प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
आरण्यक पर्व
तीर्थयात्रा पर्व
अध्याय 133
सार
राज मत्तु द्वारपालरॊडनॆ वादिसि अष्टावक्रनु आस्थानक्कॆ बंदुदु (1-27).
03133001 अष्टावक्र उवाच।
03133001a अंधस्य पंथा बधिरस्य पंथाः। स्त्रियः पंथा वैवधिकस्य पंथाः।
03133001c राज्ञः पंथा ब्राह्मणेनासमेत्य। समेत्य तु ब्राह्मणस्यैव पंथाः।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “कुरुडन मार्ग, किवुडन मार्ग, स्त्रीय मार्ग, कूलिय मार्ग, ब्राह्मणनन्नु भेटियागदे इद्दरॆ राजन मार्ग. भेटियादरॆ अदु ब्राह्मणनदे मार्गवागुत्तदॆ.”
03133002 राजोवाच।
03133002a पंथा अयं तेऽद्य मया निसृष्टो। येनेच्चसे तेन कामं व्रजस्व।
03133002c न पावको विद्यते वै लघीयान्। इंद्रोऽपि नित्यं नमते ब्राह्मणानां।।
राजनु हेळिदनु: “हागादरॆ इंदु नानु ई दारियन्नु निनगागि बिट्टुकॊडुत्तेनॆ. ऎल्लि बेकादल्लि प्रयाणमाडु. ऎष्टे सण्णदादरू बॆंकियन्नु तिळियलिक्कागुवुदिल्ल. इंद्रनू कूड नित्यवू ब्राह्मणरन्नु नमस्करिसुत्तानॆ.”
03133003 अष्टावक्र उवाच।
03133003a यज्ञं द्रष्टुं प्राप्तवंतौ स्व तात। कौतूहलं नौ बलवद्वै विवृद्धं।
03133003c आवां प्राप्तावतिथी संप्रवेशं। कांक्षावहे द्वारपते तवाज्ञां।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “मगू! नावु यज्ञवन्नु नोडलु बंदिद्देवॆ. बलवंत! नम्म कुतूहलवु हॆच्चागुत्तिदॆ. नावु अतिथिगळागि प्रवेशिसुत्तिद्देवॆ. द्वारपति! निन्न आज्ञॆयन्नु बयसुत्तेवॆ.
03133004a ऐंद्रद्युम्नेर्यज्ञदृशाविहावां। विवक्षू वै जनकेंद्रं दिदृक्षू।
03133004c न वै क्रोधाद्व्याधिनैवोत्तमेन। सम्योजय द्वारपाल क्षणेन।।
ऐंद्रद्युम्निय यज्ञवन्नु नोडि नावु जनकेंद्रनन्नू नोडबयसुत्तेवॆ. द्वारपाल! नम्म कोपदिंद इदे क्षणदल्लि गुणवागद व्याधियिंद बळलबेड!”
03133005 द्वारपाल उवाच।
03133005a बंदेः समादेशकरा वयं स्म। निबोध वाक्यं च मयेर्यमाणं।
03133005c न वै बालाः प्रविशंत्यत्र विप्रा। वृद्धा विद्वांसः प्रविशंति द्विजाग्र्याः।।
द्वारपालकनु हेळिदनु: “नावु बंदिय आदेशदंतॆ नडॆयुत्तेवॆ. नानु हेळिदंतॆ नडॆदुकॊळ्ळि. याव विप्र बालकरू इल्लिगॆ प्रवेशिसदिरलि. आदरॆ वृद्ध मत्तु विध्वांस द्विजाग्ररु प्रवेशिसलि.”
03133006 अष्टावक्र उवाच।
03133006a यद्यत्र वृद्धेषु कृतः प्रवेशो। युक्तं मम द्वारपाल प्रवेष्टुं।
03133006c वयं हि वृद्धाश्चरितव्रताश्च। वेदप्रभावेन प्रवेशनार्हाः।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “वृद्धरिगॆ इल्लि प्रवेशविदॆयॆंदादरॆ द्वारपाल! नानु प्रवेशिसलु अर्हनागिद्देनॆ. याकॆंदरॆ नावु वृद्धरु मत्तु व्रतगळन्नु पालिसुत्तिद्देवॆ. वेदप्रभावदिंद नावु प्रवेशिसलु अर्हरागिद्देवॆ.
