063 नलोपाख्याने नलकर्कोटकसंवादः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

आरण्यक पर्व

इंद्रलोकाभिगमन पर्व

अध्याय 63

सार

दमयंतियन्नु तॊरॆद राज नलनु गहन वनदल्लि उरियुत्तिरुव ऒंदु दॊड्ड काड्गिच्चन्नु कंडु अदरल्लि सिलुकिरुव नाग कार्कोटकनन्नु ऎत्ति हॊरतंदु उळिसिदुदु (1-9). इन्नू मुंदॆ तॆगॆदुकॊंडु होगॆंदु नागवु हेळुवुदु, नलनु हागॆये माडलु अवनन्नु कार्कोटकनु कच्चि कुरूपियन्नागिसिदुदु (10-12). अवन देहवन्नावरिसि काडुत्तिरुवनन्नु पीडिसलु कच्चिदॆनॆंदू, कुरूपियाद अवनन्नु यारू गुरुतिसलाररॆंदू, अयोध्यॆय राज ऋतुपर्णनिंद अक्ष विद्यॆयन्नु कलितनंतर अवन कष्टगळु कॊनॆगॊळ्ळुववॆंदू हेळि, पुनः स्वरूपवन्नु कॊडबल्ल वस्त्रगळन्नित्तु कार्कोटकनु अंतर्धाननादुदु (13-24).

03063001 बृहदश्व उवाच।
03063001a उत्सृज्य दमयंतीं तु नलो राजा विशां पते।
03063001c ददर्श दावं दह्यंतं महांतं गहने वने।।

बृहदश्वनु हेळिदनु: “विशांपते! दमयंतियन्नु तॊरॆद राज नलनु गहन वनदल्लि उरियुत्तिरुव ऒंदु दॊड्ड काड्गिच्चन्नु कंडनु.

03063002a तत्र शुश्राव मध्येऽग्नौ शब्धं भूतस्य कस्य चित्।
03063002c अभिधाव नलेत्युच्चैः पुण्यश्लोकेति चासकृत्।।

किच्चिन मध्यदिंद “नल! इल्लिगॆ बा! पुण्यश्लोक! बा!” ऎंदु यावुदो जीवियु पुनः पुनः करॆयुव शब्धवन्नु केळिदनु.

03063003a मा भैरिति नलश्चोक्त्वा मध्यमग्नेः प्रविश्य तं।
03063003c ददर्श नागराजानं शयानं कुंडलीकृतं।।

“भयपडबेड!” ऎंदु कूगि हेळुत्ता नलनु आ अग्नियन्नु प्रवेशिसि1, मध्यदल्लि सुरुळिसुत्ति मलगिद्द नागराजनन्नु कंडनु.

03063004a स नागः प्रांजलिर्भूत्वा वेपमानो नलं तदा।
03063004c उवाच विद्धि मां राजन्नागं कर्कोटकं नृप।।

आग आ नागवु तरतरिसुत्ता अंजलीबद्धनागि नलनन्नुद्देशिसि मातनाडितु: “नृप! नन्नन्नु नागराज कार्कोटकनॆंदु तिळि.

03063005a मया प्रलब्धो ब्रह्मर्षिरनागाः सुमहातपाः।
03063005c तेन मन्युपरीतेन शप्तोऽस्मि मनुजाधिप।।

मनुजाधिप! महातप मुग्ध ब्राह्मणनॊब्बनन्नु नानु हिडिदिद्दॆ. कोपवशनाद अवनिंद शपितनागिद्देनॆ.

03063006a तस्य शापान्न शक्नोमि पदाद्विचलितुं पदं।
03063006c उपदेक्ष्यामि ते श्रेयस्त्रातुमर्हति मां भवान्।।

अवन शापदिंदागि ई जागदिंद स्वल्प दूर चलिसलू अशक्यनागिद्देनॆ. नीनु नन्नन्नु उळिसिदरॆ, निनगॆ श्रेयस्सागुव उपदेशवन्नु नीडुत्तेनॆ.

03063007a सखा च ते भविष्यामि मत्समो नास्ति पन्नगः।
03063007c लघुश्च ते भविष्यामि शीघ्रमादाय गच्च मां।।

निन्न सखनागिरुवॆ. नन्नंतह पन्नगवु इन्नॊंदिल्ल. निनगागि नानु हगुरवागुत्तेनॆ. शीघ्रवागि नन्नन्नु ऎत्तिकॊंडु होगु!”

