प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
आदि पर्व
खांडवदाह पर्व
अध्याय 220
सार
खांडवदहनदल्लि सारंगगळु एकॆ सायलिल्ल ऎन्नुव जनमेजयन प्रश्नॆगॆ वैशंपायननु उत्तरिसिद्दुदु (1-5). संतानविल्लदे इरुवुदरिंद तनगॆ लोकगळु दॊरॆयुत्तिल्लवॆन्नुवुदन्नु ऋषि मंदपालनु देवतॆगळिंद तिळियुवुदु (6-14). अवनु शांगृकॆ जरितॆयल्लि नाल्वरु मक्कळन्नु पडॆदु, खांडवदहनद समयदल्लि अग्नियन्नु स्तुतिसिदुदु; अग्नियु अवन मक्कळन्नु सुडुवुदिल्लवॆंदु भरवसॆयन्नित्तुदुदु (15-32).
01220001 जनमेजय उवाच।
01220001a किमर्थं शांङृकानग्निर्न ददाह तथागते।
01220001c तस्मिन्वने दह्यमाने ब्रह्मन्नेतद्वदाशु मे।।
जनमेजयनु हेळिदनु: “ब्रह्मन्! आ वनवु उरियुत्तिरुवाग अग्नियु सारंगगळन्नु एकॆ सुडलिल्ल ऎन्नुवुदन्नु नडॆदहागॆ हेळबेकु.
01220002a अदाहे ह्यश्वसेनस्य दानवस्य मयस्य च।
01220002c कारणं कीर्तितं ब्रह्मंशांङृकानां न कीर्तितं।।
ब्रह्मन्! अश्वसेन मत्तु दानव मयरु एकॆ सुट्टुहोगलिल्ल ऎन्नुवुदक्कॆ कारणवन्नु हेळिद्दीयॆ. आदरॆ सारंगगळ कुरितु हेळलिल्ल.
01220003a तदेतदद्भुतं ब्रह्मंशांङृर्नामविनाशनं।
01220003c कीर्तयस्वाग्निसम्मर्दे कथं ते न विनाशिताः।।
ब्रह्मन्! सारंगगळु नाशहॊंददे इद्दुदु ऒंदु अद्भुतवे सरि. आ अग्निसम्मर्ददल्लि अवुगळु हेगॆ विनाशवागलिल्ल ऎन्नुवुदन्नु हेळु.”
01220004 वैशंपायन उवाच।
01220004a यदर्थं शांङृकानग्निर्न ददाह तथागते।
01220004c तत्ते सर्वं यथावृत्तं कथयिष्यामि भारत।।
वैशंपायननु हेळिदनु: “भारत! आग अग्नियु सारंगगळन्नु एकॆ सुडलिल्ल ऎन्नुवुदन्नु सर्ववागि यथावत्तागि हेळुत्तेनॆ.
01220005a धर्मज्ञानां मुख्यतमस्तपस्वी संशितव्रतः।
01220005c आसीन्महर्षिः श्रुतवान्मंदपाल इति श्रुतः।।
मंदपालनॆंदु प्रसिद्ध धर्मज्ञरल्लि मुख्यतम संशितव्रत तपस्वि महर्षियु इद्दनु.
01220006a स मार्गमास्थितो राजन्नृषीणामूर्ध्वरेतसां।
01220006c स्वाध्यायवान्धर्मरतस्तपस्वी विजितेंद्रियः।।
राजन्! ऊर्ध्वरेतस ऋषिगळ मार्गवन्नु हिडिदिद्द आ विजितेंद्रिय तपस्वियु धर्मरतनागि स्वाध्यायदल्लि निरतनागिद्दनु.
01220007a स गत्वा तपसः पारं देहमुत्सृज्य भारत।
01220007c जगाम पितृलोकाय न लेभे तत्र तत्फलं।
भारत! तपस्सिन पराकाष्टॆयन्नु तलुपिद अवनु देहवन्नु तॊरॆदु पितृलोकवन्नु सेरिदनु. आदरॆ अल्लि अवनिगॆ फलवु दॊरॆयलिल्ल.