03133007a शुश्रूषवश्चापि जितेंद्रियाश्च। ज्ञानागमे चापि गताः स्म निष्ठां।
03133007c न बाल इत्यवमंतव्यमाहुर्। बालोऽप्यग्निर्दहति स्पृश्यमानः।।
शुश्रूषॆ माडुववरु मत्तु जितेंद्रियराद नावु निष्ठॆयिंद ज्ञानद कॊनॆयवरॆगॆ तलुपिद्देवॆ. बालकरॆंदु नम्मन्नु अपमानिसबेड. सण्णदागिद्दरू बॆंकियन्नु मुट्टिदरॆ सुडुत्तदॆ.”
03133008 द्वारपाल उवाच।
03133008a सरस्वतीमीरय वेदजुष्टां। एकाक्षरां बहुरूपां विराजं।
03133008c अंगात्मानं समवेक्षस्व बालं। किं श्लाघसे दुर्लभा वादसिद्धिः।।
द्वारपालकनु हेळिदनु: “हागादरॆ वेदजुष्टवाद ऒंदे ऒंदु अक्षरवादरू बहुरूपदल्लि विराजिसुव सरस्वतियन्नु हेळु. बालक! निन्न देहवन्नु नोडिको! वादसिद्धियन्नु पडॆयदे इद्दरू याकॆ हॊगळिकॊळ्ळुत्तिद्दीयॆ?”
03133009 अष्टावक्र उवाच।
03133009a न ज्ञायते कायवृद्ध्या विवृद्धिर्। यथाष्ठीला शाल्मलेः संप्रवृद्धा।
03133009c ह्रस्वोऽल्पकायः फलितो विवृद्धो। यश्चाफलस्तस्य न वृद्धभावः।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “शाल्मील वृक्षदल्लि बॆळॆयुव कळॆयंतॆ वृद्धरॆंदरॆ देहद वयस्सु हॆच्चिनदु ऎंदु तिळियबारदु. सण्णदादरू, गिड्डदादरू फलवन्नु पडॆदरॆ वृद्धवॆनिसिकॊळ्ळुत्तदॆ. फलवन्ने पडॆयद वृक्षवु वृद्धवॆंदॆनिसिकॊळ्ळुवुदिल्ल.”
03133010 द्वारपाल उवाच।
03133010a वृद्धेभ्य एवेह मतिं स्म बाला। गृह्णंति कालेन भवंति वृद्धाः।
03133010c न हि ज्ञानमल्पकालेन शक्यं। कस्माद्बालो वृद्ध इवावभाषसे।।
द्वारपालकनु हेळिदनु: “बालकरु वृद्धरागुववरॆगॆ वृद्धरिंदले तम्म बुद्धियन्नु पडॆयुत्तारॆ. स्वल्पवे समयदल्लि ज्ञानवन्नु पडॆयुवुदु शक्यविल्ल. हागिद्दाग बालकराद नीवु निम्मन्नु वृद्धरॆंदु एकॆ करॆदुकॊळ्ळुत्तिद्दीरि?”
03133011 अष्टावक्र उवाच।
03133011a न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं शिरः।
03133011c बालोऽपि यः प्रजानाति तं देवाः स्थविरं विदुः।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “बॆळॆद बिळिकूदलिद्दरॆ मात्र वृद्धनॆंदागुवुदिल्ल. तिळिदिरुववनन्नु बालकनागिद्दरू देवतॆगळु वृद्धनॆंदु तिळियुत्तारॆ.
03133012a न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बंधुभिः।
03133012c ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्।।
वयस्सिनिंदागली, बिळिकूदलिनिंदागली, संपत्तिनिंदागली, बंधुगळिंदागली ऋषिगळु धर्मवन्नु माडिल्ल. यारु कलितिद्दानो अवने दॊड्डवनु.
03133013a दिदृक्षुरस्मि संप्राप्तो बंदिनं राजसंसदि।
03133013c निवेदयस्व मां द्वाःस्थ राज्ञे पुष्करमालिने।।
राजसभॆयल्लि बंदियन्नु नोडलु बंदिद्देवॆ. द्वारपालक! पुष्कर मालिनि राजनिगॆ नावु बंदिरुवुदन्नु हेळु.
