्त्रवता समाशा गोमता जिता।
05034045c अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितं।।

उत्तम उडुपन्नु धरिसिदवनु सभॆयन्नु गॆल्लबहुदु. हलवारु गोवुगळन्नु हॊंदिद श्रीमंतनु बडवरन्नु गॆल्लबहुदु. वाहनविरुववनु दारियन्नु गॆल्लबहुदु. आदरॆ शीलवंतनु ऎल्लवन्नू गॆल्लुत्तानॆ.

05034046a शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति।
05034046c न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बंधुभिः।।

पुरुषनिगॆ शीलवे प्रधान. अदन्नु कळॆदुकॊंडरॆ अवनिगॆ जीवनदिंदलू, संपत्तिनिंदलू, बंधुगळिंदलू प्रयोजनवागुवुदिल्ल.

05034047a आढ्यानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरं।
05034047c लवणोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षभ।।

भरतर्षभ! अति श्रीमंतनिगॆ मांसवु परम भोजन, मध्यमरिगॆ हसुविन हालु मत्तु दरिद्ररिगॆ उप्पे परम भोजन.

05034048a संपन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुंजते सदा।
05034048c क्षुत्स्वादुतां जनयति सा चाढ्येषु सुदुर्लभा।।

आदरू दरिद्ररु चॆन्नागि ऊटमाडुत्तारॆ; हसिवॆयु अवर ऊटवन्नु रुचियागिसुत्तदॆ. अदु धनिकरिगॆ तुंबा दुर्लभ.

05034049a प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते।
05034049c दरिद्राणां तु राजेंद्र अपि काष्ठं हि जीर्यते।।

राजेंद्र! लोकदल्लि श्रीमंतरिगॆ चॆन्नागि हसिवॆयागुवुदिल्ल ऎंदु कंडुबरुत्तदॆ. आदरॆ दरिद्ररु कट्टिगॆयन्नू कूड जीर्णिसिकॊळ्ळबल्लरु.

05034050a अवृत्तिर्भयमंत्यानां मध्यानां मरणाद्भयं।
05034050c उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात्परं भयं।।

कॆळगिनवरिगॆ कॆलस दॊरॆयदे इरुवुदर भय मत्तु मध्यमरिगॆ मरणद भय. उत्तम जनरिगॆ अवमानवे परम भय.

05034051a ऐश्वर्यमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः।
05034051c ऐश्वर्यमदमत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते।।

मद्यपानदिंदुटागुव मत्तिगिंत ऐश्वर्यमदवु पापिष्ठवादुदु. ऐश्वर्य मददिंद मत्तनादवनिगॆ बिद्दरू बुद्धि बरुवुदिल्ल.

05034052a इंद्रियैरिंद्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः।
05034052c तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव।।

तम्म आसॆगळन्नु पूरैसलु कडिवाणविल्लदे नडॆदुकॊळ्ळुववरन्नु, नक्षत्रगळन्नु ग्रहगळु हेगो हागॆ, इंद्रियगळु काडुत्तवॆ.

05034053a यो जितः पंचवर्गेण सहजेनात्मकर्शिना।
05034053c आपदस्तस्य वर्धंते शुक्लपक्ष इवोडुराट्।।

यार सहजवागिरुव ऐदु इंद्रियगळु आत्मवन्नु गॆद्दु ऎळॆदुकॊंडु होगुत्तवॆयो अवन आपत्तुगळु शुक्लपक्षद चंद्रनंतॆ वृद्धियागुत्तवॆ.

05034054a अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते।
05034054c अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते।।

तन्नन्नु तानु नियंत्रणदल्लिट्टुकॊळ्ळदे तन्न अमात्यरन्नु नियंत्रिसुववनु मत्तु अमात्यरन्नु वशपडिसिकॊळ्ळदे शत्रुगळन्नु गॆल्ललु प्रयत्निसुववनु सोलुत्तानॆ.

05034055a आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत्।
05034055c ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते।।

देशरूपद तन्नन्ने यारु मॊदलु गॆल्लुत्तानो अवनिगॆ अमात्यरन्नू शत्रुगळन्नू गॆल्लुवुदु कष्टवागुवुदिल्ल.