01220008a स लोकानफलान्दृष्ट्वा तपसा निर्जितानपि।
01220008c पप्रच्छ धर्मराजस्य समीपस्थान्दिवौकसः।।
गळिसिद्दरू तन्न तपस्सिनिंद फलवु दॊरॆयदे इद्द लोकगळन्नु कंड अवनु धर्मराजन समीपदल्लि कुळितिद्द दिवौकसरिगॆ केळिदनु:
01220009a किमर्थमावृता लोका ममैते तपसार्जिताः।
01220009c किं मया न कृतं तत्र यस्येदं कर्मणः फलं।।
“नानु तपस्सिनिंद गळिसिद ई लोकगळु ननगॆ एकॆ मुच्चिहोगिवॆ? नानु एनन्नु माडिल्लवॆंदु इदु नन्न कर्म फलवागिदॆ?
01220010a तत्राहं तत्करिष्यामि यदर्थमिदमावृतं।
01220010c फलमेतस्य तपसः कथयध्वं दिवौकसः।।
यावुदरिंदागि नन्न तपस्सिन फलवु दॊरॆयदे इदॆयो अदन्नु माडुत्तेनॆ. दिवौकसरे! हेळिरि.”
01220011 देवा ऊचुः।
01220011a ऋणिनो मानवा ब्रह्मंजायंते येन तच्शृणु।
01220011c क्रियाभिर्ब्रह्मचर्येण प्रजया च न संशयः।।
देवतॆगळु हेळिदरु: “ब्रह्मन्! मानवरु यावुदक्कॆ ऋणिगळागि हुट्टुत्तारॆ ऎन्नुवुदन्नु केळु: क्रियॆ, ब्रह्मचर्य मत्तु संतान. इदरल्लि संशयविल्ल.
01220012a तदपाक्रियते सर्वं यज्ञेन तपसा सुतैः।
01220012c तपस्वी यज्ञकृच्चासि न तु ते विद्यते प्रजा।।
01220013a त इमे प्रसवस्यार्थे तव लोकाः समावृताः।
01220013c प्रजायस्व ततो लोकानुपभोक्तासि शाश्वतान्।।
इवॆल्लवुगळन्नू यज्ञ, तपस्सु मत्तु सुतरिंद तीरिसबहुदु. नीनु तपस्वि मत्तु यज्ञकर्तृवागिद्दीयॆ. आदरॆ निनगॆ मक्कळिल्ल.
01220014a पुन्नाम्नो नरकात्पुत्रस्त्रातीति पितरं मुने।
01220014c तस्मादपत्यसंताने यतस्व द्विजसत्तम।।
मुनि! पु ऎंब हॆसरिन नरकदिंद पितृगळन्नु पारुमाडुवनन्नु पुत्र ऎंदु करॆयुत्तारॆ. द्विजसत्तम! आदुदरिंद कुलवन्नु मुंदुवरॆसिकॊंडु होगुव संतानक्कॆ प्रयत्निसु.””
01220015 वैशंपायन उवाच।
01220015a तच्छृत्वा मंदपालस्तु तेषां वाक्यं दिवौकसां।
01220015c क्व नु शीघ्रमपत्यं स्याद्बहुलं चेत्यचिंतयत्।।
वैशंपायननु हेळिदनु: “दिवौकसर आ मातुगळन्नु केळिद मंदपालनु नानु ऎल्लि शीघ्रवागि बहळ मक्कळन्नु पडॆयबहुदु ऎंदु योचिसिदनु.
01220016a स चिंतयन्नभ्यगच्छद्बहुलप्रसवान्खगान्।
01220016c शार्ङ्गिकां शार्ङ्गको भूत्वा जरितां समुपेयिवान्।।
हीगॆ योचिसुत्तिरुवाग पक्षिगळिगॆ बहळ मक्कळु आगुत्तवॆ ऎंब योचनॆयु अवनिगॆ बंदितु. अवनु सारंगनागि जरिता ऎन्नुव सारंगियॊडनॆ सेरिदनु.
