033 उत्तरगोग्रहे गोपवाक्यः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

विराट पर्व

गोहरण पर्व

अध्याय 33

सार

कौरवरु उत्तरदिक्किनिंद बंदु विराटन गोवुगळन्नु हिडिदुदु (1-5). गोपालकनु विषयवन्नु अरमनॆय स्त्रीयर मध्यदल्लिद्द विराटन मग भूमिंजयनिगॆ निवेदिसुवुदु (6-21).

04033001 वैशंपायन उवाच।
04033001a याते त्रिगर्तं मत्स्ये तु पशूंस्तान्स्वान्परीप्सति।
04033001c दुर्योधनः सहामात्यो विराटमुपयादथ।।

वैशंपायननु हेळिदनु: “मत्स्यराजनु आ तन्न हसुगळन्नु बिडिसिकॊळ्ळुवुदक्कागि त्रिगर्तराजनॆडॆगॆ होगिरलु, इत्त दुर्योधननु मंत्रिगळॊडनॆ विराटन मेलॆ धाळिमाडिदनु.

04033002a भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च कृपश्च परमास्त्रवित्।
04033002c द्रौणिश्च सौबलश्चैव तथा दुःशासनः प्रभुः।।
04033003a विविंशतिर्विकर्णश्च चित्रसेनश्च वीर्यवान्।
04033003c दुर्मुखो दुःसहश्चैव ये चैवान्ये महारथाः।।
04033004a एते मत्स्यानुपागम्य विराटस्य महीपतेः।
04033004c घोषान्विद्राव्य तरसा गोधनं जह्रुरोजसा।।

भीष्म, द्रोण, कर्ण, श्रेष्ठ अस्त्रगळन्नु बल्ल कृप, अश्वत्थाम, सौबल, प्रभु दुःशासन, विविंशति, विकर्ण, वीर्यवंत चित्रसेन, दुर्मुख, दुःसह, मत्तु इतर महारथरु इवरॆल्लरू मत्स्यद मेलॆ ऎरगि, विराटराजन तुरुहट्टिगळन्नु त्वरितवागि आक्रमिसि, गोधनवन्नु बलात्कारवागि वशपडिसिकॊंडरु.

04033005a षष्टिं गवां सहस्राणि कुरवः कालयंति ते।
04033005c महता रथवंशेन परिवार्य समंततः।।

आ कुरुगळु दॊड्द रथसमूहदॊडनॆ सुत्तलू मुत्ति अरवत्तु साविर गोवुगळन्नु हिडिदुकॊंडरु.

04033006a गोपालानां तु घोषेषु हन्यतां तैर्महारथैः।
04033006c आरावः सुमहानासीत्संप्रहारे भयंकरे।।

भयंकर हॊडॆदाटदल्लि आ महारथरिंद पॆट्टु तिंद गोपालर बॊब्बॆ तुरुहट्टिगळल्लि जोरायितु.

04033007a गवाध्यक्षस्तु संत्रस्तो रथमास्थाय सत्वरः।
04033007c जगाम नगरायैव परिक्रोशंस्तदार्तवत्।।

आग हॆदरिद गोमुख्यस्थनादरो बेग रथवन्नेरि, आर्तनंतॆ हुय्यलिडुत्ता नगरक्कॆ होदनु.

04033008a स प्रविश्य पुरं राज्ञो नृपवेश्माभ्ययात्ततः।
04033008c अवतीर्य रथात्तूर्णमाख्यातुं प्रविवेश ह।।

अवनु राजन पुरवन्नु हॊक्कु, अरमनॆगॆ होगि, बळिक रथदिंद बेग इळिदु, नडॆदुदॆल्लवन्नू हेळलु ऒळहॊक्कनु.

04033009a दृष्ट्वा भूमिंजयं नाम पुत्रं मत्स्यस्य मानिनं।
04033009c तस्मै तत्सर्वमाचष्ट राष्ट्रस्य पशुकर्षणं।।

भूमिंजयनॆंब हॆसरिन मत्स्यराजन मानवंत मगनन्नु कंडु अवनिगॆ नाडिन गोवुगळ सूरॆय कुरितु ऎल्लवन्नू तिळिसिदनु:

04033010a षष्टिं गवां सहस्राणि कुरवः कालयंति ते।
04033010c तद्विजेतुं समुत्तिष्ठ गोधनं राष्ट्रवर्धनं।।

“कुरुगळु निन्न अरवत्तु साविर गोवुगळन्नु हिडिदॊय्युत्तिद्दारॆ. राष्ट्रवर्धक आ गोधनवन्नु गॆद्दु तरलु ऎद्देळु!

04033011a राजपुत्र हितप्रेप्सुः क्षिप्रं निर्याहि वै स्वयं।
04033011c त्वां हि मत्स्यो महीपालः शून्यपालमिहाकरोत्।।

राजपुत्र! राज्यद हिताकांक्षियागि नीनु स्वतः बेग हॊरडु. दॊरॆ मत्स्यनु निन्नन्निल्लि शून्यनगरक्कॆ रक्षकनन्नागि माडिद्दानॆ.