05034056a वश्येंद्रियं जितामात्यं धृतदंडं विकारिषु।
05034056c परीक्ष्यकारिणं धीरमत्यंतं श्रीर्निषेवते।।

इंद्रियगळन्नु गॆद्दिरुव, अमात्यरन्नु गॆद्दिरुव, अपराधिगळन्नु शिक्षिसुव, चॆन्नागि परीक्षिसि कार्यमाडुव धीरनन्नु संपत्तु बहळवागि वरिसुत्तदॆ.

05034057a रथः शरीरं पुरुषस्य राजन् नात्मा नियंतेंद्रियाण्यस्य चाश्वाः।
05034057c तैरप्रमत्तः कुशलः सदश्वैर् दांतैः सुखं याति रथीव धीरः।।

राजन्! पुरुषन शरीरवु ऒंदु रथविद्दंतॆ. आत्मवु सारथि, इंद्रियगळु कुदुरॆगळु. अश्वगळन्नु चॆन्नागि नियंत्रिसुव अप्रमत्त, कुशल, धीर रथिकनु सुखवन्नु हॊंदुत्तानॆ.

05034058a एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलं।
05034058c अविधेया इवादांता हयाः पथि कुसारथिं।।

अविधेय, नियंत्रणदल्लिल्लद कुदुरॆगळु प्रयाणिसुत्तिरुव सारथिगॆ हेगो हागॆ नियंत्रणदल्लिल्लद इंद्रियगळु आपत्तुगळन्नु तंदॊड्डुत्तवॆ.

05034059a अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः।
05034059c इंद्रियैः प्रसृतो बालः सुदुःखं मन्यते सुखं।।

इंद्रियगळिंद नडॆसल्पट्ट बालकनु लाभविल्लदुदन्नु लाभदायकवॆंदू, लाभदायकवादुदन्नु लाभविल्लदुदॆंदू तिळिदु अती दुःखवन्नु तरुवंथहुदन्नु सुखवॆंदु परिगणिसुत्तानॆ.

05034060a धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिंद्रियवशानुगः।
05034060c श्रीप्राणधनदारेभ्य क्षिप्रं स परिहीयते।।

धर्मार्थगळन्नु परित्यजिसि इंद्रियगळ वशनागुववनन्नु अदृष्ट, संपत्तु, प्राण, मत्तु पत्नि बेगने तॊरॆयुत्तवॆ.

05034061a अर्थानामीश्वरो यः स्यादिंद्रियाणामनीश्वरः।
05034061c इंद्रियाणामनैश्वर्यादैश्वर्याद्भ्रश्यते हि सः।।

संपत्तिन ऒडॆयनागिद्दरू इंद्रियगळ मेलॆ ऒडॆतनविल्लदिद्दरॆ ऒडॆयनिल्लद इंद्रियगळु अवन ऐश्वर्यवन्नु अवनिंद दूरमाडुववु.

05034062a आत्मनात्मानमन्विच्चेन्मनोबुद्धींद्रियैर्यतैः।
05034062c आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

मनस्सु, बुद्धि मत्तु इंद्रियगळन्नु ऒंदुगूडिसि तन्न आत्मवन्नु ताने हुडुकिकॊळ्ळबेकु. आत्मवे तन्न बंधु मत्तु आत्मवे तन्न शत्रुवू कूड.

05034063a क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुभौ।
05034063c कामश्च राजन्क्रोधश्च तौ प्रज्ञानं विलुंपतः।।

राजन्! दुर्बल जालदल्लि हिडिदिट्टिरुव ऎरडु बलशालि मीनुगळंतॆ काम-क्रोधगळॆरडू प्रज्ञानवन्नु हरिदु चिंदि माडुत्तवॆ.

05034064a समवेक्ष्येह धर्मार्थौ संभारान्योऽधिगच्चति।
05034064c स वै संभृतसंभारः सततं सुखमेधते।।

धर्मार्थगळॆरडन्नू नोडिकॊंडु अवश्यविरुववुगळन्नु यारु ऒट्टुगूडिसिकॊळ्ळुत्तारो अवरु तम्म अवश्यकतॆगळन्नु पूरैसिकॊंडु सततवू सुखवागिरुत्तारॆ.