01220017a तस्यां पुत्रानजनयच्चतुरो ब्रह्मवादिनः।
01220017c तानपास्य स तत्रैव जगाम लपितां प्रति।
01220017e बालान्सुतानंडगतान्मात्रा सह मुनिर्वने।।
अवळल्लि अवनु ब्रह्मवादिगळाद नाल्कु पुत्ररन्नु पडॆदनु. इन्नू अंडदल्लिये इद्द तन्न बाल सुतरन्नु तायियॊडनॆ वनदल्लिये बिट्टु आ मुनियु लपितळ कडॆ हॊरटुहोदनु.
01220018a तस्मिन्गते महाभागे लपितां प्रति भारत।
01220018c अपत्यस्नेहसंविग्ना जरिता बह्वचिंतयत्।।
भारत! आ महाभागनु लपितॆय कडॆ हॊरटुहोद नंतर जरितॆयु मक्कळ मेलिन प्रीतियिंदागि बहळ चिंतिसिदळु.
01220019a तेन त्यक्तानसंत्याज्यानृषीनंडगतान्वने।
01220019c नाजहत्पुत्रकानार्ता जरिता खांडवे नृप।
01220019e बभार चैतान्संजातान्स्ववृत्त्या स्नेहविक्लवा।।
नृप! इन्नू हुट्टदे अंडदल्लिये इद्द आ पुत्र ऋषिगळन्नु खांडववनदल्लि आर्त जरितॆयु बिट्टु होगलारदे स्नेहविक्लवळागि हुट्टिद अवरन्नु पालिसिदळु.
01220020a ततोऽग्निं खांडवं दग्धुमायांतं दृष्टवानृषिः।
01220020c मंदपालश्चरंस्तस्मिन्वने लपितया सह।।
नंतर अग्नियु खांडववन्नु सुडलु बरुत्तिरुवुदन्नु नोडिद ऋषि मंदपालनु लपितळॊडनॆ आ वनक्कॆ धाविसिदनु.
01220021a तं संकल्पं विदित्वास्य ज्ञात्वा पुत्रांश्च बालकान्।
01220021c सोऽभितुष्टाव विप्रर्षिर्ब्राह्मणो जातवेदसं।
01220021e पुत्रान्परिददद्भीतो लोकपालं महौजसं।।
अवन संकल्पवन्नु तिळिदु मत्तु पुत्ररु बालकरॆंदु तिळिदु आ विप्रर्षि ब्राह्मणनु तन्न पुत्रर रक्षणॆगॆ भीतनागि महौजस लोकपाल जातवेदसनन्नु स्तुतिस तॊडगिदनु.
01220022 मंदपाल उवाच।
01220022a त्वमग्ने सर्वदेवानां मुखं त्वमसि हव्यवाट्।
01220022c त्वमंतः सर्वभूतानां गूढश्चरसि पावक।।
मंदपालनु हेळिदनु: “अग्नि! नीनु सर्वदेवतॆगळ बायि! नीनु हव्यवन्नु सागिसुववनु! नीनु सर्वभूतगळ अंतराळदल्लि गूढवागिद्दीयॆ!
01220023a त्वामेकमाहुः कवयस्त्वामाहुस्त्रिविधं पुनः।
01220023c त्वामष्टधा कल्पयित्वा यज्ञवाहमकल्पयन्।।
कव्यरु निन्नन्नु ऒंदे ऎंदु करॆयुत्तारॆ आदरॆ पुनः त्रिविधवॆंदू करॆयुत्तारॆ. निन्नन्नु अष्टधा ऎंदु कल्पिसि यज्ञवाहननॆंदू कल्पिसुत्तारॆ.
01220024a त्वया सृष्टमिदं विश्वं वदंति परमर्षयः।
01220024c त्वदृते हि जगत् कृत्स्नं सद्यो न स्याद्हुताशन।।
नीनु ई विश्ववन्नु सृष्टिसिदवनु ऎंदु परमऋषिगळु हेळुत्तारॆ. हुताशन! नीनिल्लदे ई जगत्तु क्षणमात्रदल्लि अदृश्यवागिबिडुत्तदॆ!
