प्रवेश
।। ओं ओं नमो नारायणाय।। श्री वेदव्यासाय नमः ।।
श्री कृष्णद्वैपायन वेदव्यास विरचित
श्री महाभारत
आदि पर्व
संभव पर्व
अध्याय 93
सार
गंगॆयु शंतनुविगॆ वसुगळिगॆ वसिष्ठनिंद दॊरॆत शाप मत्तु तानु अवरिगॆ नीडिद वरद कुरितु विवरिसुवुदु (1-46).
01093001 शंतनुरुवाच।
01093001a आपवो नाम को न्वेष वसूनां किं च दुष्कृतं।
01093001c यस्याभिशापात्ते सर्वे मानुषीं तनुमागताः।।
शंतनुवु हेळिदनु: “ई आपवनॆंब हॆसरिनवनु यारु? वसुगळु माडिद दुष्कृतवादरू एनित्तु?
01093002a अनेन च कुमारेण गंगादत्तेन किं कृतं।
01093002c यस्य चैव कृतेनायं मानुषेषु निवत्स्यति।।
मत्तु ई कुमार गंगादत्तनु एनु माडिद्दानॆंदु ईग मनुष्यरल्लि बदुकबेकु?
01093003a ईशानाः सर्वलोकस्य वसवस्ते च वै कथं।
01093003c मानुषेषूदपद्यंत तन्ममाचक्ष्व जाह्नवि।।
वसुगळु सर्वलोकगळ ऒडॆयरु. अंथवरु एकॆ मनुष्यरागि हुट्टिदरु ऎन्नुवुदन्नु ननगॆ हेळु जाह्नवि!””
01093004 वैशंपायन उवाच।
01093004a सैवमुक्ता ततो गंगा राजानमिदमब्रवीत्।
01093004c भर्तारं जाह्नवी देवी शंतनुं पुरुषर्षभं।।
वैशंपायननु हेळिदनु: “राजन ई मातुगळिगॆ उत्तरवागि देवि जह्नुपुत्रि गंगॆयु पति पुरुषर्षभ शंतनुवन्नुद्देशिसि हेळिदळु:
01093005a यं लेभे वरुणः पुत्रं पुरा भरतसत्तम।
01093005c वसिष्ठो नाम स मुनिः ख्यात आपव इत्युत।।
“भरतसत्तम! हिंदॆ वरुणनु पुत्रनोर्वनन्नु पडॆदनु. अवनु वसिष्ठनॆंब हॆसरिन मुनि. अवनु आपवनॆंदू ख्यात.
01093006a तस्याश्रमपदं पुण्यं मृगपक्षिगणान्वितं।
01093006c मेरोः पार्श्वे नगेंद्रस्य सर्वर्तुकुसुमावृतं।।
अवन पुण्य आश्रम संकुलवु नगेंद्र मेरुविन पार्श्वदल्लित्तु मत्तु अदु मृगपक्षिगणगळिंद हागू सदाकाल कुसुमगळिंद तुंबिकॊंडित्तु.
01093007a स वारुणिस्तपस्तेपे तस्मिन्भरतसत्तम।
01093007c वने पुण्यकृतां श्रेष्ठः स्वादुमूलफलोदके।।
भरतसत्तम! स्वादिष्टवाद फल-मूल-जलगळिंदॊडगूडिद आ वनदल्लि पुण्यकृतरल्लि श्रेष्ठ वारुणियु तपस्सिनल्लि निरतनागिद्दनु.
01093008a दक्षस्य दुहिता या तु सुरभीत्यतिगर्विता।
01093008c गां प्रजाता तु सा देवी कश्यपाद्भरतर्षभ।।
01093009a अनुग्रहार्थं जगतः सर्वकामदुघां वरां।
01093009c तां लेभे गां तु धर्मात्मा होमधेनुं स वारुणिः।।
दक्षनिगॆ सुरभि ऎन्नुव अतिगर्वितॆ मगळॊब्बळिद्दळु. भरतर्षभ! ई देवियु जगत्तिन अनुग्रहार्थक्कागि कश्यपनिंद सर्वकामगळन्नू पूरैसुव हालुळ्ळ श्रेष्ठ गोवॊंदक्कॆ जन्मवित्तळु. आ हसुवन्नु तन्न होमधेनुवागि धर्मात्म वारुणियु पडॆदनु.