03063008a एवमुक्त्वा स नागेंद्रो बभूवांगुष्ठमात्रकः।
03063008c तं गृहीत्वा नलः प्रायादुद्देशं दाववर्जितं।।

हीगॆ हेळिद आ नागेंद्रनु अंगुष्ठमात्रदंतादनु. नलनु अवनन्नु ऎत्ति बॆंकियु इल्लदे इरुव स्थळक्कॆ कॊंडॊय्दनु.

03063009a आकाशदेशमासाद्य विमुक्तं कृष्णवर्त्मना।
03063009c उत्स्रष्टुकामं तं नागः पुनः कर्कोटकोऽब्रवीत्।।

सुट्ट करियिल्लदे इरुव जागक्कॆ बंदु आ नागनन्नु कॆळगिडुवष्टरल्लिये कार्कोटकनु पुनः हेळिदनु:

03063010a पदानि गणयन्गच्च स्वानि नैषध कानि चित्।
03063010c तत्र तेऽहं महाराज श्रेयो धास्यामि यत्परं।।

“निषाध! हॆज्जॆगळन्नु ऎणिसुत्ता इन्नू स्वल्प मुंदॆ होगु. महाराज! अल्लि निनगॆ परम श्रेयवादद्दन्नु कॊडुत्तेनॆ.”

03063011a ततः संख्यातुमारब्धमदशद्दशमे पदे।
03063011c तस्य दष्टस्य तद्रूपं क्षिप्रमंतरधीयत।।

ऎणिसुत्तिद्दंतॆये, हत्तने हॆज्जॆयल्लि नागनु नलनन्नु कच्चिबिट्टनु. कच्चिदाक्षण रूपवु क्षणदल्लि बदलागि होयितु.

03063012a स दृष्ट्वा विस्मितस्तस्थावात्मानं विकृतं नलः।
03063012c स्वरूपधारिणं नागं ददर्श च महीपतिः।।

महीपति नलनु तानु विकृतनागिरुवुदन्नु नोडि विस्मितनागि निंतनु मत्तु स्वरूपधारण माडिद नागनन्नु नोडिदनु.

03063013a ततः कर्कोटको नागः सांत्वयन्नलमब्रवीत्।
03063013c मया तेऽंतर्हितं रूपं न त्वा विद्युर्जना इति।।

आग नाग कार्कोटकनु नलनन्नु संतविसुत्ता हेळिदनु: “जनरु निन्नन्नु गुरुतिसबारदॆंदु नानु निन्न रूपवन्नु अपहरिसिद्देनॆ.

03063014a यत्कृते चासि विकृतो दुःखेन महता नल।
03063014c विषेण स मदीयेन त्वयि दुःखं निवत्स्यति।।

नल! यारिंद नीनु ई महा दुःखवन्नु अनुभविसुत्तिद्दीयो, यारु निन्न देहदल्लि वासिसुत्तिद्दनो अवनु नन्न ई विषदिंद दुःखवन्नु अनुभविसुत्तानॆ.

03063015a विषेण संवृतैर्गात्रैर्यावत्त्वां न विमोक्ष्यति।
03063015c तावत्त्वयि महाराज दुःखं वै स निवत्स्यति।।

ऎल्लियवरॆगॆ निन्नन्नु बिडुवुदिल्लवो अल्लिय वरॆगॆ अवनु निन्नल्लिद्दु देहवन्नॆल्ला आवरिसिरुव ई विषदिंद दुःखितनागिरुवनु.

03063016a अनागा येन निकृतस्त्वमनर्हो जनाधिप।
03063016c क्रोधादसूययित्वा तं रक्षा मे भवतः कृता।।

जनाधिप! क्रोध असूयॆगॊळगागि यारु मुग्धनू कष्टगळिगॆ अनर्हनू आद निनगॆ मोसमाडिदनो अवनिंद निन्नन्नु नानु रक्षिसुत्तेनॆ.