01220025a तुभ्यं कृत्वा नमो विप्राः स्वकर्मविजितां गतिं।
01220025c गच्छंति सह पत्नीभिः सुतैरपि च शाश्वतीं।।
विप्ररु पत्नि मत्तु सुतर सहित निन्नन्नु नमस्करिसिये स्वकर्मगळन्नु माडलु शाश्वत जयद दारियल्लि नडॆयुत्तारॆ.
01220026a त्वामग्ने जलदानाहुः खे विषक्तान्सविद्युतः।
01220026c दहंति सर्वभूतानि त्वत्तो निष्क्रम्य हायनाः।।
नीनु तम्म मिंचुगळिंद पूर्वदिक्किन आकाशवन्नु मुट्टुव मोडगळॆंदु हेळुत्तारॆ. निन्न मुखदिंद हॊरबरुव ज्वालॆयु सर्वभूतगळन्नु सुडुत्तदॆ.
01220027a जातवेदस्तवैवेयं विश्वसृष्टिर्महाद्युते।
01220027c तवैव कर्म विहितं भूतं सर्वं चराचरं।।
महाद्युते! जातवेद! ई विश्ववु निन्नदे सृष्टि! सर्व कर्मगळू चराचर भूतगळू निन्निंदले विहितवागिवॆ.
01220028a त्वयापो विहिताः पूर्वं त्वयि सर्वमिदं जगत्।
01220028c त्वयि हव्यं च कव्यं च यथावत्संप्रतिष्ठितं।
हिंदॆ नीरु निन्निंदले विहितवागित्तु. ई सर्व जगत्तू निन्निंदले विहितवागिदॆ. हव्य कव्यगळॆल्लवू यथावत्तागि निन्नन्ने आधरिसिवॆ.
01220029a अग्ने त्वमेव ज्वलनस्त्वं धाता त्वं बृहस्पतिः।
01220029c त्वमश्विनौ यमौ मित्रः सोमस्त्वमसि चानिलः।।
अग्नि! नीने ज्वलन! नीने धाता मत्तु बृहस्पति! नीनॆ अश्विनी देवतॆगळु! यम, मित्र, सोम मत्तु अनिलनू नीने!””
01220030 वैशंपायन उवाच।
01220030a एवं स्तुतस्ततस्तेन मंदपालेन पावकः।
01220030c तुतोष तस्य नृपते मुनेरमिततेजसः।
01220030e उवाच चैनं प्रीतात्मा किमिष्टं करवाणि ते।।
वैशंपायननु हेळिदनु: “नृप! मंदपालन ई स्तुतियिंद पावकनु आ अमिततेजस मुनियल्लि संतुष्टनादनु. प्रीतात्मनागि अवनल्लि “निनगिष्टवाद एनन्नु माडलि?” ऎंदु केळिदनु.
01220031a तमब्रवीन्मंदपालः प्रांजलिर्हव्यवाहनं।
01220031c प्रदहन्खांडवं दावं मम पुत्रान्विसर्जय।।
मंदपालनु अंजलीबद्धनागि हव्यवाहननिगॆ हेळिदनु: “खांडववनवन्नु दहिसुवाग नन्न पुत्ररन्नु बिट्टुबिडु!”
01220032a तथेति तत्प्रतिश्रुत्य भगवान् हव्यवाहनः।
01220032c खांडवे तेन कालेन प्रजज्वाल दिधक्षया।।
भगवान् हव्यवाहननु हागॆये आगलॆंदु उत्तरिसि, अदे समयदल्लि खांडववनवन्नु सुडुव इच्छॆयिंद तन्न ज्वालॆगळन्नु पसरिसिदनु.”
समाप्ति
इति श्री महाभारते आदिपर्वणि खांडवदाहपर्वणि शांङृकोपाख्याने विंशत्याधिकद्विशततमोऽध्यायः।।
इदु श्री महाभारतदल्लि आदिपर्वदल्लि खांडवदाहपर्वदल्लि शांङृकोपाख्यान ऎन्नुव इन्नूरा इप्पत्तनॆय अध्यायवु.