05034065a यः पंचाभ्यंतरां शत्रूनविजित्य मतिक्षयान्।
05034065c जिगीषति रिपूनन्यान्रिपवोऽभिभवंति तं।।

ऒळगिरुव ई ऐदु शत्रुगळन्नु जयिसदे यारु हॊरगिन शत्रुगळन्नु जयिसलु हॊरडुत्तानो अवनन्नु रिपुगळे गॆल्लुत्तारॆ.

05034066a दृश्यंते हि दुरात्मानो वध्यमानाः स्वकर्मभिः।
05034066c इंद्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राज्यविभ्रमैः।।

राज्यद हुच्चिनिंदागि तम्म इंद्रियगळन्नु हिडितदल्लिट्टुकॊळ्ळदे इरुव दुरात्म राजरुगळु तम्मदे कर्मगळिंद मरणहॊंदिदुदन्नु नोडिद्देवल्ल!

05034067a असंत्यागात्पापकृतामपापांस् तुल्यो दंडः स्पृशते मिश्रभावात्।
05034067c शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात् तस्मात्पापैः सह संधिं न कुर्यात्।।

ऒणहुल्लिन जॊतॆगॆ अदरॊडनॆ सेरिकॊंडिद्द हसि हुल्लुकूड सुट्टुहोगुवंतॆ पापकर्म माडुववरॊडनिरुव निष्पापिगळू कूड शिक्षॆयन्नु अनुभविसुत्तारॆ. आदुदरिंद पापिष्टरॊंदिगॆ सेरिकॊळ्ळबारदु.

05034068a निजानुत्पततः शत्रून्पंच पंचप्रयोजनान्।
05034068c यो मोहान्न निगृह्णाति तमापद्ग्रसते नरं।।

याव नरनु मोहदिंद तन्न ऐदु प्रयोजनगळिगॆ आसॆबुरुकरागिरुव ऐवरु शत्रुगळन्नु निग्रहिसिट्टुकॊळ्ळुवुदो अवनन्नु आपत्तु हिडिदुकॊळ्ळुत्तदॆ.

05034069a अनसूयार्जवं शौचं संतोषः प्रियवादिता।
05034069c दमः सत्यमनायासो न भवंति दुरात्मनां।।

असूयॆपडदिरुवुदु, सरळतॆ, शुचित्व, संतोष, प्रियवागि मातनाडुवुदु, आत्मनिग्रह, सत्य, अनायास इवु ऎंदू दुरात्मनद्दागुववल्ल.

05034070a आत्मज्ञानमनायासस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
05034070c वाक्चैव गुप्ता दानं च नैतान्यंत्येषु भारत।।

भारत! आत्मज्ञान, अनायासवागि निरंतरवागि धर्मदल्लि नॆलॆसिरुवुदु, मातु मत्तु दानगळन्नु गुप्तवागिट्टुकॊळ्ळुवुदु इवु कीळु जनरल्लि इरुवुदिल्ल.

05034071a आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसंत्यबुधा बुधान्।
05034071c वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते।।
05034072a हिंसा बलमसाधूनां राज्ञां दंडविधिर्बलं।
05034072c शुश्रूषा तु बलं स्त्रीणां क्षमा गुणवतां बलं।।

हिंसॆयल्लि असाधुगळ बलवू, राजरल्लि दंडवन्नु विधिसबल्ल शक्तियू, स्त्रीयरल्लि शुश्रूषद बलवू गुणवंतरल्लि क्षमॆय बलवू इवॆ.

05034073a वाक्सम्यमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः।
05034073c अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहु भाषितुं।

नृपते! वाक् संयमवु ऎल्लकिंत सुदुष्करवादद्दु ऎंब मतविदॆ. तुंबा मातनाडुववनिगॆ अर्थवत्तागि स्वारस्यवागि हेळलु साध्यवागुवुदिल्ल.

05034074a अभ्यावहति कल्याणं विविधा वाक्सुभाषिता।
05034074c सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायोपपद्यते।।

ऒळ्ळॆय मातु विविध उत्तम फलगळन्नु नीडुत्तदॆ. आदरॆ राजन्! कॆट्ट मातु अनर्थगळन्नुंटुमाडुत्तदॆ.