03133014a द्रष्टास्यद्य वदतो द्वारपाल। मनीषिभिः सह वादे विवृद्धे।
03133014c उताहो वाप्युच्चतां नीचतां वा। तूष्णीं भूतेष्वथ सर्वेषु चाद्य।।
द्वारपालक! इंदु नानु तिळिदवरॊडनॆ वादमाडुवुदन्नु नोडु. ऎल्लरू सुम्मनिरुवाग नानु मेलागुवुदन्नु अथवा कॆळगागुवुदन्नु नोडु.”
03133015 द्वारपाल उवाच।
03133015a कथं यज्ञं दशवर्षो विशेस्त्वं। विनीतानां विदुषां संप्रवेश्यं।
03133015c उपायतः प्रयतिष्ये तवाहं। प्रवेशने कुरु यत्नं यथावत्।।
द्वारपालकनु हेळिदनु: “विनीतरिगॆ मत्तु विदुषरिगॆ मात्र प्रवेशवुळ्ळ यज्ञशालॆगॆ हत्तुवर्षद नीवु हेगॆ प्रवेशिसुविरि? निम्मन्नु ऒळगॆ बिडलु नानु उपायवन्नु हुडुकुत्तेनॆ. नीवू कूड प्रयत्नमाडबेकु.”
03133016 अष्टावक्र उवाच।
03133016a भो भो राजं जनकानां वरिष्ठ। सभाज्यस्त्वं त्वयि सर्वं समृद्धं।
03133016c त्वं वा कर्ता कर्मणां यज्ञियानां। ययातिरेको नृपतिर्वा पुरस्तात्।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “भो भो राजन्! जनकरल्लि वरिष्ठ! निन्न सभॆगॆ जयवागलि, निन्न सर्व समृद्धिगॆ जयवागलि! नीनु नडॆसुत्तिरुव ई यज्ञदंथह कर्तनु हिंदॆ ययाति मात्र इद्दनु!
03133017a विद्वान्बंदी वेदविदो निगृह्य। वादे भग्नानप्रतिशम्कमानः।
03133017c त्वया निसृष्टैः पुरुषैराप्तकृद्भिर्। जले सर्वान्मज्जयतीति नः श्रुतं।।
विद्वान् वेदविद बंदियु वाददल्लि अनुमानितरन्नु सोलिसि नीनु कळुहिसिद आप्त जनरिंद ऎल्लरन्नू समुद्रदल्लि हाकि मुळुगिसिदनॆंदु केळलिल्लवे?
03133018a स तच्छृत्वा ब्राह्मणानां सकाशाद्। ब्रह्मोद्यं वै कथयितुमागतोऽस्मि।
03133018c क्वासौ बंदी यावदेनं समेत्य। नक्षत्राणीव सविता नाशयामि।।
ब्राह्मणरिंद इदन्नु केळिद नानु इंदु ब्रह्मनन्नु हेळलु बंदिद्देनॆ. बंदियु ऎल्लिद्दानॆ? सूर्यनु नक्षत्रगळन्नु हेगो हागॆ नानु अवनन्नु वाददल्लि ऎदुरिसि नाशगॊळिसुत्तेनॆ.”
03133019 राजोवाच।
03133019a आशंससे बंदिनं त्वं विजेतुं। अविज्ञात्वा वाक्यबलं परस्य।
03133019c विज्ञातवीर्यैः शक्यमेवं प्रवक्तुं। दृष्टश्चासौ ब्राह्मणैर्वादशीलैः।।
राजनु हेळिदनु: “ऎदुराळिय वाक्यबलवन्नु तिळियदे बंदियन्नु नीनु सोलिसुत्तीयॆ ऎंदु हेळुत्तिरुवॆयल्ल! हीगॆ हेळलु केवल विज्ञातवीररिगॆ शक्य. वादशील ब्राह्मणरु इदन्नु कंडुकॊंडिद्दारॆ.”
03133020 अष्टावक्र उवाच।
03133020a विवादितोऽसौ न हि मादृशैर्हि। सिंहीकृतस्तेन वदत्यभीतः।
03133020c समेत्य मां निहतः शेष्यतेऽद्य। मार्गे भग्नं शकटमिवाबलाक्षं।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “अवनॊंदिगॆ वादमाडिदवरु नन्न हागिल्ल. वाददल्लि भीतराद अवरु अवनन्नु सिंहनन्नागि माडिद्दारॆ. नन्नन्नु भेटियाद नंतर इंदु गालि कळचिद बंडियंतॆ मार्गमद्यदल्लि उळियुत्तानॆ.”
