प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
आरण्यक पर्व
इंद्रलोकाभिगमन पर्व
अध्याय 58
सार
ऎल्लवन्नू कळॆदुकॊंड नलनिगॆ दमयंतियन्नु पणवागिडु ऎंदु पुष्करनु हेळलु नलनु कोपदिंद आभरणगळन्नु तॆगॆदु बिसाडि, ऎल्लवन्नू त्यजिसि, पत्नियॊडनॆ राज्यद हॊरहॊरटिद्दुदु (1-7). मूरुदिनगळु हसिदिद्द नलनु पक्षिगळन्नु हिडियलु होगि तन्न वस्त्रगळन्नू कळॆदुकॊंडिदुदु (8-15). नल-दमयंतियर संवाद (16-34).
03058001 बृहदश्व उवाच।
03058001a ततस्तु याते वार्ष्णेये पुण्यश्लोकस्य दीव्यतः।
03058001c पुष्करेण हृतं राज्यं यच्चान्यद्वसु किं चन।।
बृहदश्वनु हेळिदनु: “वार्ष्णेयनु होद नंतर पुण्यश्लोकनु जूजाडुत्ता पुष्करनिंद राज्य मत्तु तन्नलिद्द ऎल्ल संपत्तन्नू कळॆदुकॊंडनु.
03058002a हृतराज्यं नलं राजन्प्रहसन्पुष्करोऽब्रवीत्।
03058002c द्यूतं प्रवर्ततां भूयः प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव।।
राज! राज्यवन्नु कळिदुकॊंड नलनिगॆ पुष्करनु नगुत्ता हेळिदनु: “द्यूतवु मुंदुवरियलि. ईग निन्नल्लि पणवागिडलु एनिदॆ?
03058003a शिष्टा ते दमयंत्येका सर्वमन्यद्धृतं मया।
03058003c दमयंत्याः पणः साधु वर्ततां यदि मन्यसे।।
दमयंति मात्र निन्नल्लि उळिदिद्दाळॆ. बेरॆ ऎल्लवन्नु नानु गॆद्दिद्देनॆ. निनगॆ मनस्सिद्दरॆ दमयंतियन्नु पणवागिडु.”
03058004a पुष्करेणैवमुक्तस्य पुण्यश्लोकस्य मन्युना।
03058004c व्यदीर्यतेव हृदयं न चैनं किं चिदब्रवीत्।।
पुष्करन ई मातुगळन्नु केळि पुण्यश्लोकन हृदयवु सिट्टिनिंद ईरिकॊंडितु मत्तु अवनेनू मातनाडलिल्ल.
03058005a ततः पुष्करमालोक्य नलः परममन्युमान्।
03058005c उत्सृज्य सर्वगात्रेभ्यो भूषणानि महायशाः।।
परम कोपदिंद नलनु पुष्करन कडॆ नोडि आ महायशनु तन्न देहद मेलिद्द ऎल्ल भूषणगळन्नु तॆगॆदु ऎसॆदनु.
03058006a एकवासा असंवीतः सुहृच्चोकविवर्धनः।
03058006c निश्चक्राम तदा राजा त्यक्त्वा सुविपुलां श्रियं।।
03058007a दमयंत्येकवस्त्रा तं गच्चंतं पृष्ठतोऽन्वियात्।
03058007c स तया बाह्यतः सार्धं त्रिरात्रं नैषधोऽवसत्।।
नंतर विपुल संपत्तन्नु त्यजिसि, एकवस्त्रदल्लि अतीव दुःखदिंद, सुहृदयर शोकवन्नु वृद्धिसुत्ता राजनु हॊर हॊरटनु. दमयंतियू तन्न उट्ट वस्त्रदल्लि अवनन्नु हिंबालिसिदळु. नैषधनु अवळॊडनॆ निषधद हॊरगॆ मूरु रात्रिगळन्नु कळॆदनु.