01093010a सा तस्मिंस्तापसारण्ये वसंती मुनिसेविते।
01093010c चचार रम्ये धर्म्ये च गौरपेतभया तदा।।
आ हसुवु तपस्विगळ आ अरण्यदल्लि मुनिगळिंद सेविसल्पडुत्ता, रम्य हुल्लुगावलिनल्लि निर्भयळागि मेयुत्ता वासिसुत्तिद्दळु.
01093011a अथ तद्वनमाजग्मुः कदा चिद्भरतर्षभ।
01093011c पृथ्वाद्या वसवः सर्वे देवदेवर्षिसेवितं।।
भरतर्षभ! ऒम्मॆ देवदेवर्षिसेवित सर्व वसुगळू पृथुविन नायकत्वदल्लि आ वनक्कॆ आगमिसिदरु.
01093012a ते सदारा वनं तच्च व्यचरंत समंततः।
01093012c रेमिरे रमणीयेषु पर्वतेषु वनेषु च।।
तम्म तम्म पत्निगळॊंदिगॆ आ वनवन्नॆल्ला सुत्तिदरु मत्तु आ रमणीय पर्वत-वनगळल्लि रमिसिदरु.
01093013a तत्रैकस्य तु भार्या वै वसोर्वासवविक्रम।
01093013c सा चरंती वने तस्मिन्गां ददर्श सुमध्यमा।
01093013e या सा वसिष्ठस्य मुनेः सर्वकामधुगुत्तमा।।
वासवविक्रम! अवरल्लि ओर्व वसुविन पत्नियु वनदल्लि संचरिसुत्तिद्दाग मुनि वसिष्ठन सर्वकामगळन्नु पूरैसबल्ल, आ उत्तम सुंदर गोवन्नु कंडळु.
01093014a सा विस्मयसमाविष्टा शीलद्रविणसंपदा।
01093014c दिवे वै दर्शयामास तां गां गोवृषभेक्षण।।
01093015a स्वापीनां च सुदोग्ध्रीं च सुवालधिमुखां शुभां।
01093015c उपपन्नां गुणैः सर्वैः शीलेनानुत्तमेन च।।
गोवृषभेक्षण! आ गोविन शीलतॆ मत्तु द्रविणसंपत्तन्नु नोडि विस्मितळाद अवळु आ उत्तम, शीलवंत, सर्वगुणोपेत, सुंदर, सुंदर बाल मत्तु मुखगळन्नु हॊंदिद, ऒळ्ळॆय हालन्नु नीडुव हसुवन्नु द्यौविगॆ तोरिसिदळु.
01093016a एवंगुणसमायुक्तां वसवे वसुनंदिनी।
01093016c दर्शयामास राजेंद्र पुरा पौरवनंदन।।
राजेंद्र! पौरवनंदन! ई रीति गुणसमायुक्त हसुवन्नु वसुनंदिनियु वसुविगॆ तोरिसिदळु.
01093017a द्यौस्तदा तां तु दृष्ट्वैव गां गजेंद्रेंद्रविक्रम।
01093017c उवाच राजंस्तां देवीं तस्या रूपगुणान्वदन्।।
राज! गजेंद्र! इंद्रविक्रम! आ हसुवन्नु नोडिदॊडनॆये द्यौ अदर रूपगुणगळन्नु हॊगळुत्ता तन्न देविगॆ हेळिदनु:
01093018a एषा गौरुत्तमा देवि वारुणेरसितेक्षणे।
01093018c ऋषेस्तस्य वरारोहे यस्येदं वनमुत्तमं।।
“वरारोहे! ई कप्पु कण्णुगळुळ्ळ उत्तम गोवु ई उत्तम वनगळ ऒडॆय वारुणिगॆ सेरिद्दुदु.
01093019a अस्याः क्षीरं पिबेन्मर्त्यः स्वादु यो वै सुमध्यमे।
01093019c दश वर्षसहस्राणि स जीवेत् स्थिरयौवनः।।
सुमध्यमे! इदर स्वादिष्ट हालन्नु कुडिद मर्त्यनु हत्तु साविर वर्षगळ पर्यंत स्थिरयौवनियागि जीविसबल्ल.”
