192 धुंधुमारोपाख्यानः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

आरण्यक पर्व

मार्कंडेयसमस्या पर्व

अध्याय 192

सार

इक्ष्वाकु राज कुवलाश्वनु हेगॆ धुंधुमारनॆंदादनॆंदु युधिष्ठिरनु केळलु मार्कंडेयनु धुंधुमारन चरित्रॆयन्नु हेळुवुदु (1-7). मरुभूमियल्लि तपस्सन्नाचरिसिद महर्षि उत्तंकनिगॆ विष्णुवु प्रत्यक्षनागि तपस्सन्नाचरिसुत्तिद्द धुंधु ऎंब असुरन मृत्युविगॆ उत्तंकनू कुवलाश्वनू कारणरागुत्तारॆ ऎंदु वरवन्नु नीडिदुदु (8-29).

03192001 वैशंपायन उवाच।
03192001a युधिष्ठिरो धर्मराजः पप्रच्च भरतर्षभ।
03192001c मार्कंडेयं तपोवृद्धं दीर्घायुषमकल्मषं।।

वैशंपायननु हेळिदनु: “भरतर्षभ! धर्मराज युधिष्ठिरनु तपोवृद्ध, अकल्मष, दीर्घायु मार्कंडेयनल्लि पुनः केळिदनु:

03192002a विदितास्तव धर्मज्ञ देवदानवराक्षसाः।
03192002c राजवंशाश्च विविधा ऋषिवंशाश्च शाश्वताः।।
03192002e न तेऽस्त्यविदितं किं चिदस्मिऽल्लोके द्विजोत्तम।।

“धर्मज्ञ! निनगॆ देव, दानव, राक्षसर मत्तु शाश्वतवागिरुव विविध राजवंशगळ ऋषिवंशगळ कुरितु तिळिदिदॆ. द्विजोत्तम! ई लोकदल्लि निनगॆ तिळियदे इरुवुदु यावुदू इल्ल.

03192003a कथां वेत्सि मुने दिव्यां मनुष्योरगरक्षसां।
03192003c एतदिच्चाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन कथितं द्विज।।

मुने! देवतॆगळ, मनुष्यर, उरग राक्षसर दिव्य कथॆगळु निनगॆ तिळिदिवॆ. द्विज! निन्निंद ई विषयद कुरितु नीनु हेळुवुदन्नु केळलु बयसुत्तेनॆ.

03192004a कुवलाश्व इति ख्यात इक्ष्वाकुरपराजितः।
03192004c कथं नाम विपर्यासाद्धुंधुमारत्वमागतः।।

कुवलाश्वनॆंदु प्रख्यातनाद अपराजित इक्ष्वाकुवु हेगॆ हॆसरन्नु बदलायिसिकॊंडु दुंधुमारनाद?

03192005a एतदिच्चामि तत्त्वेन ज्ञातुं भार्गवसत्तम।
03192005c विपर्यस्तं यथा नाम कुवलाश्वस्य धीमतः।।

भार्गवसत्तम! इदन्नु तत्वदिंद निन्निंद केळबयसुत्तेनॆ. धीमत कुवलाश्वन हॆसरन्नु एकॆ बदलायिसलायितु?”

03192006 मार्कंडेय उवाच।
03192006a हंत ते कथयिष्यामि शृणु राजन्युधिष्ठिर।
03192006c धर्मिष्ठमिदमाख्यानं धुंधुमारस्य तच्छृणु।।

मार्कंडेयनु हेळिदनु: “राजन्! युधिष्ठिर! आ धर्मिष्ठ धुंधुमारन आख्यान1वन्नु निनगॆ हेळुत्तेनॆ. केळु.

03192007a यथा स राजा इक्ष्वाकुः कुवलाश्वो महीपतिः।
03192007c धुंधुमारत्वमगमत्तच्छृणुष्व महीपते।।

महीपते! महीपति इक्ष्वाकु राज कुवलाश्वनु धुंधुमारनॆंदु हेगादनु ऎंदु केळु.

03192008a महर्षिर्विश्रुतस्तात उत्तंक इति भारत।
03192008c मरुधन्वसु रम्येषु आश्रमस्तस्य कौरव।।

भारत! कौरव! मगू! महर्षियॆंदु विश्रुतनाद उत्तंकनु रम्यवाद मरुभूमियल्लि तन्न आश्रमदल्लिद्दनु.

03192009a उत्तंकस्तु महाराज तपोऽतप्यत्सुदुश्चरं।
03192009c आरिराधयिषुर्विष्णुं बहून्वर्षगणान्विभो।।

महाराज! विभो! ई उत्तंकनु विष्णुवन्नु मॆच्चिसलु बहळ वर्षगळ दुश्चर तपस्सन्नु नडॆसिदनु.