03058008a पुष्करस्तु महाराज घोषयामास वै पुरे।
03058008c नले यः सम्यगातिष्ठेत्स गच्चेद्वध्यतां मम।।
महाराज! पुष्करनु “यारादरू नलनन्नु सेरिदरॆ अवनु नन्निंद वधिसल्पडुत्तानॆ!” ऎंदु पुरदल्लॆल्ल घोषणॆ माडिसिदनु.
03058009a पुष्करस्य तु वाक्येन तस्य विद्वेषणेन च।
03058009c पौरा न तस्मिन्सत्कारं कृतवंतो युधिष्ठिर।।
युधिष्ठिर! पुष्करन ई वाक्यगळिंद मत्तु अवन विद्वेषणद कारण पुरजनरु अवनिगॆ सत्कारवन्नु माडलिल्ल.
03058010a स तथा नगराभ्याशे सत्कारार्हो न सत्कृतः।
03058010c त्रिरात्रमुषितो राजा जलमात्रेण वर्तयन्।।
हीगॆ सत्कारार्हनागिद्दरू सत्कृतनागदे नगरद बळियल्लिये राजनु केवल जल सेवनॆ माडिकॊंडु मूरु रात्रिगळन्नु कळॆदनु.
03058011a क्षुधा संपीड्यमानस्तु नलो बहुतिथेऽहनि।
03058011c अपश्यच्शकुनान्कांश्चिद्धिरण्यसदृशच्चदान्।।
बहळ दिनगळु हसिवॆयिंद पीडितनाद नलनु ऒम्मॆ हिरण्यसदृष रॆक्कॆगळन्नु हॊंदिद पक्षिगळन्नु कंडनु.
03058012a स चिंतयामास तदा निषधाधिपतिर्बली।
03058012c अस्ति भक्षो ममाद्यायं वसु चेदं भविष्यति।।
आग बलि निषधाधिपतियु योचिसिदनु: “इवुगळु नन्न इंदिन भोजनवागुववु मत्तु इवु नन्न निधि.”
03058013a ततस्तानंतरीयेण वाससा समवास्तृणोत्।
03058013c तस्यांतरीयमादाय जग्मुः सर्वे विहायसा।।
नंतर अवनु तन्न उट्ट बट्टॆयन्नु आ पक्षिगळ मेलॆ हाकिदनु. आदरॆ अवॆल्लवू आ बट्टॆयन्ने ऎत्तिकॊंडु आकाशक्कॆ हारिदवु.
03058014a उत्पतंतः खगास्ते तु वाक्यमाहुस्तदा नलं।
03058014c दृष्ट्वा दिग्वाससं भूमौ स्थितं दीनमधोमुखं।।
विवस्त्रनागि, दीननागि, अधोमुखनागि भौमिय पक्कदल्लि निंतिद्द नलनन्नु नोडि हारुत्तिरुव आ पक्षिगळु कूगि हेळिदवु:
03058015a वयमक्षाः सुदुर्बुद्धे तव वासो जिहीर्षवः।
03058015c आगता न हि नः प्रीतिः सवाससि गते त्वयि।।
“दुर्बुद्धिये! नावु दाळगळु. निन्न वस्त्रगळन्नु कसियलु बंदिद्देवॆ. याकॆंदरॆ नीनु वस्त्रगळन्नु धरिसि होगुत्तिरुवुदु नमगॆ ऒळ्ळॆयदॆनिसलिल्ल.”