01093020a एतच्छृत्वा तु सा देवी नृपोत्तम सुमध्यमा।
01093020c तमुवाचानवद्यांगी भर्तारं दीप्ततेजसं।।
नृपोत्तम! आ सुमध्यमॆ अनवद्यांगियु ई मातन्नु केळि तन्न दीप्ततेजस पतियन्नुद्देशिसि हेळिदळु:
01093021a अस्ति मे मानुषे लोके नरदेवात्मजा सखी।
01093021c नाम्ना जिनवती नाम रूपयौवनशालिनी।।
“ननगॆ मनुष्यलोकदल्लि रूपयौवनशालि नरदेवात्मजॆ जिनवति ऎंब हॆसरिन सखियॊब्बळिद्दाळॆ.
01093022a उशीनरस्य राजर्षेः सत्यसंधस्य धीमतः।
01093022c दुहिता प्रथिता लोके मानुषे रूपसंपदा।।
धीमंत, सत्यसंध, राजर्षि उशीनरन मगळाद अवळु तन्न रूप संपत्तिनिंद मानुष लोकदल्लिये प्रसिद्धळागिद्दाळॆ.
01093023a तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां ममेप्सितां।
01093023c आनयस्वामरश्रेष्ठ त्वरितं पुण्यवर्धन।।
01093024a यावदस्याः पयः पीत्वा सा सखी मम मानद।
01093024c मानुषेषु भवत्वेका जरारोगविवर्जिता।।
महाभाग! अवळिगोस्कर ई गोवु मत्तु अदर करु ननगॆ बेकु. पुण्यवर्धन! अमरश्रेष्ठ! बेगनॆ अदन्नु तॆगॆदुकॊंडु बा. मानद! अदर हालन्नु कुडिदु नन्न सखियु मनुष्यलोकदल्लि वृद्धाप्य मत्तु रोग वर्जितळाद ऒब्बळे ऒब्बळॆंदु ऎनिसिकॊळ्ळुत्ताळॆ.
01093025a एतन्मम महाभाग कर्तुमर्हस्यनिंदित।
01093025c प्रियं प्रियतरं ह्यस्मान्नास्ति मेऽन्यत्कथं चन।।
महाभाग! अनिंदित! ननगागि इदन्नॊंदन्नु नीनु माडबेकु. इदन्नु बिट्टु बेरॆ एनू ननगॆ संतोषवन्नु कॊडुवुदिल्ल.”
01093026a एतत् श्रुत्वा वचस्तस्या देव्याः प्रियचिकीर्षया।
01093026c पृथ्वाद्यैर्भ्रातृभिः सार्धं द्यौस्तदा तां जहार गां।।
देविय ई वचनगळन्नु केळिद द्यौ अवळिगॆ प्रियवादद्दन्नु माडलोसुग पृथुविन नायकत्वदल्लि तन्न सहोदररन्नु सेरि आ हसुवन्नु अपहरिसि तंदनु.
01093027a तया कमलपत्राक्ष्या नियुक्तो द्यौस्तदा नृप।
01093027c ऋषेस्तस्य तपस्तीव्रं न शशाक निरीक्षितुं।
01093027e हृता गौः सा तदा तेन प्रपातस्तु न तर्कितः।।
नृप! आ कमलपत्राक्षियिंद नियुक्तगॊंड द्यौ आ ऋषिय तीव्र तपस्सन्नु निरीक्षिसलु असमर्थनादनु मत्तु आ हसुवन्नु अपहरिसुवुदरिंदागबहुदाद तन्न अधोगतिय कुरितु योचिसलिल्ल.
01093028a अथाश्रमपदं प्राप्तः फलान्यादाय वारुणिः।
01093028c न चापश्यत गां तत्र सवत्सां काननोत्तमे।।
फलगळन्नु तॆगॆदुकॊंडु आश्रमपदवन्नु सेरिद वारुणियु आ उत्तम काननदल्लि करुविन सहित गोवन्नु काणलिल्ल.
