प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
आदि पर्व
संभव पर्व
अध्याय 103
सार
भीष्म-विदुररु धृतराष्ट्र मत्तु पांडुविन विवाहद कुरितु योचिसिदुदु (1-8). नूरु मक्कळ तायियागुव वरवन्नु पडॆद सौबलन मगळु गांधारियॊंदिगॆ धृतराष्ट्रन विवाह (9-12). गांधारियु कण्णिगॆ पट्टियन्नु कट्टिकॊंडु पातिव्रत्यवन्नु पालिसिदुदु (13-21).
01103001 भीष्म उवाच।
01103001a गुणैः समुदितं सम्यगिदं नः प्रथितं कुलं।
01103001c अत्यन्यान्पृथिवीपालान्पृथिव्यामधिराज्यभाक्।।
भीष्मनु हेळिदनु: “सुगुणगळिंद समुदित ई प्रख्यात कुलवु भूमियल्लिन अन्य ऎल्ल पृथ्वीपालरमेलॆ प्रभुत्ववन्नु स्थापिसिदॆ.
01103002a रक्षितं राजभिः पूर्वैर्धर्मविद्भिर्महात्मभिः।
01103002c नोत्सादमगमच्चेदं कदा चिदिह नः कुलं।।
01103003a मया च सत्यवत्या च कृष्णेन च महात्मना।
01103003c समवस्थापितं भूयो युष्मासु कुलतंतुषु।।
पूर्वदल्लि महात्म धर्मविद्वांस राजरिंद रक्षिसिकॊंडु बंद ई कुलवु ऎंदू अधोगतियन्नु हॊंदिल्ल. इदन्नु कुलतंतुगळाद निम्म मेलॆ सत्यवति, महात्म कृष्ण मत्तु नानु हॊरिसिद्देवॆ.
01103004a वर्धते तदिदं पुत्र कुलं सागरवद्यथा।
01103004c तथा मया विधातव्यं त्वया चैव विशेषतः।।
पुत्र! ई कुलवु सागरदंतॆ वर्धिसलु, ननगिंथ हॆच्चु, नीनु विशेषवाद काळजियन्नु तॆगॆदुकॊळ्ळबेकु.
01103005a श्रूयते यादवी कन्या अनुरूपा कुलस्य नः।
01103005c सुबलस्यात्मजा चैव तथा मद्रेश्वरस्य च।।
नम्म कुलक्कॆ अनुरूप यादवी कन्यॆयॊब्बळु, सुबलन मगळु मत्तु मद्रेश्वरन मगळ कुरितु केळिद्देनॆ.
01103006a कुलीना रूपवत्यश्च नाथवत्यश्च सर्वशः।
01103006c उचिताश्चैव संबंधे तेऽस्माकं क्षत्रियर्षभाः।।
इवरॆल्लरू कुलीनरू, रूपवतियरू, रक्षणॆयल्लिद्दवरू आगिद्दु आ ऎल्ल क्षत्रियर्षभरू नम्मॊडनॆ संबंधवन्नु कल्पिसिकॊळ्ळलु सरियादवरे आगिद्दारॆ.
01103007a मन्ये वरयितव्यास्ता इत्यहं धीमतां वर।
01103007c संतानार्थं कुलस्यास्य यद्वा विदुर मन्यसे।।
ई कुलद संतानार्थवागि इवरन्नु वरिसबेकॆंदु नन्न मत. धीमंतरल्लि श्रेष्ठ विदुर, इदर कुरितु निन्न मतवेनु?”
01103008 विदुर उवाच।
01103008a भवान्पिता भवान्माता भवान्नः परमो गुरुः।
01103008c तस्मात्स्वयं कुलस्यास्य विचार्य कुरु यद्धितं।।
विदुरनु हेळिदनु: “नीनु नम्मॆल्लर पित, मात मत्तु परम गुरु. नम्म ई कुलक्कॆ हितवादद्दन्नु नीने स्वयं विचारिसि नॆरवेरिसिकॊडु.””
01103009 वैशंपायन उवाच।
01103009a अथ शुश्राव विप्रेभ्यो गांधारीं सुबलात्मजां।
01103009c आराध्य वरदं देवं भगनेत्रहरं हरं।
01103009e गांधारी किल पुत्राणां शतं लेभे वरं शुभा।।
वैशंपायननु हेळिदनु: “आग सुबलात्मजॆ शुभॆ गांधारियु वरद देव भगनेत्रहर हरनन्नु आराधिसि नूरु मक्कळ वरवन्नु पडॆदिद्दाळॆ ऎंदु विप्रर मूलक केळिदनु.