03058016a तान्समीक्ष्य गतानक्षानात्मानं च विवाससं।
03058016c पुण्यश्लोकस्ततो राजा दमयंतीमथाब्रवीत्।।
होगुत्तिरुव दाळगळन्नु मत्तु विवस्त्रनाद तन्नन्नु नोडिद राज पुण्यश्लोकनु दमयंतिगॆ हेळिदनु:
03058017a येषां प्रकोपादैश्वर्यात्प्रच्युतोऽहमनिंदिते।
03058017c प्राणयात्रां न विंदे च दुःखितः क्षुधयार्दितः।।
03058018a येषां कृते न सत्कारमकुर्वन्मयि नैषधाः।
03058018c त इमे शकुना भूत्वा वासोऽप्यपहरंति मे।।
“अनिंदिते! यार प्रकोपदिंद नावु ई ऐश्वर्य च्युति हॊंदिद्देवो, मत्तु ईग जीवनक्कॆ यावुदू उपायगळिल्लदे दुःख मत्तु हसिवॆगळिंद बळलुत्तिद्देवो, यार कारणदिंद निषध पुरजनरु ननगॆ सत्कारवन्नु माडलिल्लवो अवरे ईग पक्षिगळागि बंदु नन्न वस्त्रगळन्नु अपहरिसिदरु.
03058019a वैषम्यं परमं प्राप्तो दुःखितो गतचेतनः।
03058019c भर्ता तेऽहं निबोधेदं वचनं हितमात्मनः।।
महत्तर कष्टगळन्नु हॊंदि, दुःखितनाद नानु नन्न बुद्धियन्ने कळॆदुकॊळ्ळुत्तिद्देनॆ. नानु निन्न पति. निन्न हितक्कागिये हेळुव ई मातुगळन्नु केळु.
03058020a एते गच्चंति बहवः पंथानो दक्षिणापथं।
03058020c अवंतीमृक्षवंतं च समतिक्रम्य पर्वतं।।
ई दक्षिणाभिमुखवागि होगुव दारि अवंति मत्तु ऋक्षवत् पर्वतवन्नु दाटि होगुत्तवॆ.
03058021a एष विंध्यो महाशैलः पयोष्णी च समुद्रगा।
03058021c आश्रमाश्च महर्षीणाममी पुष्पफलान्विताः।।
अल्लि महाशैल विंध्यविदॆ, समुद्रक्कॆ सेरुत्तिरुव नदि पयोष्णी, मत्तु पुष्प-फलगळिंद कूडिद महा ऋषिगळ आश्रमगळिवॆ.
03058022a एष पंथा विदर्भाणामयं गच्चति कोसलान्।
03058022c अतः परं च देशोऽयं दक्षिणे दक्षिणापथः।।
ई दारियु विदर्भक्कॆ मत्तु इदु कोसलक्कॆ होगुत्तदॆ. मत्तु मुंदॆ दक्षिणदल्लि दक्षिणापथ देशविदॆ.”
03058023a ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता।
03058023c उवाच दमयंती तं नैषधं करुणं वचः।।
आग दमयंतियु कण्णीरिडुत्ता, दुःखदल्लि माते बारदे नैषधनिगॆ ई करुण वचनवन्नु हेळिदळु.
03058024a उद्वेपते मे हृदयं सीदंत्यंगानि सर्वशः।
03058024c तव पार्थिव संकल्पं चिंतयंत्याः पुनः पुनः।।
“पार्थिव! निन्न संकल्पवन्नु पुनः पुनः यॊचिसुत्ता नन्न हृदयवु बडियुत्तिदॆ मत्तु सर्वांगगळू दुर्बलवागुत्तिवॆ.
03058025a हृतराज्यं हृतधनं विवस्त्रं क्षुच्च्रमान्वितं।
03058025c कथमुत्सृज्य गच्चेयमहं त्वां विजने वने।।
राज्य-धनगळन्नु कळॆदुकॊंड, विवस्त्रनाद, हसिवॆ-बायारिकॆगळिंद बळलुत्तिरुव निन्नन्नु ई निर्जन वनदल्लि बिट्टु नानु हेगॆ होगलि?
03058026a श्रांतस्य ते क्षुधार्तस्य चिंतयानस्य तत्सुखं।
03058026c वने घोरे महाराज नाशयिष्यामि ते क्लमं।।
इल्ल महाराज! ई घोर वनदल्लि निन्न ई बळलिकॆयन्नु, हसिवॆयन्नु नाशमाडुत्तेनॆ मत्तु चिंतॆ-दुगुडगळिंद निनगॆ सुखवन्नु तरलु प्रयतिसुत्तेनॆ.
