065 इंद्रप्रस्थं प्रति युधिष्ठिरगमनः

प्रवेश

।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।

श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित

श्री महाभारत

सभा पर्व

द्यूत पर्व

अध्याय 65

सार

एनु माडबेकॆंदु केळलु (1) धृतराष्ट्रनु युधिष्ठिरनिगॆ इंद्रप्रस्थक्कॆ मरळि, दुर्योधनादिगळ विरुद्ध वैरवन्नु साधिसदे, वृद्ध गांधारि मत्तु राजनन्नु गौरविसिकॊंडु, निन्न राज्यवन्नु आळु ऎंदु सलहॆयन्नु नीडुवुदु (2-15). युधिष्ठिरनु द्रौपदि मत्तु तम्मंदिरॊडनॆ रथगळन्नेरि इंद्रप्रस्थद कडॆ प्रयाणिसिदुदु (16-17).

02065001 युधिष्ठिर उवाच।
02065001a राजन्किं करवामस्ते प्रशाध्यस्मांस्त्वमीश्वरः।
02065001c नित्यं हि स्थातुमिच्छामस्तव भारत शासने।।

युधिष्ठिरनु हेळिदनु: “राजन्! ईग नावु एनु माडबेकु? नमगॆ आज्ञापिसु. नीनु नम्म ऒडॆय. भारत! नित्यवू नावु निन्न शासनदंतॆ नडॆदुकॊळ्ळलु बयसुत्तेवॆ.”

02065002 धृतराष्ट्र उवाच।
02065002a अजातशत्रो भद्रं ते अरिष्टं स्वस्ति गच्छत।
02065002c अनुज्ञाताः सहधनाः स्वराज्यमनुशासत।।

धृतराष्ट्रनु हेळिदनु: “अजातशत्रु! निनगॆ मंगळवागलि! शांति मत्तु सुखदिंद होगु. निनगॆ अनुज्ञॆयिदॆ. निन्न राज्यवन्नु धनदॊंदिगॆ आळु.

02065003a इदं त्वेवावबोद्धव्यं वृद्धस्य मम शासनं।
02065003c धिया निगदितं कृत्स्नं पथ्यं निःश्रेयसं परं।।

आदरॆ ई वृद्धनु निनगॆ नीडुव सलहॆयन्नु हृदयक्कॆ तॆगॆदुको. एकॆंदरॆ इदु निश्चयवागियू परम श्रेयस्सिगॆ पथ्य.

02065004a वेत्थ त्वं तात धर्माणां गतिं सूक्ष्मां युधिष्ठिर।
02065004c विनीतोऽसि महाप्राज्ञ वृद्धानां पर्युपासिता।।

युधिष्ठिर! महाप्राज्ञ! मगने! निनगॆ धर्मगळ सूक्ष्म गतियु तिळिदिदॆ. विनीतनागिरुवॆ मत्तु वृद्धर सेवॆ माडुत्तीयॆ.

02065005a यतो बुद्धिस्ततः शांतिः प्रशमं गच्छ भारत।
02065005c नादारौ क्रमते शस्त्रं दारौ शस्त्रं निपात्यते।।

भारत! ऎल्लि बुद्धियिदॆयो अल्लि शांतियिरुत्तदॆ. शांतनागि होगु. कट्टिगॆयल्लदुदन्नु शस्त्रवु कडियुवुदिल्ल. कट्टिगॆय मेलॆ मात्र शस्त्रवन्नु प्रयोगिसबहुदु.

02065006a न वैराण्यभिजानंति गुणान्पश्यंति नागुणान्।
02065006c विरोधं नाधिगच्छंति ये त उत्तमपूरुषाः।।

उत्तम पुरुषनु वैरत्ववन्नु तिळिदिरुवुदिल्ल. गुणगळन्नु नोडुत्तानॆ, अवगुणगळन्नल्ल मत्तु विरोधवन्नु साधिसुवुदिल्ल.

02065007a संवादे परुषाण्याहुर्युधिष्ठिर नराधमाः।
02065007c प्रत्याहुर्मध्यमास्त्वेतानुक्ताः परुषमुत्तरं।।
02065008a नैवोक्ता नैव चानुक्ता अहिताः परुषा गिरः।
02065008c प्रतिजल्पंति वै धीराः सदा उत्तमपूरुषाः।।

युधिष्ठिर! नराधमरु मात्र मातनाडुवाग अपमान माडुत्तारॆ. आदरॆ उत्तम पुरुषरु हेळदे इद्द अथवा हेळिद यावुदे अहित मातुगळिगॆ प्रतिक्रियॆ तोरिसदे सहिसिकॊळ्ळुत्तारॆ.