03133021 राजोवाच।
03133021a षण्णाभेर्द्वादशाक्षस्य चतुर्विंशतिपर्वणः।
03133021c यस्त्रिषष्टिशतारस्य वेदार्थं स परः कविः।।
राजनु हेळिदनु: “आरु भेदगळन्नु, हन्नॆरडु अक्षगळन्नु, इप्पत्नाल्कु पर्वगळन्नु मत्तु मुन्नूरा अरवत्तु चक्रद कालुगळन्नु तिळिदवने परम कवियु.”
03133022 अष्टावक्र उवाच।
03133022a चतुर्विंशतिपर्व त्वां षण्णाभि द्वादशप्रधि।
03133022c तत्त्रिषष्टिशतारं वै चक्रं पातु सदागति।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “सदा तिरुगुत्तिरुव इप्पत्नाल्कु पर्वगळु, आरु भेदगळुळ्ळ हन्नॆरडु प्रधिगळन्नु हॊंदिद मत्तु मुन्नूरा अरवत्तु कालुगळुळ्ळ चक्रवु निन्नन्नु रक्षिसलि!”
03133023 राजोवाच।
03133023a वडवे इव संयुक्ते श्येनपाते दिवौकसां।
03133023c कस्तयोर्गर्भमाधत्ते गर्भं सुषुवतुश्च कं।।
राजनु हेळिदनु: “ऎरडु कुदुरॆगळन्नु कट्टिदंतिदॆ, आकाशदिंद गिडुगवु बंदॆरगुवंतिदॆ. अदु याव देवतॆय गर्भदिंद बंदिदॆ मत्तु यारु आ गर्भदिंद हुट्टिद्दारॆ?”
03133024 अष्टावक्र उवाच।
03133024a मा स्म ते ते गृहे राजं शात्रवाणामपि ध्रुवं।
03133024c वातसारथिराधत्ते गर्भं सुषुवतुश्च तं।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “राजन्! अवुगळन्नु निन्न मनॆयिंद मत्तु निन्न शत्रुविन मनॆयिंदलू दूरविडु! वायुसारथियु अवन्नु पडॆयुत्तानॆ मत्तु अवु अवन गर्भदल्लि बॆळॆयुत्तवॆ.”
03133025 राजोवाच।
03133025a किं स्वित्सुप्तं न निमिषति किं स्विज्जातं न चोपति।
03133025c कस्य स्विद्धृदयं नास्ति किं स्विद्वेगेन वर्धते।
राजनु हेळिदनु: “निद्रिसिरुवाग एनु कण्णन्नु मुच्चुवुदिल्ल? हुट्टुवाग यावुदु चलिसुवुदिल्ल? यावुदक्कॆ हृदयवे इल्ल? मत्तु यावुदु वेगदिंद वृद्धियागुत्तदॆ?”
03133026 अष्टावक्र उवाच।
03133026a मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यंडं जातं न चोपति।
03133026c अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते।।
अष्टावक्रनु हेळिदनु: “मीनु निद्दॆमाडुत्तिरुवाग कण्णु मुच्चुवुदिल्ल मत्तु मॊट्टॆयु हुट्टिदाग चलिसुवुदिल्ल. कल्लिगॆ हृदयविल्ल मत्तु नदियु वेगदल्लि बॆळॆयुत्तदॆ.”
03133027 राजोवाच।
03133027a न त्वा मन्ये मानुषं देवसत्त्वं। न त्वं बालः स्थविरस्त्वं मतो मे।
03133027c न ते तुल्यो विद्यते वाक्प्रलापे। तस्माद्द्वारं वितराम्येष बंदी।।
राजनु हेळिदनु: “नीनु मनुष्यनल्ल देवसत्ववॆंदु तिळियुत्तेनॆ. नीनु बालकनल्ल आदरॆ स्थाविरनॆंदु नन्न अभिप्राय. मातिन प्रवाहदल्लि निन्न समाननु इल्लवॆंदे तिळियबहुदु. आदुदरिंद निनगॆ द्वारवु तॆरॆयल्पडुत्तदॆ. इदो बंदियु!”
समाप्ति
इति श्री महाभारते आरण्यकपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां अष्टावक्रीये त्रयंस्त्रिशदधिकशततमोऽध्यायः।
इदु महाभारतद आरण्यकपर्वदल्लि तीर्थयात्रापर्वदल्लि लोमशतीर्थयात्रॆयल्लि अष्टावक्रदल्लि नूरामूवत्मूरनॆय अध्यायवु.