05034075a संरोहति शरैर्विद्धं वनं परशुना हतं।
05034075c वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतं।।

बाणगळिंद अथवा कॊडलियिंद कडियल्पट्ट वनवु पुनः चिगुरुत्तदॆ. आदरॆ कॆट्ट मातुगळिंद नॊंद, मुदुडिद हृदयवु मत्तॆ चिगुरुवुदिल्ल.

05034076a कर्णिनालीकनाराचा निर्हरंति शरीरतः।
05034076c वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।।

शरीरवन्नु हॊक्क बाण ईटि मॊदलाद आयुधगळन्नु कीळबहुदु. आदरॆ हृदयवन्नु हॊक्क मातिन बाणवन्नु कीळलिक्कागुवुदिल्ल.

05034077a वाक्सायका वदनान्निष्पतंति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
05034077c परस्य नामर्मसु ते पतंति तान्पंडितो नावसृजेत्परेषु।।

मातिन ईटियु बायियिंद हॊरबीळुत्तदॆ. इदरिंद पॆट्टुतिंदवनु रात्रि-दिनगळल्लि चिंतिसुत्तानॆ. पंडितरु इंतह ईटियन्नु अवर मर्मगळन्नु भेदिसबारदॆंदु इतरर मेलॆ ऎंदू प्रयोगिसुवुदिल्ल.

05034078a यस्मै देवाः प्रयच्चंति पुरुषाय पराभवं।
05034078c बुद्धिं तस्यापकर्षंति सोऽपाचीनानि पश्यति।।

याव पुरुषन पराभववन्नु देवतॆगळु इच्छिसुत्तारो अवन बुद्धियन्नु अपहरिसुत्तारॆ. इदरिंद अवनु बरुत्तिरुव आपत्तन्नु काणुवुदिल्ल.

05034079a बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते।
05034079c अनयो नयसंकाशो हृदयान्नापसर्पति।।

बुद्धियु कलुषितवादाग भूतगळ विनाशवु हत्तिरवागुत्तदॆ. अन्यायवु न्यायवागि तोरि हृदयवन्नु सुत्तिकॊळ्ळुत्तदॆ.

05034080a सेयं बुद्धिः परीता ते पुत्राणां तव भारत।
05034080c पांडवानां विरोधेन न चैनामवबुध्यसे।।

भारत! पांडवर विरोधदिंद निन्न पुत्रर बुद्धियु मसुकागिदॆ ऎन्नुवुदु निनगॆ तिळियुत्तिल्ल.

05034081a राजा लक्षणसंपन्नस्त्रैलोक्यस्यापि यो भवेत्।
05034081c शिष्यस्ते शासिता सोऽस्तु धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः।।
05034082a अतीव सर्वान्पुत्रांस्ते भागधेयपुरस्कृतः।

धृतराष्ट्र! मूरू लोकगळ राजनू आगबल्ल लक्षण संपन्ननाद युधिष्ठिरनु निन्न शिष्य. अवनिगॆ आळलु बिडु. निन्न पुत्ररॆल्लरल्लि अवनु तुंबा गौरवान्वित भागधेयनु.

05034082c तेजसा प्रज्ञाया चैव युक्तो धर्मार्थतत्त्ववित्।।
05034083a आनृशंस्यादनुक्रोशाद्योऽसौ धर्मभृतां वरः।
05034083c गौरवात्तव राजेंद्र बहून् क्लेशांस्तितिक्षति।।

तेजस्सु मत्तु प्रज्ञॆयिंद कूडिद, धर्मार्थगळ तत्त्ववन्नु तिळिद, अनृशंसनू अक्रोशाद्यनू आद ई धर्मभृतरल्लि श्रेष्ठनु निन्न गौरवक्कागि बहळष्टु क्लेशगळन्नु सहिसिद्दानॆ.”

समाप्ति

इति श्री महाभारते उद्योग पर्वणि प्रजागर पर्वणि विदुरनीतिवाक्ये चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।
इदु श्री महाभारतदल्लि उद्योग पर्वदल्लि प्रजागर पर्वदल्लि विदुरनीतिवाक्यदल्लि मूवत्नाल्कनॆय अध्यायवु.