02065009a स्मरंति सुकृतान्येव न वैराणि कृतान्यपि।
02065009c संतः प्रतिविजानंतो लब्ध्वा प्रत्ययमात्मनः।।

संतरु सुकृतगळन्नु मात्र नॆनपिनल्लिट्टुकॊळ्ळुत्तारॆ मत्तु गुरुतिसुत्तारॆ. द्वेषदल्लि माडिदवुगळन्नल्ल. एकॆंदरॆ अवरिगॆ तम्म मेलॆये विश्वासविरुत्तदॆ.

02065010a तथाचरितमार्येण त्वयास्मिन्सत्समागमे।
02065010c दुर्योधनस्य पारुष्यं तत्तात हृदि मा कृथाः।।

ई सत्समागमदल्लि नीनु गौरवयुतवागि नडॆदुकॊंडिद्दीयॆ. मगने! दुर्योधनन कॆट्ट वर्तनॆगळन्नु हृदयक्कॆ तॆगॆदुकॊळ्ळबेड.

02065011a मातरं चैव गांधारीं मां च त्वद्गुणकांक्षिणं।
02065011c उपस्थितं वृद्धमंधं पितरं पश्य भारत।।

भारत! निन्न ऋणाकांक्षिगळागि उपस्थितरिरुव ई वृद्धरू अंधरू आद निन्न तायि गांधारि मत्तु तंदॆ नन्नन्नु नोडु.

02065012a प्रेक्षापूर्वं मया द्यूतमिदमासीदुपेक्षितं।
02065012c मित्राणि द्रष्टुकामेन पुत्राणां च बलाबलं।।

मित्ररन्नु मत्तु पुत्रर बलाबलवन्नु नोडुवुदक्कोस्कर नानु ई द्यूतवन्नु एर्पडिसिद्दॆ.

02065013a अशोच्याः कुरवो राजन्येषां त्वमनुशासिता।
02065013c मंत्री च विदुरो धीमान्सर्वशास्त्रविशारदः।।

राजन्! निन्न अनुशासनदल्लिरुव कुरुगळ मत्तु धीमंत सर्वशास्त्रविशारद मंत्रि विदुरन कुरितु शोकिसबेड.

02065014a त्वयि धर्मोऽर्जुने वीर्यं भीमसेने पराक्रमः।
02065014c श्रद्धा च गुरुशुश्रूषा यमयोः पुरुषाग्र्ययोः।।

निन्नल्लि धर्मविदॆ. अर्जुननल्लि वीर्यविदॆ. भीमसेननल्लि पराक्रमविदॆ मत्तु यमळरल्लि श्रद्धॆ, गुरु-हिरियर शुश्रूषॆयिदॆ.

02065015a अजातशत्रो भद्रं ते खांडवप्रस्थमाविश।
02065015c भ्रातृभिस्तेऽस्तु सौभ्रात्रं धर्मे ते धीयतां मनः।।

अजातशत्रु! निनगॆ मंगळवागलि! खांडवप्रस्थवन्नु सेरु. निन्न भ्रातृगळल्लि निनगॆ सौहार्दत्व इरलि मत्तु निन्न मनस्सु धर्मदल्लि नॆलॆसिरलि.””

02065016 वैशंपायन उवाच।
02065016a इत्युक्तो भरतश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
02065016c कृत्वार्यसमयं सर्वं प्रतस्थे भ्रातृभिः सह।।

वैशंपायननु हेळिदनु: “भरतश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरनु ई मातुगळॆल्लवन्नू गौरवान्वितवागि ऒप्पिकॊंडु भ्रातृगळ सहित हॊरटनु.

02065017a ते रथान्मेघसंकाशानास्थाय सह कृष्णया।
02065017c प्रययुर्हृष्टमनस इंद्रप्रस्थं पुरोत्तमं।।

अवरु मेघदंतॆ गर्जिसुव रथगळन्नेरि कृष्णॆय सहित हृष्ठमनस्करागि उत्तम पुर इंद्रप्रस्थद कडॆ हॊरटरु.”

समाप्ति

इति श्री महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि इंद्रप्रस्थं प्रति युधिष्ठिरगमने पंचषष्टितमोऽध्यायः।।
इदु श्री महाभारतदल्लि सभापर्वदल्लि द्यूतपर्वदल्लि इंद्रप्रस्थक्कॆ युधिष्ठिरन प्रयाण ऎन्नुव अरवत्तैदनॆय अध्यायवु. इति श्री महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वः।।
इदु श्री महाभारतदल्लि सभापर्वदल्लि द्यूतपर्ववु. इदूवरॆगिन ऒट्टु महापर्वगळु-1/18, उपपर्वगळु-27/100, अध्यायगळु-290/1995, श्लोकगळु-9348/73784.