04033012a त्वया परिषदो मध्ये श्लाघते स नराधिपः।
04033012c पुत्रो ममानुरूपश्च शूरश्चेति कुलोद्वहः।।
04033013a इष्वस्त्रे निपुणो योधः सदा वीरश्च मे सुतः।
04033013c तस्य तत्सत्यमेवास्तु मनुष्येंद्रस्य भाषितं।।

आ राजनु सभॆय नडुवॆ नन्न मग ननगॆ अनुरूपनादवनु. शूर, कुलोद्धारक, बाणगळल्लियू अस्त्रगळल्लियू निपुणनाद योध. नन्न मग यावागलू वीर ऎंदु निन्नन्नु हॊगळुत्तिरुत्तानॆ. दॊरॆय आ मातु सत्यवे आगलि.

04033014a आवर्तय कुरूं जित्वा पशून्पशुमतां वर।
04033014c निर्दहैषामनीकानि भीमेन शरतेजसा।।

गोसंपत्तुगळुळ्ळवरल्लि श्रेष्ठने! कुरुगळन्नु गॆद्दु गोवुगळन्नु मरळिसु. निन्न भयंकर शरतेजस्सिनिंद अवर सैन्यवन्नु सुट्टुहाकु!

04033015a धनुश्च्युतै रुक्मपुंखैः शरैः संनतपर्वभिः।
04033015c द्विषतां भिंध्यनीकानि गजानामिव यूथपः।।

बिल्लिनिंद बिट्ट, चिन्नद गरियुळ्ळ, गॆण्णन्नु नेर माडिद बाणगळिंद शत्रुसैन्यगळन्नु गजेंद्रनंतॆ भेदिसु.

04033016a पाशोपधानां ज्यातंत्रीं चापदंडां महास्वनां।
04033016c शरवर्णां धनुर्वीणां शत्रुमध्ये प्रवादय।।

ऎरडु तुडिगट्टुगळे उपधानवागिरुव, हॆदॆयॆंब तंतियन्नू, चापवॆंब दंडवन्नू, बाणगळॆंब वर्णगळन्नू उळ्ळ महानादवन्नुंटुमाडुव निन्न धनुस्सॆंब वीणॆयन्नु वैरिगळ नडुवॆ मिडिसु.

04033017a श्वेता रजतसंकाशा रथे युज्यंतु ते हयाः।
04033017c ध्वजं च सिंहं सौवर्णमुच्छ्रयंतु तवाभिभोः।।

प्रभू! बॆळ्ळियंतह निन्न बिळिय कुदुरॆगळन्नु रथक्कॆ हूडु. अदर मेलॆ निन्न चिन्नद सिंहध्वजवन्नु हारिसु.

04033018a रुक्मपुंखाः प्रसन्नाग्रा मुक्ता हस्तवता त्वया।
04033018c चादयंतु शराः सूर्यं राज्ञामायुर्निरोधिनः।।

निन्न दृढ बाहुगळिंद बिट्ट चिन्नद गरिगळुळ्ळ, हॊळॆयुव मॊनॆगळन्नुळ्ळ, राजर आयुष्यवन्नु मुगिसुव बाणगळु सूर्यनन्नु मुच्चलि.

04033019a रणे जित्वा कुरून्सर्वान्वज्रपाणिरिवासुरान्।
04033019c यशो महदवाप्य त्वं प्रविशेदं पुरं पुनः।।

इंद्रनु राक्षसरन्नु गॆद्दंतॆ कुरुगळन्नॆल्ल युद्धदल्लि गॆद्दु महायशवन्नु पडॆदु मत्तॆ ई पुरवन्नु प्रवेशिसु.

04033020a त्वं हि राष्ट्रस्य परमा गतिर्मत्स्यपतेः सुतः।
04033020c गतिमंतो भवंत्वद्य सर्वे विषयवासिनः।।

मत्स्यराज पुत्रनाद नीने ईग राष्ट्रक्कॆ परमगति. देशवासिगळॆल्ल इंदु गतियुळ्ळवरागलि.”

04033021a स्त्रीमध्य उक्तस्तेनासौ तद्वाक्यमभयंकरं।
04033021c अंतःपुरे श्लाघमान इदं वचनमब्रवीत्।।

अंतःपुरदल्लि हॆंगसर नडुवॆ अवनु हीगॆ हेळलु, भूमिंजयनु धैर्यकॊडुव आ मातन्नु हॊगळुत्ता, ई मातुगळन्नाडिदनु.

समाप्ति

इति श्री महाभारते विराट पर्वणि गोहरण पर्वणि उत्तरगोग्रहे गोपवाक्ये त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।
इदु श्री महाभारतदल्लि विराट पर्वदल्लि गोहरण पर्वदल्लि उत्तरगोग्रहदल्लि गोपवाक्यदल्लि मूवत्मूरनॆय अध्यायवु.