03058027a न च भार्यासमं किं चिद्विद्यते भिषजां मतं।
03058027c औषधं सर्वदुःखेषु सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।।
सर्व दुःखदल्लियू भार्यॆय समनाद औषधियिल्ल ऎंदु वैद्यर मत. ई सत्यवन्नु नानु निनगॆ हेळुत्तिद्देनॆ.”
03058028 नल उवाच।
03058028a एवमेतद्यथात्थ त्वं दमयंति सुमध्यमे।
03058028c नास्ति भार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजं।।
नलनु हेळिदनु: “सुमध्यमॆ दमयंति! नीनु हेळिदुदॆल्लवू सरिये. आर्तनिगॆ हॆंडतियंथ मित्र अथवा औषध इन्नॊंदिल्ल.
03058029a न चाहं त्यक्तुकामस्त्वां किमर्थं भीरु शंकसे।
03058029c त्यजेयमहमात्मानं न त्वेव त्वामनिंदिते।।
भीरु! निन्नन्नु त्यजिसुव इच्चॆ नन्नल्लिल्ल. सुम्मनॆ एकॆ शंकिसुवॆ. अनिंदिते! निन्नन्नु त्यजिसुव मॊदलु नन्नन्नु नाने त्यजिसिबिडुत्तेनॆ.”
03058030 दमयंत्युवाच।
03058030a यदि मां त्वं महाराज न विहातुमिहेच्चसि।
03058030c तत्किमर्थं विदर्भाणां पंथाः समुपदिश्यते।।
दमयंतियु हेळिदळु: “महाराज! नीनु नन्नन्नु बिडलु बयसदिद्दरॆ नीनु ननगॆ विदर्भद दारियन्नु एकॆ तोरिसिदॆ?
03058031a अवैमि चाहं नृपते न त्वं मां त्यक्तुमर्हसि।
03058031c चेतसा त्वपकृष्टेन मां त्यजेथा महापते।।
नृपते! महापते! नानू कूड नीनु नन्नन्नु त्यजिसबारदॆंदे बयसुत्तेनॆ. कष्टदल्लि नॊंदवनागि नन्नन्नु त्यजिसबेड.
03058032a पंथानं हि ममाभीक्ष्णमाख्यासि नरसत्तम।
03058032c अतोनिमित्तं शोकं मे वर्धयस्यमरप्रभ।।
नरसत्तम! अमरप्रभ! दारिगळन्ने ननगॆ तोरिसुत्तिद्दीयॆ. इदरिंदले नन्न शोकवु हॆच्चागुत्तिदॆ.
03058033a यदि चायमभिप्रायस्तव राजन्व्रजेदिति।
03058033c सहितावेव गच्चावो विदर्भान्यदि मन्यसे।।
राजन्! नानु विदर्भक्कॆ होगबेकॆंदु निन्न अभिप्रायविद्दरॆ, निन्न अनुमतियिद्दरॆ, नाविब्बरू ऒट्टिगे होगोण.
03058034a विदर्भराजस्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद।
03058034c तेन त्वं पूजितो राजन्सुखं वत्स्यसि नो गृहे।।
मानद! राज! विदर्भराजनु निन्नन्नु पूजिसुत्तानॆ. अवनिंद सत्कृतनागि नावु नम्म गृहदल्लि सुखवागि इरोण.”
समाप्ति
इति श्री महाभारते आरण्यकपर्वणि इंद्रलोकाभिगमनपर्वणि नलोपाख्याने नलवनयात्रायां अष्टपंचाशत्तमोऽध्यायः।
इदु महाभारतद आरण्यकपर्वदल्लि इंद्रलोकाभिगमनपर्वदल्लि नलोपाख्यानदल्लि नलवनयात्र ऎन्नुव ऐवत्तॆंटनॆय अध्यायवु.