01093029a ततः स मृगयामास वने तस्मिंस्तपोधनः।
01093029c नाध्यगच्छच्च मृगयंस्तां गां मुनिरुदारधीः।।
आ तपोधननु आग वनविडी अदन्नु हुडुकिदनु. ऎष्टु हुडुकिदरू आ उदार मनस्सिन मुनिगॆ गो काणलिल्ल.
01093030a ज्ञात्वा तथापनीतां तां वसुभिर्दिव्यदर्शनः।
01093030c ययौ क्रोधवशं सद्यः शशाप च वसूंस्तदा।।
तन्न दिव्य दृष्ठियिंद हसुवु वसुगळिंद अपहरणवागिदॆ ऎंदु तिळिद अवनु तक्षणवे क्रोधवशनागि वसुगळिगॆ शापवन्नित्तनु.
01093031a यस्मान्मे वसवो जह्रुर्गां वै दोग्ध्रीं सुवालधिं।
01093031c तस्मात्सर्वे जनिष्यंति मानुषेषु न संशयः।।
“वसुगळु नन्न सुंदर बालवन्नुळ्ळ हालन्नीयुव हसुवन्नु कद्दिरुवुदरिंद अवरॆल्लरू निस्संशयवागि मानुषरल्लि जनिसुत्तारॆ!”
01093032a एवं शशाप भगवान्वसूंस्तान्मुनिसत्तमः।
01093032c वशं कोपस्य संप्राप्त आपवो भरतर्षभ।।
भरतर्षभ! ई रीति मुनिसत्तम भगवान् आपवनु कोपवशनागि वसुगळन्नु शपिसिदनु.
01093033a शप्त्वा च तान्महाभागस्तपस्येव मनो दधे।
01093033c एवं स शप्तवान्राजन्वसूनष्टौ तपोधनः।
01093033e महाप्रभावो ब्रह्मर्षिर्देवान्रोषसमन्वितः।
अवरन्नु शपिसि आ महाभागनु तपस्सिनल्लिये तन्न मनवन्नित्तनु. राजन्! ई रीति आ ऎंटु वसुगळु रोषसमन्वित तपोधन, महाप्रभावी, ब्रह्मर्षि देवनिंद शपिसल्पट्टरु.
01093034a अथाश्रमपदं प्राप्य तं स्म भूयो महात्मनः।
01093034c शप्ताः स्म इति जानंत ऋषिं तमुपचक्रमुः।।
शपिसल्पट्टिद्देवॆ ऎंदु तिळिद आ महात्मरु आश्रमपदवन्नु तलुपि ऋषिय बळि बंदरु.
01093035a प्रसादयंतस्तं ऋषिं वसवः पार्थिवर्षभ।
01093035c न लेभिरे च तस्मात्ते प्रसादं ऋषिसत्तमात्।
01093035e आपवात्पुरुषव्याघ्र सर्वधर्मविशारदात्।।
पार्थिवर्षभ! पुरुषव्याघ्र! वसुगळु आ ऋषियन्नु शांतगॊळिसलु प्रयत्निसिदरु. आदरू सर्वधर्म विशारद ऋषिसत्तम आपवनिंद आशीर्वादवु दॊरॆयलिल्ल.
01093036a उवाच च स धर्मात्मा सप्त यूयं धरादयः।
01093036c अनु संवत्सराच्शापमोक्षं वै समवाप्स्यथ।।
धर्मात्मनु हेळिदनु: “निम्मल्लि धर मॊदलाद एळु जनरु इंदिनिंद ऒंदु वर्षदॊळगॆ शापदिंद विमुक्तरागुत्तीरि.
01093037a अयं तु यत्कृते यूयं मया शप्ताः स वत्स्यति।
01093037c द्यौस्तदा मानुषे लोके दीर्घकालं स्वकर्मणा।।
यार कॆलसदिंद नीवॆल्लरू नन्निंद शपिसल्पट्टिद्दीरो आ द्यौ मात्र तन्न कर्मदिंदागि मनुष्य लोकदल्लि दीर्घकाल वासिसुत्तानॆ.