03192010a तस्य प्रीतः स भगवान्साक्षाद्दर्शनमेयिवान्।
03192010c दृष्ट्वैव चर्षिः प्रह्वस्तं तुष्टाव विविधैः स्तवैः।।

अवनिंद प्रीतनाद भगवंतनु साक्षात् दर्शनवन्नित्तनु. नोडिदाक्षणवे ऋषियु नमस्करिसि, विविध स्तवगळिंद अवनन्नु तुष्टिगॊळिसिदनु.

03192011a त्वया देव प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानवाः।
03192011c स्थावराणि च भूतानि जंगमानि तथैव च।।
03192011e ब्रह्म वेदाश्च वेद्यं च त्वया सृष्टं महाद्युते।।

“देव! महाद्युते! निन्निंदले ई सर्व प्रजॆगळू, देव-असुर-मानवरू सेरि, इरुव स्थावर जंगमगळू ब्रह्म, वेदगळू, वेद्यगळू सृष्टिसल्पट्टिवॆ.

03192012a शिरस्ते गगनं देव नेत्रे शशिदिवाकरौ।
03192012c निःश्वासः पवनश्चापि तेजोऽग्निश्च तवाच्युत।।
03192012e बाहवस्ते दिशः सर्वाः कुक्षिश्चापि महार्णवः।।

देव! निन्न शिरवु गगन, नेत्रगळु शशि-दिवाकररु. अच्युत! निन्न उसिरु वायु मत्तु तेजस्सु अग्नि. ऎल्ल दिक्कुगळू निन्न बाहुगळु मत्तु महासागरवे निन्न ऒडलु.

03192013a ऊरू ते पर्वता देव खं नाभिर्मधुसूदन।
03192013c पादौ ते पृथिवी देवी रोमाण्योषधयस्तथा।।

देव! मधुसूदन! पर्वतगळे निन्न तॊडॆगळु. आकाशवे नाभि. पृथिवी देवियु निन्न पादगळु मत्तु अरण्यौषधिगळु निन्न रोमगळु.

03192014a इंद्रसोमाग्निवरुणा देवासुरमहोरगाः।
03192014c प्रह्वास्त्वामुपतिष्ठंति स्तुवंतो विविधैः स्तवैः।।

इंद्र, सोम, अग्नि, वरुणरु, देवासुरमहोरगरु निन्नन्नु विविध स्तवगळिंद स्तुतिसि तलॆबागि नमस्करिसि निंतिरुवरु.

03192015a त्वया व्याप्तानि सर्वाणि भूतानि भुवनेश्वर।
03192015c योगिनः सुमहावीर्याः स्तुवंति त्वां महर्षयः।।

भुवनेश्वर! सर्व भूतगळल्लि नीनु व्यापिसिरुवॆ. योगिगळु, महावीररु, मुहर्षिगळु निन्नन्नु स्तुतिसुत्तारॆ.

03192016a त्वयि तुष्टे जगत्स्वस्थं त्वयि क्रुद्धे महद्भयं।
03192016c भयानामपनेतासि त्वमेकः पुरुषोत्तम।।

पुरुषोत्तम! नीनु तुष्टनादरॆ जगत्तु स्वस्थवागिरुत्तदॆ. नीनु क्रुद्धनादरॆ महा भयवुंटागुत्तदॆ. नीनु भयगळन्नु होगलाडिसुववनु.

03192017a देवानां मानुषाणां च सर्वभूतसुखावहः।
03192017c त्रिभिर्विक्रमणैर्देव त्रयो लोकास्त्वयाहृताः।।
03192017e असुराणां समृद्धानां विनाशश्च त्वया कृतः।।

देवतॆगळ, मनुष्यर मत्तु सर्वभूतगळ हितकारकनु नीनु. देव! त्रिविक्रमनागि मूरू लोकगळन्नु व्यापिसि समृद्धरागिद्द असुररन्नु नीनु नाशगॊळिसिदॆ.

03192018a तव विक्रमणैर्देवा निर्वाणमगमन् परं।
03192018c पराभवं च दैत्येंद्रास्त्वयि क्रुद्धे महाद्युते।।

देव! निन्न विक्रमदिंद देवतॆगळु परम निर्वाणवन्नु हॊंदिदरु. महाद्युते! निन्न क्रोधदिंद दैत्येंद्ररु पराभव हॊंदिदरु.

03192019a त्वं हि कर्ता विकर्ता च भूतानामिह सर्वशः।
03192019c आराधयित्वा त्वां देवाः सुखमेधंति सर्वशः।।

इल्लिरुव ऎल्लवुगळ कर्तनू नीने. विकर्तनू नीने. निन्नन्नु आराधिसि देवतॆगळॆल्लरू सुखवन्नु पडॆयुत्तारॆ.”

03192020a एवं स्तुतो हृषीकेश उत्तंकेन महात्मना।
03192020c उत्तंकमब्रवीद्विष्णुः प्रीतस्तेऽहं वरं वृणु।।

महात्म उत्तंकनु हीगॆ स्तुतिसलु हृषीकेश विष्णुवु “उत्तंक! निन्निंद प्रीतनागिद्देनॆ. वरवन्नु केळु” ऎंदनु.