03063017a न ते भयं नरव्याघ्र दंष्ट्रिभ्यः शत्रुतोऽपि वा।
03063017c ब्रह्मविद्भ्यश्च भविता मत्प्रसादान्नराधिप।।

नरव्याघ्र! नराधिप! नन्न वरदिंद नीनु याव मृगगळिंदलू, शतृगळिंदलू मत्तु ब्रह्मविदरिंदलू भयपडबेकागिल्ल.

03063018a राजन्विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति।
03063018c संग्रामेषु च राजेंद्र शश्वज्जयमवाप्स्यसि।।

राजन्! ई विषदिंदागि निनगॆ यावुदे रीतिय पीडॆयू आगुवुदिल्ल. संग्रामगळल्लि नीनु यावत्तू जयवन्नु गळिसुवॆ.

03063019a गच्च राजन्नितः सूतो बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्।
03063019c समीपमृतुपर्णस्य स हि वेदाक्षनैपुणं।
03063019e अयोध्यां नगरीं रम्यामद्यैव निषधेश्वर।।

राज! नीनॊब्ब बाहुक ऎंब हॆसरिन सूत ऎंदु हेळिकॊंडु इल्लिंद अक्षविद्य निपुणनाद ऋतुपर्णनॆडॆगॆ होगु. निषधेश्वर! रम्य अयोध्या नगरिगॆ इंदे हॊरडु.

03063020a स तेऽक्षहृदयं दाता राजाश्वहृदयेन वै।
03063020c इक्ष्वाकुकुलजः श्रीमान्मित्रं चैव भविष्यति।।

आ राजनु निन्न अश्वनैपुण्यतॆगॆ बदलागि निनगॆ अक्ष नैपुण्यतॆयन्नु नीडुत्तानॆ. आ श्रीमान् इक्ष्वाकुकुलजनु निन्न मित्रनागुत्तानॆ.

03063021a भविष्यसि यदाक्षज्ञः श्रेयसा योक्ष्यसे तदा।
03063021c समेष्यसि च दारैस्त्वं मा स्म शोके मनः कृथाः।
03063021e राज्येन तनयाभ्यां च सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।।

यावाग नीनु अक्ष विद्यॆयन्नु पडॆयुत्तीयो आ नंतर श्रेयस्सु, पत्नि, राज्य मत्तु मक्कळीर्वरन्नू पुनः पडॆयुत्तीयॆ. निन्न मनस्सिनिंद शोकवन्नु हॊरहाकु. नानु निनगॆ सत्यवन्ने हेळुत्तिद्देनॆ.

03063022a स्वरूपं च यदा द्रष्टुमिच्चेथास्त्वं नराधिप।
03063022c संस्मर्तव्यस्तदा तेऽहं वासश्चेदं निवासयेः।।
03063023a अनेन वाससाच्चन्नः स्वरूपं प्रतिपत्स्यसे।
03063023c इत्युक्त्वा प्रददावस्मै दिव्यं वासोयुगं तदा।।

नराधिप! यावाग निनगॆ निन्न स्वरूपवन्नु पडॆयलु मनस्सागुत्तदॆयो अवाग नन्नन्नु नॆनपिसिको मत्तु ई वस्त्रवन्नु धरिसु. ई वस्त्रवन्नु धरिसिद कूडले नीनु निन्न स्वरूपवन्नु पुनः हॊंदुत्तीयॆ!” हीगॆ हेळि ऒंदु जॊतॆ दिव्यवस्त्रगळन्नु अवनिगित्तनु.

03063024a एवं नलं समादिश्य वासो दत्त्वा च कौरव।
03063024c नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवांतरधीयत।।

कौरव! ई रीति नलनिगॆ आदेश मत्तु वस्त्रगळन्नित्तु आ नागराजनु अल्लिये अंतर्धाननादनु.”

समाप्ति

इति श्री महाभारते आरण्यकपर्वणि इंद्रलोकाभिगमनपर्वणि नलोपाख्याने नलकर्कोटकसंवादे त्रिषष्टितमोऽध्यायः।
इदु महाभारतद आरण्यकपर्वदल्लि इंद्रलोकाभिगमनपर्वदल्लि नलोपाख्यानदल्लि नलकर्कोटक संवाद ऎन्नुव अरवत्त्मूरनॆय अध्यायवु.


  1. उरियुत्तिरुव अग्नियल्लि प्रवेशिसबल्लनॆंब अग्निय वरवित्तु. ↩︎