01093038a नानृतं तच्चिकीर्षामि युष्मान्क्रुद्धो यदब्रुवं।
01093038c न प्रजास्यति चाप्येष मानुषेषु महामनाः।।
निम्म मेलिन क्रोधदिंदागली अथवा सुळ्ळन्नु हेळलोसुग ई मातन्नु हेळुत्तिल्ल. आ महात्मनु मनुष्य लोकदल्लि संततियन्नु पडॆयुवुदिल्ल.
01093039a भविष्यति च धर्मात्मा सर्वशास्त्रविशारदः।
01093039c पितुः प्रियहिते युक्तः स्त्रीभोगान्वर्जयिष्यति।
01093039e एवमुक्त्वा वसून्सर्वान् जगाम भगवानृषिः।।
अवनॊब्ब धर्मात्मनू, सर्वशास्त्रविशारदनू, पितन प्रियकार्य निरतनू, आगि स्त्रीभोगवन्नु वर्जिसुत्तानॆ.” ऎल्ल वसुगळिगू ई रीति हेळिद भगवान् ऋषियु तॆरळिदनु.
01093040a ततो मामुपजग्मुस्ते समस्ता वसवस्तदा।
01093040c अयाचंत च मां राजन्वरं स च मया कृतः।
01093040e जातां जातान्प्रक्षिपास्मान्स्वयं गंगे त्वमंभसि।।
आनंतर, समस्त वसुगळू नन्न बळि बंदाग नानु अवरिगॆ ऒंदु वरवन्नु इत्तॆ. आग अवरु “गंगे! नावु हुट्टिदाक्षणवे स्वयं नीनु नीरिनल्लि हाकिबिडु!” ऎंदु याचिसिदरु.
01093041a एवं तेषामहं सम्यक्शप्तानां राजसत्तम।
01093041c मोक्षार्थं मानुषाल्लोकाद्यथावत्कृतवत्यहं।।
राजसत्तम! शपित आ देवतॆगळन्नु मनुष्य लोकदिंद मुक्ति नीडलोसुगवे नानु इदन्नॆल्ल माडिदॆ.
01093042a अयं शापादृषेस्तस्य एक एव नृपोत्तम।
01093042c द्यौ राजन्मानुषे लोके चिरं वत्स्यति भारत।।
आदरॆ, नृपोत्तम! राजन्! भारत! ई द्यौ ऒब्बनु मात्र ऋषिय शापदंतॆ मनुष्य लोकदल्लि दीर्घकाल वासिसुत्तानॆ.”
01093043a एतदाख्याय सा देवी तत्रैवांतरधीयत।
01093043c आदाय च कुमारं तं जगामाथ यथेप्सितं।।
ई रीति कथॆयन्नु हेळिद देवियु अल्लिये अंतर्धानळादळु. होगुवाग आ कुमारनन्नू करॆदुकॊंडु होदळु.
01093044a स तु देवव्रतो नाम गांगेय इति चाभवत्।
01093044c द्विनामा शंतनोः पुत्रः शंतनोरधिको गुणैः।।
गुणगळल्लि शंतनुवन्नू मीरिद शंतनु पुत्रनु ऎरडु हॆसरुगळिंद करॆयल्पट्टनु: देवव्रत मत्तु गांगेय.
01093045a शंतनुश्चापि शोकार्तो जगाम स्वपुरं ततः।
01093045c तस्याहं कीर्तयिष्यामि शंतनोरमितान्गुणान्।।
01093046a महाभाग्यं च नृपतेर्भारतस्य यशस्विनः।
01093046c यस्येतिहासो द्युतिमान्महाभारतमुच्यते।।
शंतनवु शोकार्तनागि तन्न पुरक्कॆ तॆरळिदनु. महाभाग्यवंतनू, यशस्वियू, याव द्युतिवंतन इतिहासवन्नु महाभारतदल्लि हेळल्पडुत्तिदॆयो आ भारत नृप, शंतनुविन अमित गुणगळन्नु संकीर्तिसुत्तेनॆ.”
समाप्ति
इति श्री महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि आपवोपाख्याने त्रिनवतितमोऽध्यायः।। इदु श्री महाभारतदल्लि आदिपर्वदल्लि संभव पर्वदल्लि आपवोपाख्यानदल्लि तॊंभत्त्मूरनॆय अध्यायवु.