03192021 उत्तंक उवाच।
03192021a पर्याप्तो मे वरो ह्येष यदहं दृष्टवान् हरिं।
03192021c पुरुषं शाश्वतं दिव्यं स्रष्टारं जगतः प्रभुं।।

उत्तंकनु हेळिदनु: “नानु पुरुष, शाश्वत, दिव्य, सृष्टार, जगत्तिन प्रभु, हरियन्नु नोडिदॆ ऎन्नुव वरदिंदले तुंबिहोगिद्देनॆ.”

03192022 विष्णुरुवाच।
03192022a प्रीतस्तेऽहमलौल्येन भक्त्या च द्विजसत्तम।
03192022c अवश्यं हि त्वया ब्रह्मन्मत्तो ग्राह्यो वरो द्विज।।

विष्णुवु हेळिदनु: “द्विजसत्तम! नानु निन्न निष्टॆ मत्तु भक्तिगळिगॆ ऒलिदिद्देनॆ. द्विज! ब्रह्मन्! अवश्यवागि नीनु नन्निंद वरवन्नु पडॆयबेकु.”

03192023a एवं संचंद्यमानस्तु वरेण हरिणा तदा।
03192023c उत्तंकः प्रांजलिर्वव्रे वरं भरतसत्तम।।

भरतसत्तम! ई रीति हरियु ऒत्तायिसि वरवन्नु नीडलु उंत्तंकनु कैमुगिदु वरवन्नु केळिदनु.

03192024a यदि मे भगवान्प्रीतः पुंडरीकनिभेक्षणः।
03192024c धर्मे सत्ये दमे चैव बुद्धिर्भवतु मे सदा।।
03192024e अभ्यासश्च भवेद्भक्त्या त्वयि नित्यं महेश्वर।।

“भगवन्! पुंडरीकाक्ष! नन्न मेलॆ प्रीतनादरॆ नन्न बुद्धियु सदा धर्म, सत्य, दमगळल्लिरलि. महेश्वर! नित्यवू निन्न भक्तिय अभ्यासदल्लिरुवंतागलि.”

03192025 विष्णुरुवाच।
03192025a सर्वमेतद्धि भविता मत्प्रसादात्तव द्विज।
03192025c प्रतिभास्यति योगश्च येन युक्तो दिवौकसां।।
03192025e त्रयाणामपि लोकानां महत्कार्यं करिष्यसि।।

विष्णुवु हेळिदनु: “द्विज! इवॆल्लवू नन्न प्रसाददिंद आगुत्तवॆ. योगवु निनगॆ तोरिसिकॊळ्ळुत्तदॆ. अदरिंद युक्तनागि देवतॆगळिगॆ मत्तु मूरु लोकगळिगॆ महा कार्यवन्नु माडुत्तीयॆ.

03192026a उत्सादनार्थं लोकानां धुंधुर्नाम महासुरः।
03192026c तपस्यति तपो घोरं शृणु यस्तं हनिष्यति।।

लोकगळन्नु उरुळिसुव सलुवागि धुंधु ऎंब महासुरनु घोरवाद तपस्सन्नु तपिसुत्तिद्दानॆ. अवनन्नु नीनु संहरिसुत्तीयॆ. केळु.

03192027a बृहदश्व इति ख्यातो भविष्यति महीपतिः।
03192027c तस्य पुत्रः शुचिर्दांतः कुवलाश्व इति श्रुतः।।

बृहदश्व ऎंदु ख्यातनाद राजनागुत्तानॆ. अवन मगनु शुचियु, दांतनू आद कुवलाश्वनॆंदु.

03192028a स योगबलमास्थाय मामकं पार्थिवोत्तमः।
03192028c शासनात्तव विप्रर्षे धुंधुमारो भविष्यति।।

आ पार्थिवोत्तमनु नन्न योगबलवन्नु आश्रयिसि निन्न शासनदंतॆ धुंधुमारनागुत्तानॆ.””

03192029 मार्कंडेय उवाच।
03192029a उत्तंकमेवमुक्त्वा तु विष्णुरंतरधीयत।

मार्कंडेयनु हेळिदनु: “उत्तंकनिगॆ हीगॆ हेळि विष्णुवु अंतर्धाननादनु.”

समाप्ति

इति श्री महाभारते आरण्यकपर्वणि मार्कंडेयसमस्यापर्वणि धुंधुमारोपाख्याने द्विनवत्यधिकशततमोऽध्याय:।
इदु महाभारतद आरण्यकपर्वदल्लि मार्कंडेयसमस्यापर्वदल्लि धुंधुमारोपाख्यानदल्लि नूरातॊंभत्तॆरडनॆय अध्यायवु.


  1. धुंधुमारन कथॆयु मुंदॆ अश्वमेध पर्वदल्लि उत्तंक चरितॆयल्लि पुनः बरुत्तदॆ. ↩︎