01103010a इति श्रुत्वा च तत्त्वेन भीष्मः कुरुपितामहः।
01103010c ततो गांधारराजस्य प्रेषयामास भारत।।
भारत! इदन्नु केळिद कुरुपितामह भीष्मनु दूतनोर्वनन्नु गांधारराजनल्लिगॆ कळुहिसिदनु.
01103011a अचक्षुरिति तत्रासीत्सुबलस्य विचारणा।
01103011c कुलं ख्यातिं च वृत्तं च बुद्ध्या तु प्रसमीक्ष्य सः।
01103011e ददौ तां धृतराष्ट्राय गांधारीं धर्मचारिणीं।।
कुरुडनॆंदु चिंतिसि सुबलनु हिंजरिदनु. आदरू कुल, ख्याति, इतिहासवन्नु बुद्धिपूर्वक समीक्षिसि अवनु धर्मचारिणि गांधारियन्नु धृतराष्ट्रनिगॆ कॊट्टनु.
01103012a गांधारी त्वपि शुश्राव धृतराष्ट्रमचक्षुषं।
01103012c आत्मानं दित्सितं चास्मै पित्रा मात्रा च भारत।।
भारत! गांधारियादरू धृतराष्ट्रनु कुरुड मत्तु तंदॆ तायियरु तन्नन्नु अवनिगॆ कॊडलु बयसुत्तिद्दारॆंदु केळिदळु.
01103013a ततः सा पट्टमादाय कृत्वा बहुगुणं शुभा।
01103013c बबंध नेत्रे स्वे राजन्पतिव्रतपरायणा।
01103013e नात्यश्नीयां पतिमहमित्येवं कृतनिश्चया।।
राजन्! आग आ पतिव्रतापरायणॆ शुभॆयु ऒंदु पट्टियन्नु तॆगॆदुकॊंडु अदरल्लि हलवु मडिकॆगळन्नु माडि तन्न कण्णुगळन्नु कट्टिकॊंडु तन्न पतिगिंथ अधिक अनुभववु तनगॆ बेड ऎंब दृढनिश्चय माडिदळु.
01103014a ततो गांधारराजस्य पुत्रः शकुनिरभ्ययात्।
01103014c स्वसारं परया लक्ष्म्या युक्तामादाय कौरवान्।।
नंतर गांधारराज पुत्र शकुनियु अत्यंत संपत्तिनॊडनॆ तन्न अक्कनन्नु कौरवनिगोस्कर करॆतंदनु.
01103015a दत्त्वा स भगिनीं वीरो यथार्हं च परिच्छदं।
01103015c पुनरायात्स्वनगरं भीष्मेण प्रतिपूजितः।।
तक्कुदाद बळुवळिगळॊंदिगॆ तन्न अक्कनन्नित्तु भीष्मनिंद सत्करिसल्पट्टु आ वीरनु तन्न नगरक्कॆ हिंदिरुगिदनु.
01103016a गांधार्यपि वरारोहा शीलाचारविचेष्टितैः।
01103016c तुष्टिं कुरूणां सर्वेषां जनयामास भारत।।
भारत! वरारोहॆ गांधारियु शीलाचार विचेष्टॆगळिंद कुरुगळॆल्लरन्नू संतुष्टगॊळिसिदळु.
01103017a वृत्तेनाराध्य तान्सर्वान्पतिव्रतपरायणा।
01103017c वाचापि पुरुषानन्यान्सुव्रता नान्वकीर्तयत्।।
अवरॆल्लरन्नू तन्न नडवळिकॆयिंद आराधिसिदळु. अवळु ऎष्टु पतिव्रतॆयागिद्दळॆंदरॆ आ सुव्रतॆयु अन्य पुरुषर कुरितु मातन्नू आडुत्तिरलिल्ल.”
समाप्ति
इति श्री महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि धृतराष्ट्रविवाहे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।।
इदु श्री महाभारतदल्लि आदिपर्वदल्लि संभव पर्वदल्लि धृतराष्ट्रविवाह ऎन्नुव नूरामूरनॆय अध्यायवु.